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Sunday, July 30, 2017

आज चाँद ने खुश-खुश झाँका

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आज चाँद ने खुश-खुश झाँका,
काल-कोठरी के जँगले से ;
गोया मुझसे पूछा हँसकर
कैसे बैठे हो पगले-से ?

कैसे ? बैठा हूँ मैं ऐसे -
कि मैं बंद हूँ गगन-विहारी ;
पागल-सा हूँ ? तो फिर ? यह तो
कह कर हारी दुनिया बेचारी ;

मियाँ चाँद, गर मैं पागल हूँ -
तो तू है पगलों का राजा ;
मेरी तेरी खूब छनेगी,
आ जँगले के भीतर आ जा ;

लेकिन तू भी यार फँसा है -
इस चक्कर के गन्नाटे में ;
इसीलिए तू मारा-मारा -
फिरता है इस सन्नाटे में ;

अमाँ, चकरघिन्नी फिरने का -
यह भी है कोई मौजूँ छिन ?
गर मंजूर घूमना ही है,
तो तू जरा निकलने दे दिन ;

यह सुन वह आदाब बजाता -
खिसक गया डंडे के नीचे ;
और कोठरी में 'नवीन' जी
लगे सोचने आँखें मीचे.

~ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

  Jul 6 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ख़ाली बैठे क्यूँ दिन काटें

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ख़ाली बैठे क्यूँ दिन काटें आओ रे जी इक काम करें
वो तो हैं राजा हम बनें प्रजा और झुक झुक के सलाम करें

खुल पड़ने में नाकामी है गुम हो कर कुछ काम करें
देस पुराना भेस बना हो नाम बदल कर नाम करें

दोनों जहाँ में ख़िदमत तेरी ख़ादिम को मख़दूम बनाए
परियाँ जिस के पाँव दबाएँ हूरें जिस का काम करें
*ख़ादिम=सेवा करने वाला; मख़दूम=मालिक

हिज्र का सन्नाटा खो देगी गहमा-गहमी नालों की
रात अकेले क्यूँकर काटें सब की नींद हराम करें
*हिज्र=जुदाई; नालों=शिकायतें

मेरे बुरा कहलाने से तो अच्छे बन नहीं सकते आप
बैठे बैठाए ये क्या सूझी आओ उसे बदनाम करें

दिल की ख़ुशी पाबंद न निकली रस्म-ओ-रिवाज आलम की
फूलों पर तो चैन न आए काँटों पर आराम करें

ऐसे ही काम किया करती है गर्दिश उन की आँखों की
शाम को चाहे सुब्ह बना दें सुब्ह को चाहे शाम करें

ला-महदूद फ़ज़ा में फिर कर हद कोई क्या डालेगा
पुख़्ता-कार जुनूँ हम भी हैं क्यूँ ये ख़याल-ए-ख़ाम करें
*ला-महदूद= असीमित; पुख़्ता-कार=तज़ुर्बे वाला; ख़याल-ए-ख़ाम=फिज़ूल के ख़्याल

नाम-ए-वफ़ा से चिढ़ उन को और 'आरज़ू' इस ख़ू से मजबूर
क्यूँकर आख़िर दिल बहलाएँ किस वहशी को राम करें
*ख़ू=आदत; राम= वशीभूत

~ आरज़ू लखनवी


  Jul 5 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

पोस्टकार्ड

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यह खुला है
इसलिए ख़तरनाक है
ख़तरनाक है इसलिए सुंदर

इसे कोई भी पढ़ सकता है
वह भी जिसे पढ़ना नहीं
सिर्फ़ छूना आता है

इस पर लिखा जा सकता है कुछ भी
बस, एक ही शर्त है
कि जो भी लिखा जाय
पोस्टकार्ड की अपनी स्वरलिपि में
लिखा जाय

पोस्टकार्ड की स्वरलिपि
कबूतरों की स्वरलिपि है
असल में यह कबूतरों की किसी भूली हुई
प्रजाति का है
उससे टूटकर गिरा हुआ
एक पुरातन डैना

इसका रंग
तुम्हारी त्वचा के रंग से
बहुत मिलता है
पर नहीं
तुम दावा नहीं कर सकते
कि जो तुम्हें अभी-अभी देकर गया है डाकिया
वह तुम्हारा
और सिर्फ़ तुम्हारा पोस्टकार्ड है

पोस्टकार्ड का नारा है -
लिखना
असल में दिखना है
समूची दुनिया को
जिसमें अंधे भी शामिल हैं

एक कोरा पोस्टकार्ड
ख़ुद एक संदेश है
मेरे समय का सबसे रोमांचक संदेश l

~ केदारनाथ सिंह


  Jul 3 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

क्या ख़बर थी ये तिरे फूल से भी

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क्या ख़बर थी ये तिरे फूल से भी नाज़ुक होंट
ज़हर में डूबेंगे कुम्हलाएँगे मुरझाएँगे
किस को मालूम था ये हश्र तिरी आँखों का
नूर के सोते भी तारीकी में खो जाएँगे

तेरी ख़ामोश वफ़ाओं का सिला क्या होगा
मेरे ना-कर्दा गुनाहों की सज़ा क्या होगी
क़हक़हे होंगे कि अश्कों की तरन्नुम-रेज़ी
दिल-ए-वहशी तिरे जीने की अदा क्या होगी
कोई उलझा हुआ नग़्मा कोई सुलझा हुआ गीत
कौन जाने लब-ए-शायर की नवा क्या होगी
हाँ मगर दिल है कि धड़के ही चला जाता है
इस से बढ़ कर कोई तौहीन-ए-वफ़ा क्या होगी
*ना-कर्दा=न किये गये; तरन्नुम-रेज़ी=गेयता; नवा=आवाज़

और ये शोर गरजते हुए तूफ़ानों का
एक सैलाब सिसकते हुए इंसानों का
हर तरफ़ सैकड़ों बल खाती धुवें की लहरें
हर तरफ़ ढेर झुलसते हुए अरमानों का
ज़िंदगी और भी कुछ ख़्वार हुई जाती है
अब तो जो साँस है आज़ार हुई जाती है
*आज़ार=मुसीबत

~ मुईन अहसन जज़्बी


  Jul 3 , 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जब ढह रही हों आस्थाएँ

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जब ढह रही हों आस्थाएँ
जब भटक रहे हों रास्ता
तो इस संसार में एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
वह बताएगी सबसे छिपाकर रखा गया अनुभव
अपने अँधेरों में से निकालकर देगी वही एक कंदील।

कितने निर्वासित, कितने शरणार्थी,
कितने टूटे हुए दुखों से, कितने गर्वीले
कितने पक्षी, कितने शिकारी
सब करते रहे हैं एक स्त्री की गोद पर भरोसा।

जो पराजित हुए उन्हें एक स्त्री के स्पर्श ने ही बना दिया विजेता
जो कहते हैं कि छले गए हम स्त्रियों से
वे छले गए हैं अपनी ही कामनाओं से
अभी सब कुछ गुजर नहीं गया है
यह जो अमृत है यह जो अथाह है
यह जो अलभ्य दिखता है
उसे पा सकने के लिए एक स्त्री की उपस्थिति
उसकी हँसी, उसकी गंध
और उसके उफान पर कीजिए विश्वास।

वह सबसे नयी कोंपल है
और वही धूल चट्टानों के बीच दबी हुए एक जीवाश्म की परछाईं।

~ कुमार अंबुज


Jul 1 , 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

फ़रिश्तों से भी अच्छा मैं

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फ़रिश्तों से भी अच्छा मैं बुरा होने से पहले था
वो मुझ से इंतिहाई ख़ुश ख़फ़ा होने से पहले था
*इंतिहाई=बे हद

किया करते थे बातें ज़िंदगी-भर साथ देने की
मगर ये हौसला हम में जुदा होने से पहले था

हक़ीक़त से ख़याल अच्छा है बेदारी से ख़्वाब अच्छा
तसव्वुर में वो कैसा सामना होने से पहले था
*बेदारी=जागृत अवस्था

अगर मादूम को मौजूद कहने में तअम्मुल है
तो जो कुछ भी यहाँ है आज क्या होने से पहले था
*मादूम=लुप्त; तअम्मुल=हिचकिचाहट

किसी बिछड़े हुए का लौट आना ग़ैर-मुमकिन है
मुझे भी ये गुमाँ इक तजरबा होने से पहले था
*तजरबा=अनुभव

'शऊर' इस से हमें क्या इंतिहा के बा'द क्या होगा
बहुत होगा तो वो जो इब्तिदा होने से पहले था
*इब्तिदा=शुरुआत

~ अनवर शऊर

Jun 30 , 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

पढ़ा गया हमको

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पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज
बच्चों की फटी कॉपियों का
‘चनाजोरगरम’ के लिफ़ाफ़े के बनने से पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद !

सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में !

भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह
एक दिन हमने कहा–
हम भी इंसान हैं
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन।

देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग।

सुनो, हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा।

इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चींखती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र महिलाएं–
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूली फैलीं
अगरधत्त जंगल लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, अवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियाँ और कविताएँ।
फिर, ये उन्होंने थोड़े ही लिखीं हैं।’
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है।

हे परमपिताओं,
परमपुरुषों-
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!

‍~ अनामिका

Jun 29 , 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी

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कसमसाई देह फिर चढ़ती नदी की
देखिए तटबंध कितने दिन चले

मोह में अपनी मंगेतर के
समंदर बन गया बादल
सीढियाँ वीरान मंदिर की
लगा चढ़ने घुमड़ता जल

काँपता है धार से लिप्त हुआ पुल
देखिए सम्बन्ध कितने दिन चले

फिर हवा सहला गई माथा
हुआ फिर बावला पीपल
वक्ष से लग घाट के रोई
सुबह तक नाव हो पागल

डबडबाए दो नयन फिर प्रार्थना के
देखिए सौगंध कितने दिन चले

~ किशन सरोज


Jun 28 , 2017| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

गाँव जाकर क्या करेंगे

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गाँव जाकर क्या करेंगे?
वृद्ध-नीमों, पीपलों की छाँव जाकर क्या करेंगे?

जानता हूँ मैं कि मेरे पूर्वजों की भूमि है वह
और फुरसत में सताती है वहाँ की याद रह–रह
ढह चुकी पीढ़ी पुरानी, नई शहरों में बसी है
गाँव ऊजड़ हो चुका, वातावरण में बेबसी है
यदि कहूँ संक्षेप में तो जहाँ मकड़ी वहीं जाली
जहाँ जिसकी दाल - रोटी, वहीं लोटा और थाली

शहर क्या है, व्यावसायिक सभ्यता का जुआघर है
हार बैठे हैं सभी जब दाँव, जाकर क्या करें
गाँव जाकर क्या करेंगे?

अनगिनत विद्युत शिखाओं में दिए को कौन देखे
गीत –नृत्यों की सभा में मर्सिए को कौन देखे
राजपथ को छोड़कर पगडण्डियों तक कौन आए
छोड़कर बहुमंजिले, कच्चे घरों में कौन जाए
छोड़कर मुद्रित किताबें पाण्डुलिपियाँ कौन बाचे
तरण–तालों को भुला नदिया किनारे कौन नाचे

छोडकर टी. वी. सिनेमा होटलों की जगमगाहट
सिर्फ कागा की जहाँ है काँव, जाकर क्या करगें
गाँव जाकर क्या करेंगे?

गाँव जंगल में बसा, अब तक सड़क पहुची नहीं है
तड़क नल की और बिज़ली की भड़क पहुँची नहीं है
डाकुओं का घर वहाँ है, कष्ट का सागर वहाँ है
है कुएँ सौ हाथ गहरे, दर्द की गागर वहाँ है
भग्न–सा मन्दिर पड़ा है, एक–सी होली–दिवाली
देवता की मूर्ति भी तो मूर्ति–चोरों ने चुराली
वे चरण भी तो नहीं, छू कर जिन्हें आशीष पाते
सिर छिपाने को नहीं है ठाँव, जाकर क्या करगें
गाँव जाकर क्या करेंगे?

~ रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’




Jun 27 , 2017| e-kavya.blogspot.com

Submitted by: Ashok Singh

आँख क्या कह रही है, सुनो

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आँख क्या कह रही है, सुनो-
अश्रु को एक दर्पण न दो।
और चाहे मुझे दान दो
एक टूटा हुआ मन न दो।

तुम जोड़ो शृंखला की कड़ी
धूप का यह घड़ी पर्व है
हर किरन को चरागाह की
रागिनी पर बडा गर्व है
जो कभी है घटित हो चुका
जो अतल में कहीं सो चुका
देवता को सृजन-द्वार पर
स्वप्न का वह विसर्जन न दो

एक गरिमा भरो गीत में
सृष्टि हो जाए महिमामयी
नेह की बाँह पर सिर धरो
आज के ये निमिष निर्णयी
आंचलिक प्यास हो जो, कहो
साथ आओ, उमड़ कर बहो
ज़िन्दगी की नयन-कोर में
डबडबाया समर्पण न दो।

जो दिवस सूर्य से दीप्त हो
चंद्रमा का नहीं वश वहाँ
जिस गगन पर मढ़ी धूप हो
व्यर्थ होती अमावस वहाँ
गीत है जो, सुनो, झूम लो
सिर्फ मुखड़ा पढ़ो, चूम लो
तैरने दो समय की नदी
डूबने का निमंत्रण न दो।

~ वीरेंद्र मिश्र


  Jun 26, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मिरी ज़िंदगी है ज़ालिम

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मिरी ज़िंदगी है ज़ालिम तिरे ग़म से आश्कारा
तिरा ग़म है दर-हक़ीक़त मुझे ज़िंदगी से प्यारा
*आश्कारा=स्पष्ट, साफ़

वो अगर बुरा न मानें तो जहान-ए-रंग-ओ-बू में
मैं सुकून-ए-दिल की ख़ातिर कोई ढूँढ लूँ सहारा
*जहान-ए-रंग-ओ-बू=रंग और खुशबू की दुनिया

मुझे तुझ से ख़ास निस्बत मैं रहीन-ए-मौज-ए-तूफ़ाँ
जिन्हें ज़िंदगी थी प्यारी उन्हें मिल गया किनारा
*निस्बत=रिश्ता; रहीन=ऋणी

मुझे आ गया यक़ीं सा कि यही है मेरी मंज़िल
सर-ए-राह जब किसी ने मुझे दफ़अ'तन पुकारा
*दफ़अ'तन=तुरंत

ये ख़ुनुक ख़ुनुक हवाएँ ये झुकी झुकी घटाएँ
वो नज़र भी क्या नज़र है जो समझ न ले इशारा

मैं बताऊँ फ़र्क़ नासेह जो है मुझ में और तुझ में
मिरी ज़िंदगी तलातुम तिरी ज़िंदगी किनारा
*नासेह=उपदेशक; तलातुम=ऊँची लहर

मुझे फ़ख़्र है इसी पर ये करम भी है मुझी पर
तिरी कम-निगाहियाँ भी मुझे क्यूँ न हों गवारा

मुझे गुफ़्तुगू से बढ़ कर ग़म-ए-इज़्न-ए-गुफ़्तुगू है
वही बात पूछते हैं जो न कह सकूँ दोबारा
*इज़्न=इज़ाज़त

कोई ऐ 'शकील' पूछे ये जुनूँ नहीं तो क्या है
कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा

‍‍~ शकील बदायूँनी

  Jun 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

नहीं कहीं मिलती है छांव!

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1.
नहीं कहीं मिलती है छांव!
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
राह अजानी, लोग अजाने,
जितने भी संयोग अजाने,
अनजाने से मिली मुझे जो
भूख अजानी, भोग अजाने!
एक भुलावा कडुवा -मीठा,
एक छलावा ठांव-कुठांव,
जिसको समझूं अपनी मंजिल
नहीं कहीं दिखता वह गांव,
नहीं कहीं रुकते है पांव!

2.
किसे कहूं मैं अपना मीत?
किसे कहूं मैं अपनी जीत?
नित्य टूटते रहते सपने,
नित्य बिछडते रहते अपने,
एक जलन लेकर प्राणों में
मैं आया हूं केवल तपने!
वर्तमान हो या भविष्य हो
बन जाता है विवश अतीत।
और शून्य में लय हो जाते
सुख-दुख के ये जितने गीत!
किसे कहूं मैं अपना मीत?
किसे कहूं मैं अपनी जीत!

3.
एक सांस है सस्मित चाह।
एक सांस है आह-कराह!
बडी प्रबल है गति की धारा।
मैं पथभूला, मैं पथहारा।
जिसको देखा वही विवश है-
किसको किसका कौन सहारा?
रंग-बिरंगे स्वप्न संजोए
मेरे उर का तमस अथाह-
ज्यों- ज्यों घटती जाती दूरी
त्यों -त्यों बढ़ती जाती राह!
एक सांस है सस्मित चाह,
एक सांस है आह-कराह!

4.
कब बुझ पाई किसकी प्यास?
और सत्य कब हास -विलास?
नहीं यहां पर ठौर-ठिकाना।
सुख अनजाना, दुख अनजाना
पग-पग पर बुनता जाता है
काल-नियति का ताना-बाना!
मेरे आगे है मरीचिका।
मेरे अंदर है विश्वास,
जो कि मृत्यु पर चिर-विजयी है
वह जीवन है मेरे पास!
मेरा जीवन केवल प्यास।

~ गोरख नाथ


  Jun 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, July 19, 2017

चाहता हूँ, कुछ लिखूँ,

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चाहता हूँ, कुछ लिखूँ, पर कुछ निकलता ही नहीं है
दोस्त, भीतर आपके कोई विकलता ही नहीं है!

आप बैठे हैं अंधेरे में लदे टूटे पलों से
बंद अपने में अकेले, दूर सारी हलचलों से
हैं जलाए जा रहे बिन तेल का दीपक निरन्तर
चिड़चिड़ाकर कह रहे- 'कम्बख़्त,जलता ही नहीं है!'

बदलियाँ घिरतीं, हवाएँ काँपती, रोता अंधेरा
लोग गिरते, टूटते हैं, खोजते फिरते बसेरा
किन्तु रह-रहकर सफ़र में, गीत गा पड़ता उजाला
यह कला का लोक, इसमें सूर्य ढलता ही नहीं है!

तब लिखेंगे आप जब भीतर कहीं जीवन बजेगा
दूसरों के सुख-दुखों से आपका होना सजेगा
टूट जाते एक साबुत रोशनी की खोज में जो
जानते हैं- ज़िन्दगी केवल सफ़लता ही नहीं है!

बात छोटी या बड़ी हो, आँच में खुद की जली हो
दूसरों जैसी नहीं, आकार में निज के ढली हो
है अदब का घर, सियासत का नहीं बाज़ार यह तो
झूठ का सिक्का चमाचम यहाँ चलता ही नहीं है!

~ रामदरश मिश्र


  Jun 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

फिर, कली की ओर

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हम यहाँ हैं
तुम वहाँ हो 
और उलझी कहीं पीछे डोर
फूल कोई लौट जाना चाहता है,
फिर, कली की ओर!

इस तरह भी कहीं होता है?
इस तरह तो नहीं होता है
सिर्फ होता है वही, जो सामने है,
पीठ पीछे कौन होता है?

पीठ पीछे
सामने के बीच हम केवल
बहुत कमजोर!
फूल कोई लौट जाना चाहता है,
फिर, कली की ओर!

मुश्किलों की याद आती है
यात्रा तो भूल जाती है
भूलने की बात भी तो भूलती है,
भूल ही सब कुछ भुलाती है

जो भुलाये
भूल जाये ज़िन्दगी को
वही सीनाजोर!
फूल कोई लौट जाना चाहता है,
फिर, कली की ओर!

‍दिनेश सिंह


  Jun 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

टूटे आस्तीन का बटन

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टूटे आस्तीन का बटन
या कुर्ते की खुले सिवन
कदम-कदम पर मौके, तुम्हें याद करने के।

फूल नहीं बदले गुलदस्तों के
धूल मेजपोश पर जमी हुई।
जहां-तहां पड़ी दस किताबों पर
घनी सौ उदासियाँ थमी हुई।

पोर-पोर टूटता बदन
कुछ कहने-सुनने का मन
कदम-कदम पर मौके, तुम्हें याद करने के।

अरसे से बदला रुमाल नहीं
चाभी क्या जाने रख दी कहां।
दर्पण पर सिंदूरी रेख नहीं
चीज नहीं मिलती रख दो जहां।

चौके की धुआँती घुटन
सुग्गे की सुमिरिनी रटन
कदम-कदम पर मौके, तुम्हें याद करने के।

किसे पड़ी, मछली-सी तड़प जाए
गाल शेव करने में छिल गया।
तुमने जो कलम एक रोपी थी
उसमें पहला गुलाब खिल गया।

पत्र की प्रतीक्षा के क्षण
शहद की शराब की चुभन
कदम-कदम पर मौके, तुम्हें याद करने के।

~ उमाकांत मालवीय


  Jun 21, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आरम्भ है प्रचण्ड बोल मस्तकों के झुण्ड

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आरम्भ है प्रचण्ड बोल मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घड़ी की तुम गुहार दो,
आन बान शान या की जान का हो दान
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो !!!

मन करे सो प्राण दे, जो मन करे सो प्राण ले
वही तो एक सर्वशक्तिमान है,
विश्व की पुकार है ये भगवत का सार है की
युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है !!!
कौरवो की भीड़ हो या पाण्डवो का नीर हो
जो लड़ सका है वही तो महान है !!!
जीत की हवस नहीं किसी पे कोई बस नहीं क्या
ज़िन्दगी है ठोकरों पर मार दो,
मौत अन्त हैं नहीं तो मौत से भी क्यों डरे
ये जाके आसमान में दहाड़ दो !

आरम्भ है प्रचण्ड बोल मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घड़ी की तुम गुहार दो,
आन बान शान या की जान का हो दान
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो !!!

वो दया का भाव या की शौर्य का चुनाव
या की हार को वो घाव तुम ये सोच लो,
या की पूरे भाल पर जला रहे वे जय का लाल,
लाल ये गुलाल तुम ये सोच लो,
रंग केसरी हो या मृदंग केसरी हो
या की केसरी हो लाल तुम ये सोच लो !!
जिस कवि की कल्पना में ज़िन्दगी हो
प्रेम गीत उस कवि को आज तुम नकार दो,
भीगती नसों में आज फूलती रगों में
आज आग की लपट तुम बखार दो !!!

आरम्भ है प्रचण्ड बोल मस्तकों के झुण्ड
आज जंग की घड़ी की तुम गुहार दो,
आन बान शान या की जान का हो दान
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो !!!

~ पीयूष मिश्रा


  Jun 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, July 16, 2017

तक़ाज़ा हो चुकी है और..












तक़ाज़ा हो चुकी है और तमन्ना हो रहा है
कि सीधा चाहता हूँ और उल्टा हो रहा है

ये तस्वीरें सदाओं में ढली जाती हैं क्यूँ कर
कि आँखें बंद हैं लेकिन तमाशा हो रहा है
सदाओं=आवाज़ों

 कहीं ढलती है शाम और फूटती है रौशनी सी
कहीं पौ फट रही है और अंधेरा हो रहा है

पस-ए-मौज-ए-हवा बारिश का बिस्तर सा बिछाने
सर-ए-बाम-ए-नवा बादल का टुकड़ा हो रहा है
*पस-ए-मौज-ए-हवा=हवाके झोंके के बाद; सर-ए-बाम-ए-नवा=ज़ोरदाज़ आवाज़

जिसे दरवाज़ा कहते थे वही दीवार निकली
जिसे हम दिल समझते थे वो दुनिया हो रहा है

क़दम रक्खे हैं इस पायाब में हम ने तो जब से
ये दरिया और गहरा और गहरा हो रहा है
*पायाब=उथला

ख़राबी हो रही है तो फ़क़त मुझ में ही सारी
मिरे चारों तरफ़ तो ख़ूब अच्छा हो रहा है

 
कहाँ तक हो सका कार-ए-मोहब्बत क्या बताएँ
तुम्हारे सामने है काम जितना हो रहा है
*कार-ए-मोहब्बत==प्रेम के काम

गुज़रते जा रहे थे हम 'ज़फ़र' लम्हा-ब-लम्हा
समझते थे कि अब अपना गुज़ारा हो रहा है

~ ज़फ़र इक़बाल

  Jun 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ओ मेरी सह-तितिर्षु

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ओ मेरी सह-तितिर्षु,
हमीं तो सागर हैं
जिस के हम किनारे हैं क्योंकि इसे हमने
पार कर लिया है।

ओ मेरी सहयायिनि,
हमीं वह निर्मल तल-दर्शी वापी हैं
जिसे हम ओक-भर पीते हैं—
बार-बार, तृषा से, तृप्ति से, आमोद से, कौतुक से,
क्योंकि हमीं छिपा वह उत्स हैं जो उसे
पूरित किए रहता है।

ओ मेरी सहधर्मा,
छू दे मेरा कर, आहुति दे दूँ
हमीं याजक हैं, हमीं यज्ञ,
जिसमें हुत हमीं परस्परेष्टि।
ओ मेरी अतृप्त, दुःशम्य धधक, मेरी होता,
ओ मेरी हविष्यान्न,
आ तू, मुझे खा
जैसे मैंने तुझे खाया है,
प्रसादवत्।
हम परस्पराशी हैं क्योंकि परस्परपोषी हैं
परस्परजीवी हैं।

*कठिन शब्दार्थ: सह-तितिर्षु=साथ तैरने या मोक्ष पाने को इच्छुक; सहयायिनि,=साथ चलने वाला; वापी=जलाशय; उत्स=श्रोत; याजक=यज्ञ करने वाला; दुःशम्य=जो शांत न होती हो; हविष्यान्न=पवित्र भोजन; परस्पराशी =परस्पर आश्रित; परस्परपोषी=एक दूसरे को पोषित करने वाले

~ अज्ञेय


  Jun 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ये जो तीतर और चकोर है

ये जो तीतर और चकोर है
वही पकड़ें उन को जो चोर है,
मैं चकोर-अकोर का क्या करूँ
मिरी फ़ाख़्ता कोई और है

~ दिलावर फ़िगार

  Jun 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
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कभी ख़ुदा कभी ख़ुद से सवाल

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कभी ख़ुदा कभी ख़ुद से सवाल करते हुए
मैं जी रहा हूँ मुसलसल मलाल करते हुए
*मुसलसल=लगातार; मलाल=अफसोस

मगन था कार-ए-मोहब्बत में इस तरह कि मुझे
ख़बर न हो सकी अपना ये हाल करते हुए
*कार-ए-मोहब्बत=प्रेम के काम में

किसे बताऊँ गुज़ारा है मैं ने भी इक दौर
मिसाल होते हुए और मिसाल करते हुए
*मिसाल=उदाहरण

वो जज़्ब-ओ-शौक़ ही आख़िर अज़ाब-ए-जाँ ठहरा
हराम हो गया जीना हलाल करते हुए
*जज़्ब=भावना; अज़ाब-ए-जाँ=तक़लीफ

न कोई रंज उन आँखों में था दम-ए-रुख़्सत
न थी ज़बान में लुक्नत सवाल करते हुए
*दम-ए-रुख़्सत=जुदाइ के वक़्त; लुक्नत=(ज़बान की) लड़खड़ाहट

ये काम उस के लिए जैसे मसअला ही न था
वो पुर-सुकून था कार-ए-मुहाल करते हुए
*मसअला=मामला; पुर-सुकून=शांत; कार-ए-मुहाल=मुश्किल काम

तमाम उम्र जो लौ दें मुझे रखें आबाद
गया वो ऐसे ग़मों से निहाल करते हुए

~ मुबीन मिर्ज़ा


  Jun 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
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होगा भी क्या बात अब तो ख़त्म करिए

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होगा भी क्या बात अब तो ख़त्म करिए
बढ़ गई तो ख़बर होगी, अपनी इज़्ज़त को तो डरिए
जो हुआ उसका हमें भी खेद है।
क्या करें आकाश में ही छेद है।।

जानते हैं हुआ क्या था?
इंद्र ने फिर आ के धोखे से अहिल्या को छुआ था
किन्तु अबकी दोष गौतम ने अहिल्या को न देकर
इंद्र के मत्थे मढ़ा था।
हाय तौबा बस इसी पर
रुष्ट सारे भद्र जन हैं स्वर्ग में चर्चा भयंकर
व्यवस्था का प्रश्न अबला की चुनौती
पड़ गया ख़तरे में शायद वेद है।।

सत्य होता है सनातन
जिल्द बदली है क़िताबों की नहीं बदला है दर्शन
किंग होते थे कभी राजन कभी जिल्लेसुभानी
सांसद अब हैं महाजन।
वही कुर्सी वही चंदन
मूल्य सारे दो तरह के वही चीख़ें वही शोषण।
आँख सबकी एक होती है मगर
आँसुओं और आँसुओं में भेद है।

~ देवेन्द्र आर्य

  Jun 16, 2017| e-kavya.blogspot.com
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सन्ध्या के बस दो बोल

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सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको

बोल-बोल में बोल उठी मन की चिड़िया
नभ के ऊँचे पर उड़ जाना है भला-भला!
पंखों की सर-सर कि पवन की सन-सन पर
चढ़ता हो या सूरज होवे ढला-ढला !

यह उड़ान, इस बैरिन की मनमानी पर
मैं निहाल, गति स्र्द्ध नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।

सूरज का संदेश उषा से सुन-सुनकर
गुन-गुनकर, घोंसले सजीव हुए सत्वर
छोटे-मोटे, सब पंख प्रयाण-प्रवीण हुए
अपने बूते आ गये गगन में उतर-उतर

ये कलरव कोमल कण्ठ सुहाने लगते हैं
वेदों की झंझावात नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।

जीवन के अरमानों के काफिले कहीं, ज्यों
आँखों के आँगन से जी घर पहुँच गये
बरसों से दबे पुराने, उठ जी उठे उधर
सब लगने लगे कि हैं सब ये बस नये-नये।

जूएँ की हारों से ये मीठे लगते हैं
प्राणों की सौ सौगा़त नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं।।
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।

ऊषा-सन्ध्या दोनों में लाली होती है
बकवासनि प्रिय किसकी घरवाली होती है
तारे ओढ़े जब रात सुहानी आती है
योगी की निस्पृह अटल कहानी आती है।

नीड़ों को लौटे ही भाते हैं मुझे बहुत
नीड़ो की दुश्मन घात नहीं भाती मुझको।।
सन्ध्या के बस दो बोल सुहाने लगते हैं
सूरज की सौ-सौ बात नहीं भाती मुझको।।

‍~ माखनलाल चतुर्वेदी


  Jun 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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पहले वह रंग थी

पहले वह रंग थी
फिर रूप बनी
रूप से जिस्म में तब्दील हुई
और फिर...
जिस्म से बिस्तर बन के
घर के कोने में लगी रहती है
जिसको कमरे में घुटा सन्नाटा
वक़्त बेवक़्त उठा लेता है
खोल लेता है बिछा लेता है।

~ निदा फ़ाज़ली


  Jun 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
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उलझा है पाँव यार का

उलझा है पाँव यार का
ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में,
लो आप अपने दाम में
सय्याद आ गया।

*ज़ुल्फ़-ए-दराज़=लम्बी ज़ुल्फें; दाम=जाल; सय्याद=शिकारी

~ मोमिन ख़ाँ मोमिन

  Jun 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
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जियो उस प्यार में



जियो उस प्यार में
जो मैं ने तुम्हें दिया है,
उस दु:ख में नहीं, जिसे
बेझिझक मैं ने पिया है।

उस गान में जियो
जो मैं ने तुम्हें सुनाया है,
उस आह में नहीं, जिसे
मैं ने तुम से छिपाया है।
उस द्वार से गुजरो
जो मैं ने तुम्हारे लिए खोला है,
उस अन्धकार से नहीं
जिस की गहराई को
बार-बार मैं ने तुम्हारी रक्षा की
भावना से टटोला है।
वह छादन तुम्हारा घर हो

जिस मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा
वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ, चुनूँगा।
वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ, बनाता रहूँगा
मैं जो रोड़ा हूँ उसे हथौड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता-सजाता हूँ, सजाता रहूँगा।

सागर के किनारे तक
तुम्हें पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो
फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
सोन-तरी हो, अरुण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्ग
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।

~ अज्ञेय


  Jun 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ये अलग बात कि चलते रहे





































ये अलग बात कि चलते रहे सब से आगे
वर्ना देखा ही नहीं तेरी तलब से आगे

ये मोहब्बत है इसे देख तमाशा न बना
मुझ से मिलना है तो मिल हद्द-ए-अदब से आगे
*श्रद्धा की सीमा

ये अजब शहर है क्या क़हर है ऐ दिल मेरे
सोचता कोई नहीं ख़्वाब-ए-तरब से आगे
*क़हर=; ख़्वाब-ए-तरब=संतुष्टि का सपना

अब नए दर्द पस-ए-अश्क-ए-रवाँ जागते हैं
हम कि रोते थे किसी और सबब से आगे
*पस-ए-अश्क-ए-रवाँ=बहते हुए आँसुओँ के बाद

'शाज़' यूँ है कि कोई पल भी फ़ुसूँ-कार नहीं
ध्यान आते थे मिरे दिल में अजब से आगे
*फ़ुसूँ-कार=जादुई

~ ज़करिय़ा शाज़


  Jun 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
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कुछ अजब आन से लोगों में

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कुछ अजब आन से लोगों में रहा करते थे
हम ख़फ़ा हो के भी आपस में मिला करते थे

इतनी तहज़ीब-ए-रह-ओ-रस्म तो बाक़ी थी कि वो
लाख रंजिश सही वादा तो वफ़ा करते थे
*तहज़ीब-ए-रह-ओ-रस्म=सभ्यता और रिवाज़

उस ने पूछा था कई बार मगर क्या कहते
हम मिज़ाजन ही परेशान रहा करते थे
*मिज़ाजन=दिमागी तौर से

ख़त्म था हम पे मोहब्बत का तमाशा गोया
रूह और जिस्म को हर रोज़ जुदा करते थे

एक चुप-चाप लगन सी थी तिरे बारे में
लोग आ आ के सुनाते थे सुना करते थे

तेरी सूरत से ख़ुदा से भी शनासाई थी
कैसे कैसे तिरे मिलने की दुआ करते थे
*शनासाई=जान पहचान

उस को हम-राह लिए आते थे मेरी ख़ातिर
मेरे ग़म-ख़्वार मिरे हक़ में बुरा करते थे
*ग़म-ख़्वार=दिलासा देने वाले

ज़िंदगी हम से तिरे नाज़ उठाए न गए
साँस लेने की फ़क़त रस्म अदा करते थे

हम बरस पड़ते थे 'शाज़' अपनी ही तन्हाई पर
अब्र की तरह किसी दर से उठा करते थे
*अब्र=बादल

~ शाज़ तमकनत

  Jun 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, July 15, 2017

किसी के आने से

किसी के आने से
साक़ी के ऐसे होश उड़े,
शराब सीख़ पे डाली
कबाब शीशे में

~ मीर नाज़िर हुसैन नाज़िम


  Jun 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
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डूब गया दिन

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डूब गया दिन
जब तक पहुँचे तेरे द्वारे।

एक धुँधलका छाया ओर-पास
धूप गाँव-बाहर की छूट गई,
छप्पर-बैठक सब बिल्कुल उदास
पगडंडी दरवाज़े टूट गई,

भारी था मन
हम थे काफ़ी टूटे-हारे।

सूना आँगन, सूनी तिद्वारी
तुलसी का चौरा सूना-सूना।
ऐसे सूनेपन में हमें हुआ
ख़ुद साँसें लेते में दुख दूना।

चौका-बासन
छतें, छज्जे सब अँधियारे।

धीरे-धीरे आँचल ओट किए
भीतर से दीप लिए तुम आईं।
संग-संग एक मौन ज्योति-पुंज
संग-संग एक मलिन परछाईं।

सिहरा आँगन
सिहरे हम, सिहरे गलियारे।

‍~ ओम प्रभाकर


  Jun 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ऐसी तो कोई बात नहीं जीवन में

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तुमसे भी छिपा सकूँ जो मै
ऐसी तो कोई बात नहीं जीवन में |

मन दिया तुम्हें मैंने ही अपने मन से
रंग दिया तुम्हें मैंने अपने जीवन से
बीते सपनो में आए बिना तुम्हारे
ऐसी तो कोई रात नहीं जीवन में ।

जल का राजा सागर कितना लहराया
पर मेरे मन की प्यास बुझा कब पाया
जो बूँद बूँद बन प्यास तुम्हारी पी ले
ऐसी कोई बरसात नहीं जीवन में ।

कलियों के गाँवों में भौंरे गाते है
गाते-गाते वह अक्सर मर जाते हैं
मरने वाले को जो मरने से रोके
ऐसी कोई सौगात नहीं जीवन में।

‍~ रमानाथ अवस्थी


  Jun 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
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पवन सामने है नहीं गुनगुनाना

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पवन सामने है नहीं गुनगुनाना
सुमन ने कहा पर भ्रमर ने न माना

गगन से धरा पर सुबह छन रही है
किरन डोर खींचे बिना तन रही है
दिए बुझ गए हैं नए जल गए हैं
सपन उठ गए हैं नयन मिल गए हैं
हवा देख कर ही सुनाना तराना
सुमन ने कहा पर भ्रमर ने न माना

जरा साँस ले दूर तट का ठिकाना
तरणि ने कहा पर लहर ने न माना

मुझे रात भर तू बहाती रही है
थकी और मुझको थकाती रही है
वहाँ सामने बस यही शब्द तेरे
वही झूठ वो भी सवेरे-सवेरे
मुझे पार जाना नहीं डूब जाना
तरणि ने कहा पर लहर ने न माना

ठहर कर मुझे मंज़िलों तक चलाना
पथिक ने कहा पर डगर ने न माना
अभी है सुबह और आरम्भ मेरा
भरोसा न है यह चरण दम्भ मेरा
गगन धूप छाँही धरा धूप छाँही
कली देख सकती न तू किन्तु राही
मुझे फूल देकर तुझे है सजाना
पथिक ने कहा पर डगर ने न माना

अधूरे प्रणय का कथानक न माना
हृदय ने कहा पर अधर ने न माना
डगर पार जाए वही तो पथिक है
अगर हार जाए कहाँ वो श्रमिक है
नहीं छोड़ता कवि कभी गीत आधा
अधूरी समर्पित हुई थी न राधा
समझ सोच गाना बुरा है जमाना
हृदय ने कहा पर अधर ने न माना

~ वीरेंद्र मिश्र

  Jun 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
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सुख के साथी मिले हजारों ही

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सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला ।

जब तक रही बाहर उमर की बगिया में,
जो भी आया द्वार चांद लेकर आया,
पर जिस दिन झर गई गुलाबों की पंखुरी,
मेरा आंसू मुझ तक आते शरमाया,
जिसने चाहा, मेरे फूलों को चाहा,
नहीं किसी ने लेकिन शूलों को चाहा,
मेला साथ दिखानेवाले मिले बहुत,
सूनापन बहलानेवाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।

कोई रंग-बिरंगे कपड़ों पर रीझा,
मोहा कोई मुखड़े की गोराई से,
लुभा किसी को गई कंठ की कोयलिया,
उलझा कोई केशों की घुंघराई से,
जिसने देखी, बस मेरी डोली देखी,
नहीं किसी ने पर दुल्हन भोली देखी,
तन के तीर तैरनेवाले मिले सभी,
मन के घाट नहानेवाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
लेकिन दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।

मैं जिस दिन सोकर जागा, मैंने देखा,
मेरे चारों ओर ठगों का जमघट है,
एक इधर से एक उधर से लूट रहा,
छिन-छिन रीत रहा मेरा जीवन-घट है,
सबकी आंख लगी थी गठरी पर मेरी,
और मची थी आपस में मेरा-तेरी,
जितने मिले, सभी बस धन के चोर मिले,
लेकिन हृदय चुरानेवाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।

रूठी सुबह डिठौना मेरा छुड़ा गयी,
गयी ले गयी, तरुणायी सब दोपहरी,
हंसी खुशी सूरज चंदा के बांट पड़ी,
मेरे हाथ रही केवल रजनी गहरी,
आकर जो लौटा कुछ लेकर ही लौटा,
छोटा और हो गया यह जीवन छोटा,
चीर घटानेवाले ही सब मिले यहां,
घटता चीर बढ़ानेवाला नहीं मिला
सुख के साथी मिले हजारों ही लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।

उस दिन जुगनू एक अंधेरी बस्ती में,
भटक रहा था इधर-उधर भरमाया-सा,
आसपास था अंतहीन बस अंधियारा,
केवल था सिर पर निज लौ का साया-सा,
मैंने पूछाः तेरी नींद कहां खोयी?
वह चुप रहा, मगर उसकी ज्वाला रोयी-
नींद चुरानेवाले ही तो मिले यहां,
कोई गोद सुलानेवाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुःख में साथ निभानेवाला नहीं मिला।

~ गोपालदास नीरज

  Jun 9, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh