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Sunday, March 25, 2018

कहीं पे दूर किसी अजनबी सी घाटी में

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कहीं पे दूर किसी अजनबी सी घाटी में
किसी का एक हसीं शाहकार हो जैसे
मुसव्विरी की इक उम्दा मिसाल लगती थी
कोई इनायत-ए-परवर-दिगार हो जैसे
*शाहकार= अति उत्तम रचना; मुसव्विरी=पेंटिंग़

ये ज़िंदगी की हर इक रंग से थी बेगानी
ख़याल ओ ख़्वाब की बातों से थी वो अनजानी
बनाने वाले ने उस को बना के छोड़ा था
और उस के चेहरे पे इक नाम लिख के छोड़ा था
न दी ज़बाँ न कोई आईना दिया उस को
बना के बुत यूँ ज़मीं पर सजा दिया उस को
उसे ज़माने की बातों से कुछ गिला ही न था
सिवाए जिस्म के एहसास कुछ मिला ही न था

फिर एक रोज़ किसी नर्म नर्म झोंके ने
कहा ये कान में आ कर बहुत ही चुपके से
ज़रा सा आँखों को खोलो तो तुम को दिखलाऊँ
महकती ज़िंदगी कैसे है तुम को सिखलाऊँ
कहाँ से आई हो कब से यहाँ खड़ी हो तुम
मिरे वजूद के हर रंग से जुड़ी हो तुम
ये गुनगुनाती हुई वादियाँ ये गुल-कारी
नदी की झूमती गाती हुई ये किलकारी
ये धूप छाँव के बादल ये मख़मली एहसास
मचल रहे हैं बहुत प्यार से तुम्हारे पास
महकते दिल हैं यहाँ ख़ुशबू-ए-मोहब्बत से
ख़ुदा के नूर से पैदा हुई हरारत से
*गुल-कारी= बेल-बूटे; नूर=प्रकाश

हवा का झोंका जो कानों में उस के बोल गया
तो उस ने चौंक के पलकों को अपनी खोल दिया
ये वादियों का हसीं रंग उस ने जब देखा
हुई ये सोच के हैरान उस ने अब देखा
बदन में जितने थे एहसास वो मचलने लगे
नज़ारे उस की निगाहों के साथ चलने लगे

ये रंग ओ नूर के क़िस्से समझ में आने लगे
हसीन आँखों में कुछ ख़्वाब झिलमिलाने लगे
और ऐसे हो के मुकम्मल वो हुस्न की मूरत
किसी के प्यार की ख़ुश्बू से बन गई औरत

~ अलीना इतरत

  Mar 25, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, March 24, 2018

मिट्टी को देख फूल हँस पड़ा

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मिट्टी को देख फूल हँस पड़ा
मस्ती से लहरा कर पंखुरियाँ
बोला वह मिट्टी से–
उफ मिट्टी!
पैरों के नीचे प्रतिक्षण रौंदी जा कर भी
कैसे होता है संतोष तुम्हें?
उफ मिट्टी!
मैं तो यह सोच भी नहीं सकता हूं क्षणभर‚
स्वर में कुछ और अधिक बेचैनी बढ़ आई‚
ऊंचा उठ कर कुछ मृदु–पवन झकोरों में

उत्तेजित स्वर में‚
वह कहता, कहता ही गया–
कब से पड़ी हो ऐसे?
कितने युग बीत गये?
तेरे इस वक्ष पर ही सृजन मुस्कुराए‚
कितने ताण्डव इठलाए?
किंतु तुम पड़ी थीं जहां‚
अब भी पड़ी हो वहीं‚
कोइ विद्रोह नहीं मन में तुम्हारे उठा‚
कोई सौंदर्य भाव पलकों पर नहीं जमा।
अधरों पर कोई मधु–कल्पना न आई कभी‚
कितनी नीरस हो तुम‚
कितनी निष्क्रिय हो तुम‚
बस बिलकुल ही जड़ हो!

मिट्टी बोली–प्रिय पुष्प
किसके सौंदर्य हो तुम?
किसके मधु–गान हो?
किसकी हो कल्पना‚ प्रिय?
किसके निर्माण हो?
किसकी जड़ता ने तुम्हें चेतना सुरभि दी है?
किसकी ममता ने जड़ें और गहरी कर दी हैं?
नित–नित विकसो‚ महको
पवन चले लहराओ‚
पंखुरिया सुरभित हों‚
किरन उगे मुस्काओ‚
लेकिन घबरा कर संघर्षों से जब–जब‚
मुरझा तन–मन लेकर मस्तक झुकाओगे‚
तब–तब ओ रूपवान!
सुरभि–वान!
कोमल–तन!
मिट्टी की गोद में ही चिर–शांति पाओगे।

∼ वीरबाला भावसार


  Mar 24, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, March 23, 2018

तेरे महल में कैसे बसर हो

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तेरे महल में कैसे बसर हो इस की तो गीराई बहुत है
मैं घर की अँगनाई में ख़ुश हूँ मेरे लिए अँगनाई बहुत है
*गीराई=कमी, अकाल

अपनी अपनी ज़ात में गुम हैं अहल-ए-दिल भी अहल-ए-नज़र भी
महफ़िल में दिल क्यूँ कर बहले महफ़िल में तन्हाई बहुत है

ग़र्क़-ए-दरिया होना यारो 'ग़ालिब' ने क्यूँ चाहा आख़िर
ऐसी मर्ग-ए-ला-वारिस में सोचो तो रुस्वाई बहुत है
*ग़र्क़-ए-दरिया=नदी में डूबना; मर्ग =मृत्यु

दुश्मन से घबराना अबस है ग़ैर से डरना भी ला-हासिल
कुल का घातक घर का भेदी एक विभीषण भाई बहुत है
*अबस= व्यर्थ

बरसों में इक जोगी लौटा जंगल में फिर जोत जगाई
कहने लगा ऐ भोले शंकर शहरों में महँगाई बहुत है

अपनी धरती ही के दुख-सुख हम इन शेरों में कहते हैं
हम को हिमाला से क्या मतलब उस की तो ऊँचाई बहुत है

पुर्सिश-ए-ग़म को ख़ुद नहीं आए उन का मगर पैग़ाम तो आया
हिज्र की रुत में जान-ए-हज़ीं को दूर की ये शहनाई बहुत है
*पुर्सिश-ए-ग़म= दुख का हाल चाल; हिज्र=जुदाई; जान-ए-हज़ीं=दुखी जीवन

दिल की किताबें पढ़ नहीं सकता लेकिन चेहरे पढ़ लेता हूँ
ढलती उम्र की धूप में 'साहिर' इतनी भी बीनाई बहुत है

~ साहिर होशियारपुरी

  Mar 23, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, March 21, 2018

ऐ मिरे नूर-ए-नज़र लख़्त-ए-जिगर

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ऐ मिरे नूर-ए-नज़र लख़्त-ए-जिगर जान-ए-सुकूँ
नींद आना तुझे दुश्वार नहीं है सो जा
*नूर=रौशनी; लख़्त=टुकड़ा;

ऐसे बद-बख़्त ज़माने में हज़ारों होंगे
जिन को लोरी भी मयस्सर नहीं आती होगी
मेरी लोरी से तिरी भूक नहीं मिट सकती
मैं ने माना कि तुझे भूक सताती होगी
*बद-बख़्त=अभागे

लेकिन ऐ मेरी उमीदों के हसीं ताज-महल
मैं तिरी भूक को लोरी ही सुना सकती हूँ
तेरा रह रह के ये रोना नहीं देखा जाता
अब तुझे दूध नहीं ख़ून पिला सकती हूँ

भूक तो तेरा मुक़द्दर है ग़रीबी की क़सम
भूक की आग में जल जल के ये रोना कैसा
तू तो आदी है इसी तरह से सो जाने का
भूक की गोद में फिर आज न सोना कैसा

आज की रात फ़क़त तू ही नहीं तेरी तरह
और कितने हैं जिन्हें भूक लगी है बेटे
रोटियाँ बंद हैं सरमाए के तह-ख़ानों में
भूक इस मुल्क के खेतों में उगी है बेटे
*सरमाए=धन

लोग कहते हैं कि इस मुल्क के ग़द्दारों ने
सिर्फ़ महँगाई बढ़ाने को छुपाया है अनाज
ऐसे नादार भी इस मुल्क में सो जाते हैं
हल चलाए हैं जिन्हों ने नहीं पाया है अनाज
*नादार=गरीब

तू ही इस मुल्क में नादार नहीं है सो जा
ऐ मिरे नूर-ए-नज़र लख़्त-ए-जिगर जान-ए-सुकूँ
नींद आना तुझे दुश्वार नहीं है सो जा

‍ ~ कफ़ील आज़र अमरोहवी


  Mar 21, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, March 18, 2018

मन! कितना अभिनय शेष रहा

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मन!
कितना अभिनय शेष रहा
सारा जीवन जी लिया, ठीक
जैसा तेरा आदेश रहा!

बेटा, पति, पिता, पितामह सब
इस मिट्टी के उपनाम रहे
जितने सूरज उगते देखो
उससे ज्यादा संग्राम रहे
मित्रों मित्रों रसखान जिया
कितनी भी चिंता, क्लेश रहा!

हर परिचय शुभकामना हुआ
दो गीत हुए सांत्वना बना
बिजली कौंधी सो आँख लगीं
अँधियारा फिर से और लगा
पूरा जीवन आधा–आधा
तन घर में मन परदेश रहा!

आँसू–आँसू संपत्ति बने
भावुकता ही भगवान हुई
भीतर या बाहर से टूटे
केवल उनकी पहचान हुई
गीत ही लिखो गीत ही जियो
मेरा अंतिम संदेश रहा!

~ भारत भूषण


  Mar 18, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, March 17, 2018

मिरे साक़िया मुझे भूल जा

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मिरे साक़िया मुझे भूल जा
मिरे दिलरुबा मुझे भूल जा

न वो दिल रहा न वो जी रहा
न वो दौर-ए-ऐश-ओ-ख़ुशी रहा
न वो रब्त-ओ-ज़ब्त-ए-दिली रहा
न वो औज-ए-तिश्ना-लबी रहा
न वो ज़ौक़-ए-बादा-कशी रहा
मैं अलम-नवाज़ हूँ आज-कल
मैं शिकस्ता-साज़ हूँ आज-कल
मैं सरापा राज़ हूँ आज-कल
मुझे अब ख़याल में भी न मिला
मुझे भूल जा मुझे भूल जा

*रब्त-ओ-ज़ब्त=मेल-जोल और संग-साथ; अलमनवाज़::सहानुभूति; शिकस्ता-साज़=टूटा हुआ वाद्य; सरापा=सर से पाँव तक

मुझे ज़िंदगी से अज़ीज़-तर
फ़क़त एक तेरी ही ज़ात थी
तिरी हर निगाह मिरे लिए
सबब-ए-सुकून-ए-हयात थी
मिरी दास्तान-ए-वफ़ा कभी
तिरी शरह-ए-हुस्न-ए-सिफ़ात थी
मगर अब तो रंग ही और है
न वो तर्ज़ है न वो तौर है
ये सितम भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है
तुझे अपने हुस्न का वास्ता
मुझे भूल जा मुझे भूल जा

*ज़ात=व्यक्तित्व; शरह=स्पष्ट रूप से, सिफ़ात=तारीफ़;

क़सम इज़्तिराब-ए-हयात की
मुझे ख़ामुशी में क़रार है
मिरे सहन-ए-गुलशन-ए-इश्क़ में
न ख़िज़ाँ है अब न बहार है
यही दिल था रौनक़-ए-अंजुमन
यही दिल चराग़-ए-मज़ार है
मुझे अब सुकून-ए-दिगर न दे
मुझे अब नवेद-ए-सहर न दे
मुझे अब फ़रेब-ए-नज़र न दे
न हो वहम-ए-इश्क़ में मुब्तला
मुझे भूल जा मुझे भूल जा

*इज़्तिराब-ए-हयात=ज़िंदगी की बेचैनी; सहन=आँगन; दिगर=दूसरा; नवेद-ए-सहर=(सुबह की) अच्छी ख़बर; मुब्तला=फँसना

~ शकील बदायूँनी


  Mar 17, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, March 16, 2018

मलयानिल नाचा करती है

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जब से जग के दुःख-दर्दों का
फूलों से शृंगार किया है
तब से मेरे मन-आँगन में, मलयानिल नाचा करती है।

पर्वत जैसी पीर हुई, पर
मैंने उसको तन पर झेला
झंझाओं के विकट व्यूह में
मैं आखिर तक लड़ा अकेला ।
जब से तपन जेठ की लेकर
घन-सावन से प्यार किया है
तब से वासंती मनुहारें, मधुर छंद बाँचा करती हैं।

जो भी मिला सभी का माना
विष तो क्या अमृत ही बाँटा
कभी न सोचा इस विनिमय में
कितना लाभ कि कितना घाटा ?
जब से पर्वत सा मन लेकर
क्षितिजों को विस्तार दिया है
तब से जीवन की क्षमताएँ, पग-पग को साँचा करती हैं।

संबंधों के लिए आज तक
सम्मानों के दीप जलाए,
घोर वर्जना, अविनय के पथ
मैंने अनगिन जाल बिछाए ।
जब से तम से रण करने में
मैंने मन-दिनमान दिया है
तब से जग की उज्ज्वल आशा, रह-रहकर जाँचा करती है।

*मलयानिल=मलय पर्वत की ओर से आने वाली चन्दन सी सुगंधित हवा

~ देवेन्द्र आर्य


  Mar 16, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, March 13, 2018

इक बे-क़रार दिल से मुलाक़ात

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इक बे-क़रार दिल से मुलाक़ात कीजिए
जब मिल गए हैं आप तो कुछ बात कीजिए

पहले-पहल हुआ है मिरी ज़िंदगी में दिन
ज़ुल्फ़ों में मुँह छुपा के न फिर रात कीजिए

नज़रों से गुफ़्तुगू की हदें ख़त्म हो चुकीं
जो दिल में है ज़बाँ से वही बात कीजिए

कल इंतिक़ाम ले न मिरा प्यार आप से
इतना सितम न आज मिरे साथ कीजिए

बस एक ख़ामुशी है हर इक बात का जवाब
कितने ही ज़िंदगी से सवालात कीजिए

नज़रें मिला मिला के नज़र फेर फेर के
मजरूह और दिल के न हालात कीजिए

दिल के सिवा किसी को नहीं जिन की कुछ ख़बर
दुनिया से किया बयाँ वो हिकायात कीजिए

‍~ नौशाद अली

  Mar 13, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

  प्रसिद्ध फ़िल्म संगीतकार और दादा साहब फाल्के एवार्ड से सम्मानित। शायरी का संग्रह ' आठवाँ सुर ' के नाम     से प्रकाशित

Saturday, March 10, 2018

मुझे फूल मत मारो


मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नही भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,

बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह--यह हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!

~ मैथिलीशरण गुप्त


यह गीत साकेत महाकाव्य से लिया गया है, अयोध्या के राज महल में राजसी श्रृंगार है और उर्मिला अकेली है। चारो ओर श्रृंगार का वातावरण है और उर्मिला को कदाचित लगता है कि कामदेव उसे विचलित करने की कोशिश कर रहा है और वह कामदेव से कह रही है:

मुझे फूल मत मारो = हे कामदेव मुझे फूलों के धनुष से तीर न मारों (माना जाता है कि कामदेव के पास फूलों का धनुष है। अपने इस धनुष के तीरों से वह काम तथा रूप लालसा की भावना जागृत करता है)।

दया विचारो=हे कामदेव! मेरे प्रति दया- भाव रखों, अर्थात् मुझे अपने प्रभाव से मुक्त रहने दो। मदन = कामदेव।

कटु गरल न गारो=तुम तो आनन्द की सृष्टि करने वाले हो, तुम्हारा आनन्द, मिलन की अवस्था में ही भला लगता है, विरह की अवस्था में तो तुम्हारा आगमन विष घोलने के समान है।

मुझे विकलता=मैं विरह में विकल हूँ।

विफलता=तुम मेरे ऊपर प्रभाव न डाल सकोगे

श्रम परिहाओ=व्यर्थ में श्रम न करो

नहीं भोगनी=मैं भोग विलास में लिप्त होने वाली नहीं

जाल=काम का जाल
बल हो=सामर्थ्य हो

सिन्दूर-बिन्दु यह--यह हरनेत्र निहारो= मेरा यह सिंदूर बिंदु शंकर के तीसरे नेत्र के समान है। कथा है कि शंकर ने अपना तीसरा नेत्र खोल कर कामदेव को भस्म कर दिया था इसी प्रकार उर्मिला भी अपने क्रोध में कामदेव को जला कर भस्म कर देगी

रूप-दर्प= रूप का घमण्ड, कामदेव को सबसे सुंदर माना गया है

कंदर्प=कामदेव

मेरे पति पर वारो=कामदेव! माना कि तुम सबसे सुंदर हो लेकिन लक्ष्मण के रूप के आगे तुम्हारा रूप कुछ भी नहीं है। उनके रूप पर तुम्हे न्योछावर किया जा सकता है,
लो यह मेरी चरण धूलि= मेरे चरणों की धूलि ले रति (अपनी पती) के माथे पर लगा दो ताकि उसका जीवन भी सुधर जाये


  Mar 10, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, March 9, 2018

मैं और तो कुछ तेरी नज़र कर सकता नहीं

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मैं और तो कुछ तेरी नज़र कर सकता नहीं
मेरे पास चन्द अशआर हैं मेरी जवानी का निखार
ये तेरे कदमों पे निसार कर सकता हूं मैं
ये हीरे हो सकते हैं तेरे जोबन का शिंगार
*निसार=कुर्बान; जोबन=सुंदरता, नवयौवन

मेरे अशआर मेरी दौलत हैं मेरा सरमाया हैं
मेरी जवानी का निचोड़ मेरी जवानी का ख़ुमार
तेरे फूल से गालों की तरह शादाब हैं ये
ऐ मेरी जान-ए-तमन्ना ऐ मेरी जान-ए-बहार
सरमाया=धन, पूँजी; शादाब=ताज़ा, हरा

इक बात कह दूं गर तू बुरा न माने
उमर भर तुझको ये कहीं रुलाते ही न रहें
क्योंकि पौशीदा है इन में मुहब्बत की महक
ग़म बढ़ जाये शायद तुझको हंसाते ही रहें
पोशीदा=छुपा हुआ

यूं तो उमर भर तुमको मैं हमराह रख न सका
तुम इन अशआरों को ही सीने से लगाए रखना
मैं समझूंगा मुझको ही सीने से लगा रक्खा है
प्यार की जोत बस यूं ही जगमगाए रखना

अब भी याद है तुमने लिखा था इक बार मुझे
कि शहज़ादा हूं मैं तेरा मैं तेरा शाह हूं
यूं तो हूं मैं शुकरग़ुज़ार तेरे जज़्बात का
लेकिन मेरी जां मैं तो इक मुजस्सम आह हूं
मुजस्सम=शारीरिक

अच्छा इक तरकीब है दिल को मनाने की
आयो ख़ाबों में हम नए रंग सजा दें
इक नए शाहकार की तशकील करें हम
उस में खो जाएं और माजी को भुला दें
शाहकार= श्रेष्ट कृति; तश्कील=बनाना; माजी=गुज़रा वक़्त

~ कृष्ण बेताब


  Mar 9, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, March 3, 2018

हो के सरशार बहुत इश्क़ से गाएँ होली

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हो के सरशार बहुत इश्क़ से गाएँ होली
इक नए रंग से अपनों को सुनाएँ होली
ले के आई है अजब मस्त अदाएँ होली
मुल्क में आज नए रुख़ से दिखाएँ होली
आज हर शख़्स को देती है सदाएँ होली
दोस्तो आओ चलो ऐसी मनाएँ होली
*सरशार=मस्त; सदाएं=आवाज़ें

मुल्क से फ़िरक़ा-परस्ती को हटा ही डालो
दैर-ओ-काबा के तफ़रक़े को मिटा ही डालो
हिन्द को देश मोहब्बत का बना ही डालो
ये नया गीत ज़माने को सुना ही डालो
डाल दे मुल्क में उल्फ़त की बिनाएँ होली
दोस्तो आओ चलो ऐसी मनाएँ होली
*फ़िरक़ा-परस्ती=साम्यवाद (कम्युनिज़्म); दैर=मंदिर; तफ़रक़े=विरोध

जो मोहब्बत के बुज़ुर्गों ने जलाए थे दिए
पाप की तेज़ हवाओं से वो अब बुझने लगे
आज प्रहलाद के भी होंट नहीं क्यूँ हिलते
हर तरफ़ पूजने वाले हैं कँवल कश्यप के
काश बन जाए गुनाहों की चिताएँ होली
दोस्तो आओ चलो ऐसी मनाएँ होली

हर तरफ़ बहने लगे अम्न-ओ-सुकूँ का दरिया
काश आ जाए बुज़ुर्गों का समय गुज़रा हुआ
रंग हम सब को बदलना है अगर भारत का
आपसी फूट से है देश को फिर से ख़तरा
हम को लाज़िम है कि नफ़रत की जलाएँ होली
दोस्तो आओ चलो ऐसी मनाएँ होली

अपने भारत से ग़रीबी को मिटाना है हमें
अपनी मेहनत से नए दौर को लाना है हमें
देश में नाज का अम्बार लगाना है हमें
कार-ख़ानों में हर इक चीज़ बनाना है हमें
साज़-ए-मेहनत पे नए तर्ज़ से गाएँ होली
दोस्तो आओ चलो ऐसी मनाएँ होली
*नाज=अनाज

हिन्द को आज मोहब्बत की ज़रूरत है 'कँवल'
आज हर शख़्स को उल्फ़त की ज़रूरत है 'कँवल'
अब किसानों को भी हिम्मत की ज़रूरत है 'कँवल'
मुल्क को अब इसी दौलत की ज़रूरत है 'कँवल'
दे रही है यही हर इक को सदाएँ होली
दोस्तो आओ चलो ऐसी मनाएँ होली

~ कँवल डिबाइवी


  Mar 3, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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नयनों के डोरे लाल-गुलाल

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नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे खेली होली।

जागी रात सेज प्रिय पति सँग, रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप, कंज छवि मंजु मंजु हँस खोली
मली मुख-चुम्बन-रोली।
*कंज=केश; मंजु=मोहक

प्रिय, कर कठिन उरोज, परस, कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली।
*वसन=वस्त्र, कमरबंद; दशन=दाँत

मधु ऋतु रात, मधुर अधरों की, पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली
बनी रति की छवि भोली।
*अलक=सिर से लटकते बाल

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, हँस बोली
रही यह एक ठिठोली।

~ सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'


  Mar 2, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh