Disable Copy Text

Saturday, March 11, 2017

यहाँ रहना है पचास साठ सत्तर तक


यहाँ रहना है पचास साठ सत्तर तक....!

बारिशें ले कर के बादल कभी पीछे भी फिरते थे,
पत्ते झरने की ऋतु में भी हरे पत्ते ही गिरते थे,
झील सी आँखों मे सपने किसी मछली से तिरते थे,
चल रहे थे सपाट रास्तों पे तुम,
एक ज़रा ठोकर खाई तो
कहा जंजाल जीते थे।
यहाँ रहना है पचास साठ सत्तर तक....!

आँख में ले कर फिरता क्यों गैर के गाल का एक वो तिल,
सेठ की ड्योढ़ी से लौटा हवेली में रख आया दिल,
चाव से दो
 दिन की पगले घड़ी भर गीतों की महफिल,
कहाँ फिर वो बांसुरी मृदंग वायलिन,
टीन के टूटे डब्बे पर,
यहीं सुर ताल फिरता है।
यहाँ रहना है पचास साठ सत्तर तक....!

मन तेरा बहका न टूटा आँख फिसली न कभी रोयी,
दिन तेरा मेले में बीता रात बिन सपनों के सोयी,
याद में तू न किसी के है न तेरी यादों में कोई,
तेरी मुट्ठी में ज़मीन आसमान सब,
जेब में सोने के सिक्के,
मगर कंगाल जीना है।
यहाँ रहना है पचास साठ सत्तर तक....!

भाग्य का लेख नहीं है ये अपने अभिमान का लेखा है,
तेरे और मेरे 'मैं' के बीच एक बारीक़ सी रेखा है,
द्वार की झिरनी से छुप के मुझे तुमने भी देखा है,
मन हुआ जाता है कमज़ोर पर ये कैसी ज़िद,
मैं सुलह पर हूँ आ
मादा, मुझे हर ताल जीना है,
दुश्मनी ऐसी है जैसे
हज़ारों साल जीना है।
यहाँ रहना है पचास साठ सत्तर तक....!

मेरे बिन दिन टूटते बे-हाल रूठती,
उसमें अभिमान है तुमको यहीं खुशहाल जीना है।
यहाँ रहना है पचास साठ सत्तर तक....!

‍~ रमेश शर्मा


  Mar 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

समय की शिला पर

Image may contain: 1 person, sitting

समय की शिला पर मधुर चित्र कितने
किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए।

किसी ने लिखी आँसुओं से कहानी
किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूँद पानी
इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के
गई घुल जवानी, गई मिट निशानी।
विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने
धरा ने उठाए, गगन ने गिराए।

शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाए, विरह ने बुझाए।

भटकती हुई राह में वंचना की
रुकी श्रांत हो जब लहर चेतना की
तिमिर-आवरण ज्योति का वर बना तब
कि टूटी तभी श्रृंखला साधना की।
नयन-प्राण में रूप के स्वप्न कितने
निशा ने जगाए, उषा ने सुलाए।

सुरभि की अनिल-पंख पर मोर भाषा
उड़ी, वंदना की जगी सुप्त आशा
तुहिन-बिन्दु बनकर बिखर पर गए स्वर
नहीं बुझ सकी अर्चना की पिपासा।
किसी के चरण पर वरण-फूल कितने
लता ने चढ़ाए, लहर ने बहाए।

~ शंभुनाथ सिंह


  Mar 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़

Image may contain: 1 person, sunglasses

अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
हाट से लौटे, ठाट से लौटे,
एक साथ एक बाट से लौटे।

बात बात में बात ठन गई,
बांह उठी और मूछ तन गई,
इसने उसकी गर्दन भींची
उसने इसकी दाढ़ी खींची।

अब वह जीता, अब यह जीता
दोनों का बन चला फजीता;
लोग तमाशाई जो ठहरे -
सबके खिले हुए थे चेहरे!

मगर एक कोई था फक्कड़,
मन का राजम कर्रा-कक्कड़;
बढ़ा भीड़ को चीर-चार कर
बोला ‘ठहरो’ गला फाड़ कर।

अक्कड़ मक्कड़ धुल में धक्कड़
दोनों मूरख दोनों अक्कड़,
गर्जन गूंजी, रुकना पड़ा,
सही बात पर झुकना पड़ा!

उसने कहा, सही वाणी में
डूबो चुल्लू-भर पानी में;
ताकत लड़ने में मत खोओ
चलो भाई-चारे को बोओ!

खाली सब मैदान पड़ा है
आफत का शैतान खड़ा है
ताकत ऐसे ही मत खोओ;
चलो भाई-चारे को बोओ!

सूनी मूर्खों ने जब बानी,
दोनों जैसे पानी-पानी;
लड़ना छोड़ा अलग हट गए,
लोग शर्म से गले, छंट गए।

सबको नाहक लड़ना अखरा,
ताकत भूल गई सब नखरा;
गले मिले तब अक्कड़ मक्कड़
ख़त्म हो गया धूल में धक्कड़!

~ भवानीप्रसाद मिश्र


  Mar 9, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मेरा और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है

Image may contain: 1 person, closeup and indoor

प्रश्न किया है मेरे मन के मीत ने
मेरा और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है

वैसे तो सम्बन्ध कहा जाता नहीं
व्यक्त अगर हो जाए तो नाता नहीं
किन्तु सुनो लोचन को ढाँप दुकूल से
जो सम्बन्ध सुरभि का होता फूल से
मेरा और तुम्हारा वो सम्बन्ध है

मेरा जन्म दिवस ही जग का जन्म है
मेरे अन्त दिवस पर दुनिया खत्म है
आज बताता हूँ तुमको ईमान से
जो सम्बन्ध कला का है इंसान से
मेरा और तुम्हारा वो सम्बन्ध है

मैं न किसी की राजनीत का दाँव हूँ
देदो जिसको दान न ऐसा गाँव हूँ
झूठ कहूँगा तो कहना किस काम का
जो सम्बन्ध प्रगति और विराम का
मेरा और तुम्हारा वो सम्बन्ध है

करता हूँ मैं प्यार सुनाता गीत हूँ
जीवन मेरा नाम सृजन का मीत हूँ
और निकट आ जाओ सुनो न दूर से
जो सम्बन्ध स्वयंवर का सिन्दूर से
मेरा और तुम्हारा वो सम्बन्ध है

मैं रंगीन उमंगों का समुदाय हूँ
सतरंगी गीतों का एक निकाय हूँ
और कहूँ क्या तुम हो रहे उदास से
जो सम्बन्ध समर्पण का विश्वास से
मेरा और तुम्हारा वो सम्बन्ध है

प्रश्न किया मेरे मन के मीत ने
मेरा और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है

~ रामावतार त्यागी


  Mar 8, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

इन सपनों के पंख न काटो

Image may contain: one or more people, cloud, sky, outdoor and nature

इन सपनों के पंख न काटो
इन सपनों की गति मत बाँधो?

सौरभ उड़ जाता है नभ में
फिर वह लौ कहाँ आता है?
धूलि में गिर जाता जो
वह नभ में कब उड पाता है?
अग्नि सदा धरती पर जलती
धूम गगन में मँड़राता है।
सपनों में दोनों ही गति है
उड़कर आँखों में ही आता है।
इसका आरोहण मत रोको
इसका अवरोहण मत बाँधो।

मुक्त गगन में विचरण कर यह
तारों में फिर मिल जायेगा,
मेघों से रंग औ’ किरणों से
दीप्ति लिए भू पर आयेगा।
स्वर्ग बनाने का फिर कोई शिल्प
भूमि को सिखलायेगा।
नभ तक जाने से मत रोको
धरती से इसको मत बाँधो?
इन सपनों के पोख न काटो
इन सपनों की गति मत बाँधो।

‍~ महादेवी वर्मा


  Mar 7, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बात

Image may contain: 1 person


उस से क्या छुप सके बनाई बात
ताड़ जाए जो दिल की आई बात

कहिए गुज़री है एक साँ किस की
कभी बिगड़ी कभी बन आई बात

रहे दिल में तो है वो बात अपनी
मुँह से निकली हुई पराई बात

मैं समझता हूँ ये नई चालें
कभी छुपती नहीं सिखाई बात

कह दिया अपने दिल को ख़ुद बे-रहम
छीन ली मेरे मुँह की आई बात

रख लिया आशिक़ों ने नाम-ए-वफ़ा
गई जाँ पर न जाने पाई बात

रंग बिगड़ा है उन की सोहबत का
अब नहीं है वो इब्तिदाई बात
*इब्तिदाई=शुरुआत

मुझ से बे-वज्ह होते हो बद-ज़न
कर के बावर सुनी-सुनाई बात
*बद-ज़न=ना ख़ुश; बावर=विश्वास

क्या हो उन का मिज़ाज-दाँ कोई
रूठना खेल है लड़ाई बात
*मिज़ाज-दाँ=जिसकी आदतें पता हो

ग़ैर का ज़िक्र गर न था साहब
मेरे आते ही क्यूँ उड़ाई बात

दिल में रखता है ख़ूब सुन के 'हबीब'
चाहे अपनी हो या पराई बात

~ हबीब मूसवी

  Mar 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

प्यार जब मँझधार से हो ...

Image may contain: one or more people, people standing, ocean, mountain, outdoor, nature and water

प्यार जब मँझधार से हो तो किनारा कौन माँगे?

बाहुओँ में भर रहा हूं मैं हिलोरों की रवानी,
है हिलोरों से बहुत मिलती हुई मेरी जवानी,
जन्म है उठती लहर सा, है मरण गिरती लहर सा,
जिंदगी है जन्म से ले कर मरण तक की कहानी।

चूमने दो ओंठ लहरों के मुझे निश्शंक हो कर
डूबना ही इष्ट हो जब, तो सहारा कौन मांगे?

श्याम मेघों से घिरा नक्षत्र विहँगों का बसेरा,
आधियों ने डाल रखा है क्षितिज पर घोर घेरा,
जिस तरह से भग्न अंतर में उमड़ती है निराशा,
ठीक वैसे ही उमड़ता आ रहा नभ में अँधेरा।

जब कि चाहें प्राण बरसाती अंधेरे में भटकना,
पथ-प्रदर्शन के लिए तो ध्रुव सितारा कौन मांगे?

जिंदगी का दीप लहरों पर सदा बहता रहा है,
निज हृदय से ही हृदय की बात यह कहता रहा है,
डगमगाती ज्योति में विश्वास जीवन के संजोये,
मौन जल स्नेह का अभिशाप यह सहता रहा है।

जब मरण की आँधियों से प्यार इसको हो गया है,
ओट पाने के लिए आँचल तुम्हारा कौन माँगे?

प्यार जब मँझधार से हो तो किनारा कौन मांगे?

~ गोरख नाथ


  Mar 5, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बदलती आज दुनिया रंग

No automatic alt text available.

देखिये कैसे बदलती आज दुनिया रंग
आदमी की शक्ल, सूरत, आचरण में भेड़ियों के ढंग।

द्रौपदी फिर लुट रही है दिन दहाड़े
मौन पांडव देखते है आंख फाड़े
हो गया है सत्य अंधा, न्याय बहरा, और धर्म अपंग।

नीव पर ही तो शिखर का रथ चलेगा
जड़ नहीं तो तरु भला कैसे फलेगा
देखना आकाश में कब तक उड़ेगा, डोर–हीन पतंग।

डगमगती नाव में पानी भरा है
सिरफिरा तूफान भी जिद पर अड़ा है
और मध्यप नाविकों में छिड़ गई अधिकार की है जंग।

शब्द की गंगा दुहाई दे रही है
युग–दशा भी पुनः करवट ले रही है
स्वाभिमानी लेखनी का शील कोई कर न पाए भंग।

~ उदयभानु हंस


  Mar 4, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मेरे राम जी

Image may contain: one or more people

चाल मुझ तोते की बुढ़ापे में बदल गई
बदली कहां है मेरी तोती मेरे राम जी
बहुएँ हैं घर में‚ मगर निज धोतियों को
खुद ही रगड़ कर धोती मेरे राम जी
फँसी रही मोह में जवानी से बुढ़ापे तक
तोते पे नज़र कब होती मेरे राम जी
पहले तो पाँच बेटी–बेटों को सुलाया साथ
अब सो रहे हैं पोती–पोते मेरे राम जी।

चढ़ती जवानी मेरी चढ़के उतर गई
ढलती उमरिया ने मारा मेरे राम जी
स्वर्ण–भस्म खाई‚ कहां लौट के जवानी आई
बाल डाई कर के मैं हारा मेरे राम जी
कानों से यूँ थोड़ा–थोड़ा देता है सुनाई मुझे
सुनते ही क्यों न चढ़े पारा मेरे राम जी
आज के जमाने की रे नई–नई मारुतियाँ
बोलती हैं मुझको खटारा मेरे राम जी।

छरहरि काया मेरी जाने कहाँ छूट गई
छाने लगा मुझपे मोटापा मेरे राम जी
मारवाड़ी सेठ जैसा पेट मेरा फूल गया
कल को पड़े न कहीं छापा मेरे राम जी
घर में वो चैन कहाँ‚ रस–भरे बैन कहाँ
खो न बैठूं किसी दिन आपा मेरे राम जी
मेरी बुढ़िया भी बेट–बेटियों की देखा देखी
मुझको पुकारती हे पापा मेरे राम जी।

∼ अल्हड़ बीकानेरी


  Mar 3, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आज शाम है बहुत उदास

Image may contain: 1 person, closeup and indoor


आज शाम है बहुत उदास
केवल मैं हूँ अपने पास ।

दूर कहीं पर हास-विलास
दूर कहीं उत्सव-उल्लास
दूर छिटक कर कहीं खो गया
मेरा चिर-संचित विश्वास ।

कुछ भूला सा और भ्रमा सा
केवल मैं हूँ अपने पास
एक धुंध में कुछ सहमी सी
आज शाम है बहुत उदास ।

एकाकीपन का एकांत
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत ।

थकी-थकी सी मेरी साँसें
पवन घुटन से भरा अशान्त,
ऐसा लगता अवरोधों से
यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त ।

अंधकार में खोया-खोया
एकाकीपन का एकांत
मेरे आगे जो कुछ भी वह
कितना निष्प्रभ, कितना क्लांत ।

उतर रहा तम का अम्बार
मेरे मन में व्यथा अपार ।

आदि-अन्त की सीमाओं में
काल अवधि का यह विस्तार
क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर?
एक प्रशन मैं हूँ साकार ।

क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना?
मेरे मन में व्यथा अपार
औ समेटता निज में सब कुछ
उतर रहा तम का अम्बार ।

सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
आज शाम है बहुत उदास ।

जोकि आज था तोड़ रहा वह
बुझी-बुझी सी अन्तिम साँस
और अनिश्चित कल में ही है
मेरी आस्था, मेरी आस ।

जीवन रेंग रहा है लेकर
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
और डूबती हुई अमा में
आज शाम है बहुत उदास ।

~ भगवतीचरण वर्मा


  Mar 2, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

शाम

Image may contain: one or more people, sky, cloud, tree, ocean, outdoor and nature

पश्चिम के नभ से धरती पर
फैलाती सोने की चादर
कुछ शर्माती कुछ मुस्काती
फूलों को दुलराती कलियों को सहलाती
अपने घन काले कुन्तल
पेडों पर फैलाती
धीरे धीरे धरती पर पग धरती
आई मतवाली शाम

कोयल की कू कू के संग
कू कू करती स्वर दोहराती
झीगुर के झंकारों की
पायल छनकाती
मन के सपनों में रंग भरती
स्वप्न सजाती आई शाम
शीतल करती तप्त हवा को
बाहों में भरकर दुलराती
पेडों के संग झूम झूम कर
कुछ कुछ गाती कुछ कुछ हंसती
सासों में शीतलता भरती
आई रंगीली शाम

प्रियतम से मिलने को आतुर
जल्दी जल्दी कदम बढाती
इठलाती सी नयन झुकाए
तारोंवाली अजब चूनरी
ओढे आई शाम
होने लगे बन्द शतदल भी
भ्रमर हो गए बन्दी उसके
मुग्ध हो रहा था चन्दा भी
देख देख परछाई जल में
बढा हुआ चिडियों का स्वर था
निज निज कोटर में बैठे सब
नन्हें शिशु को कण चुगाती
हंसती आई शाम

~ कुसुम सिन्हा


  Mar 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

युक्ति के सारे नियंत्रण

Image may contain: 2 people, people smiling, selfie, beard and closeup


युक्ति के सारे नियंत्रण तोड़ डाले‚
मुक्ति के कारण नियम सब छोड़ डाले‚
अब तुम्हारे बंधनों की कामना है।

विरह यामिनि में न पल भर नींद आयी‚
क्यों मिलन के प्रात वह नैनों समायी‚
एक क्षण में ही तो मिलन में जागना है।

यह अभागा प्यार ही यदि है भुलाना‚
तो विरह के वे कठिन क्षण भूल जाना‚
हाय जिनका भूलना मुझको मना है।

मुक्त हो उच्छ्वास अंबर मापता है‚
तारकों के पास जा कुछ कांपता है‚
श्वास के हर कम्प में कुछ याचना है।

∼ रघुवीर सहाय


  Feb 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आशा कम, विश्वास बहुत है

No automatic alt text available.

जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

सहसा भूली याद तुम्हारी उर में आग लगा जाती है
विरह-ताप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है,
मुझको आग और पानी में रहने का अभ्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

धन्य-धन्य मेरी लघुता को, जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता, जिसने मुझे उदार बनाया,
मेरी अन्धभक्ति को केवल इतना मन्द प्रकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

अगणित शलभों के दल के दल एक ज्योति पर जल-जल मरते
एक बूँद की अभिलाषा में कोटि-कोटि चातक तप करते,
शशि के पास सुधा थोड़ी है पर चकोर की प्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

मैंने आँखें खोल देख ली है नादानी उन्मादों की
मैंने सुनी और समझी है कठिन कहानी अवसादों की,
फिर भी जीवन के पृष्ठों में पढ़ने को इतिहास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

ओ! जीवन के थके पखेरू, बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बंदी है मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिंता धरती यदि छूटी उड़ने को आकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

~ बलबीर सिंह 'रंग'


  Feb 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh