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Wednesday, November 17, 2021

Oct1 29,

 

दिल को समझाओ ज़रा इश्क़ में क्या रक्खा है
किस लिए आप को दीवाना बना रक्खा है

ये तो मालूम है बीमार में क्या रक्खा है
तेरे मिलने की तमन्ना ने जिला रक्खा है

कौन सा बादा-कश ऐसा है कि जिस की ख़ातिर
जाम पहले ही से साक़ी ने उठा रक्खा है

अपने ही हाल में रहने दे मुझे ऐ हमदम
तेरी बातों ने मिरा ध्यान बटा रक्खा है

आतिश-ए-इश्क़ से अल्लाह बचाए सब को
इसी शोले ने ज़माने को जला रक्खा है

मैं ने ज़ुल्फ़ों को छुआ हो तो डसें नाग मुझे
बे-ख़ता आप ने इल्ज़ाम लगा रक्खा है

कैसे भूले हुए हैं गब्र ओ मुसलमाँ दोनों
दैर में बुत है न काबे में ख़ुदा रक्खा है 

~ लाला माधव राम जौहर

Nov 17, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Thursday, October 28, 2021

तू आया तो द्वार भिड़े थे


तू आया तो द्वार भिड़े थे दीप बुझा था आँगन का
सुध बिसराने वाले मुझ को होश कहाँ था तन मन का

जाने किन ज़ुल्फ़ों की घटाएँ छाई हैं मेरी नज़रों में
रोते रोते भीग चला इस साल भी आँचल सावन का

थोड़ी देर में थक जाएँगे नील-कमल सी रेन के पाँव
थोड़ी देर में थम जाएगा राग नदी के झाँझन का

फिर भी मेरी बाँहों की ख़ुशबू हर डाल पे लचकेगी
हर तारा हीरा सा लगेगा मुझ को मेरे कंगन का

तुम आओ तो घर के सारे दीप जला दूँ लेकिन आज
मेरा जलता दिल ही अकेला दीप है मेरे आँगन का

 ‍~ अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

 Oct1 29, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

 

Wednesday, October 20, 2021

जो न मिल सके वो ही बेवफा

  

जो ना मिल सके वो ही बेवफा, ये बड़ी अजीब सी बात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर, वो ही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा

जो किसी नज़र से अता हुई, वही रोशनी है ख़याल में
जो किसी नज़र से अता हुई, वही रोशनी है ख़याल में
वो ना आ सके रहु हूंतज़ार, ये खलिश कहा थे वे साल में
मेरी जूसतुजू को खबर नही, ना वो दिन रहे ना वो रात है
जो चला गया मुझे छोड़ कर, वो ही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा

करे प्यार लब पे गीला ना हो, ये किसी किसी का नसीब है
करे प्यार लब पे गीला ना हो, ये किसी किसी का नसीब है
ये करम है उसका जफ़ा नही, वो जुदा भी रह के करीब है
वोही आँख है मेरे रूबरू, उसी हाथ में मेरा हाथ है
जो चला गया मुझे छोड़ कर, वो ही आज तक मेरे साथ है
जो न मिल सके वो ही बेवफा

मेरा नाम तक जो ना ले सका, जो मुझे क़रार ना दे सका
मेरा नाम तक जो ना ले सका, जो मुझे क़रार ना दे सका
जिसे इकतियार तो था मगर, मुझे अपना प्यार ना दे सका
वोही शख़्श मेरी तलाश हैं, वोही दर्द मेरी हयात हैं
जो चला गया मुझे छोड़ कर, वो ही आज तक मेरे साथ हैं
जो न मिल सके वो ही बेवफा

~ ख़्वाजा परवेज़

Oct1 20, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Monday, October 18, 2021

रात यों कहने लगा मुझसे

 

  रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,

आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

रामधारी सिंह 'दिनकर'

 Oct18, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Thursday, April 8, 2021

उसे हर ख़ार-ओ-गुल प्यारा लगे है


उसे हर ख़ार-ओ-गुल प्यारा लगे है,
ये दिल कम्बख़्त आवारा लगे है।

सुख़न 'आजिज़' का क्यों प्यारा लगे है,
ये कोई दर्द का मारा लगे है।

खिलाए हैं वो गुल ज़ख़्मों ने उस के,
हसीं जिन से चमन सारा लगे है।

लगे है फूल सुनने में हर इक शे'र,
समझ लेने पे अंगारा लगे है।

ये है लूटा हुआ इस संग-दिल का,
जो देखे में बहुत प्यारा लगे है।

तुम आख़िर बद-गुमाँ 'आजिज़' से क्यों हो,
वो बेचारा तो बेचारा लगे है।

~  कलीम आजिज़ 

Apr 08, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, March 17, 2021

दिल-ए-मजबूर तू मुझ को


दिल-ए-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल
जहाँ महबूब महबूबा से आज़ादाना मिलता हो
किसी का नर्म-ओ-नाज़ुक हाथ अपने हाथ में ले कर
निकल सकता हो बे-खटके कोई सैर-ए-गुलिस्ताँ को

निगाहों के जहाँ पहरे न हों दिल के धड़कने पर
जहाँ छीनी न जाती हो ख़ुशी अहल-ए-मोहब्बत की
जहाँ अरमाँ भरे दिल ख़ून के आँसू न रोते हों
जहाँ रौंदी न जाती हो ख़ुशी अहल-ए-मोहब्बत की
*अहल-ए-मोहब्बत=मोहब्बत के लोग

जहाँ जज़्बात अहल-ए-दिल के ठुकराए न जाते हों
जहाँ बाग़ी न कहता हो कोई ख़ुद्दार इंसाँ को
जहाँ बरसाए जाते हों न कूड़े ज़ेहन-ए-इंसाँ पर
ख़यालों को जहाँ ज़ंजीर पहनाई न जाती हो
*अहल-ए-दिल=अच्छे दिल वाले लोग

कहाँ तक ऐ दिल-ए-नादाँ क़याम ऐसे गुलिस्ताँ में
जहाँ बहता हो ख़ून-ए-गर्म-ए-इंसाँ शाह-राहों पर
दरिंदों की जहाँ चाँदी हो ज़ालिम दनदनाते हों
झपट पड़ते हों शाहीं जिस जगह कमज़ोर चिड़ियों पर
*क़याम=ठहरना; शाह-राह=हाइ-वे

दिल-ए-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल
जहाँ महबूब महबूबा से आज़ादाना मिलता हो

~ राजेन्द्र नाथ रहबर

Mar 17, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Thursday, March 11, 2021

चाँद माँगा न कभी हम ने

चाँद माँगा न कभी हम ने सितारे माँगे
बस वो दो दिन जो तिरे साथ गुज़ारे माँगे

सिर्फ़ इक दाग़-ए-तमन्ना के सिवा कुछ न मिला
दिल ने क्या सोच के नज़रों के इशारे माँगे

हम ने जब जाम उठाया है तो वो याद आया
जिस की ख़ातिर मय-ओ-मीना के सहारे माँगे

ढल गई रात तो ख़्वाब-ए-रुख़-ए-जानाँ टूटा
बुझ गया चाँद तो आँखों ने सितारे माँगे
*महबूबा के चहरे का स्वप्न

उठ गई आँख तो गिर्दाब का दिल डूब गया
खुल गई ज़ुल्फ़ तो मौजों ने किनारे माँगे
*गिर्दाब=भँवर

रात वो हश्र गुलिस्ताँ में उठा है यारो
सुबह हर फूल ने शबनम से शरारे माँगे  

~ शाहिद अख़्तर

Mar 11, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Friday, February 26, 2021

अब सजेगी अंजुमन बसंत आ गई

 

कुंज कुंज नग़्मा-ज़न बसंत आ गई
अब सजेगी अंजुमन बसंत आ गई

उड़ रहे हैं शहर में पतंग रंग रंग
जगमगा उठा गगन बसंत आ गई

मोहने लुभाने वाले प्यारे प्यारे लोग
देखना चमन चमन बसंत आ गई

सब्ज़ खेतियों पे फिर निखार आ गया
ले के ज़र्द पैरहन बसंत आ गई

पिछले साल के मलाल दिल से मिट गए
ले के फिर नई चुभन बसंत आ गई

‍~ नासिर काज़मी

Feb 26, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, February 17, 2021

न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है



न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है
हमारी ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है
*आशुफ़्ता-सरी=पागल पन

फ़रेब-ए-आरज़ू खाएँ तो क्यूँ कर
तग़ाफ़ुल है न बेगाना-वशी है
* तग़ाफ़ुल=उपेक्षा; बेगाना-वशी=विरक्ति

मोहब्बत के सिवा जादा न मंज़िल
मोहब्बत के सिवा सब गुमरही है
*जादा=पगडंडी

मोहब्बत में शिकायत क्या गिला क्या
मोहब्बत बंदगी है बंदगी है

ख़ुदा बर-हक़ मगर इस को करें क्या
बुतों में सद-फ़ुसून-ए-दिलबरी है
*बर-हक़=सच; सद=सौ, फ़ुसून=जादू

मुझे नफ़रत नहीं जन्नत से लेकिन
गुनाहों में अजब इक दिलकशी है

न दो हूर-ओ-मय-ओ-कौसर के ता'ने
कि ज़ाहिद भी तो आख़िर आदमी है
*कौसर=स्वर्ग की एक नहर; ज़ाहिद=संयमी

~ हबीब अहमद सिद्दीक़ी

Feb 17, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, February 2, 2021

हमें मिट्टी ही रहने दो


गढ़ो मत चाक पे रख के
कोई कूज़ा सुराही या घड़ा प्याला
तुम्हारी सोच के ये नक़्श हैं सारे
तुम्हारी ख़्वाहिशों के रंग भर दिलकश
हमें मिट्टी ही रहने दो
हमें कब चाहिए ऐसी अता
बख़्शी हुई सूरत
हमें मिट्टी ही रहने दो
जो नम बारिश से हो
ज़रख़ेज़ हो फ़स्लें उगाती हो
ज़रा सी बीज को पौदा बनाती हो
कि वो पौदा शजर बन कर
तुम्हारी रहगुज़र को छाँव देता है
वही रस्ता तुम्हारी मंज़िलें आसान करता है
हमें मिट्टी ही रहने दो
नुमाइश के सजावट के
हमें सामान क्यूँ होना
नुमू से क्यूँ हमें महरूम करते हो
तुम्हारे पाँव के नीचे ज़मीं क़ाएम रहे जानाँ
हमें मिट्टी ही रहने दो

~ कहकशाँ तबस्सुम

Feb 02, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

 

Thursday, January 28, 2021

डूबते सूरज का मंज़र वो सुहानी कश्तियाँ

डूबते सूरज का मंज़र वो सुहानी कश्तियाँ
फिर बुलाती हैं किसी को बादबानी कश्तियाँ
*बादबानी=तिरपाल से चलने वाली

इक अजब सैलाब सा दिल के निहाँ-ख़ाने में था
रेत साहिल दूर तक पानी ही पानी कश्तियाँ
*निहाँ-ख़ाने=गुप्तघर

मौज-ए-दरिया ने कहा क्या साहिलों से क्या मिला
कह गईं कल रात सब अपनी कहानी कश्तियाँ

ख़ामुशी से डूबने वाले हमें क्या दे गए
एक अनजाने सफ़र की कुछ निशानी कश्तियाँ

एक दिन ऐसा भी आया हल्क़ा-ए-गिर्दाब में
कसमसा कर रह गईं ख़्वाबों की धानी कश्तियाँ
*हल्क़ा-ए-गिर्दाब=भँवर का चक्र

आज भी अश्कों के इस गहरे समुंदर में 'शमीम'
तैरती फिरती हैं यादों की पुरानी कश्तियाँ

~ शमीम फ़ारूक़ी

Jan 28, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, January 26, 2021

रंग हवा से छूट रहा है


रंग हवा से छूट रहा है मौसम-ए-कैफ़-ओ-मस्ती है
फिर भी यहाँ से हद्द-ए-नज़र तक प्यासों की इक बस्ती है
*मौसम-ए-कैफ़-ओ-मस्ती=उत्साह और नशीला

दिल जैसा अन-मोल रतन तो जब भी गया बे-राम गया
जान की क़ीमत क्या माँगें ये चीज़ तो ख़ैर अब सस्ती है

दिल की खेती सूख रही है कैसी ये बरसात हुई
ख़्वाबों के बादल आते हैं लेकिन आग बरसती है

अफ़्सानों की क़िंदीलें हैं अन-देखीं मेहराबों में
लोग जिसे सहरा कहते हैं दीवानों की बस्ती है

~ राही मासूम रज़ा

Jan 26, 2021 | e-kavya.blogspot.com
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Monday, January 18, 2021

सोज़-ए-ग़म दे के मुझे उस ने


सोज़-ए-ग़म दे के मुझे उस ने ये इरशाद किया
जा तुझे कशमकश-ए-दहर से आज़ाद किया
*प्रखर अप्रसन्नता, कश्मकश-ए-दहर=दुनिया की दुविधाएं

वो करें भी तो किन अल्फ़ाज़ में तेरा शिकवा
जिन को तेरी निगह-ए-लुत्फ़ ने बर्बाद किया

दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया
जब चली सर्द हवा मैं ने तुझे याद किया

ऐ मैं सौ जान से इस तर्ज़-ए-तकल्लुम के निसार
फिर तो फ़रमाइए क्या आप ने इरशाद किया
*तर्ज़-ए-तकल्लुम=बात करने का अंदाज़

इस का रोना नहीं क्यूँ तुम ने किया दिल बर्बाद
इस का ग़म है कि बहुत देर में बर्बाद किया

इतना मानूस हूँ फ़ितरत से कली जब चटकी
झुक के मैं ने ये कहा मुझ से कुछ इरशाद किया
*मानूस=परिचित

मेरी हर साँस है इस बात की शाहिद ऐ मौत
मैं ने हर लुत्फ़ के मौक़े पे तुझे याद किया
*शाहिद-साक्षी

मुझ को तो होश नहीं तुम को ख़बर हो शायद
लोग कहते हैं कि तुम ने मुझे बर्बाद किया

कुछ नहीं इस के सिवा 'जोश' हरीफ़ों का कलाम
वस्ल ने शाद किया हिज्र ने नाशाद किया
*हरीफ़=प्रतिद्वंदी; शाद=प्रसन्न

~ जोश मलीहाबादी

Jan 18, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Friday, January 8, 2021

मत ग़ज़ब कर छोड़ दे ग़ुस्सा सजन


मत ग़ज़ब कर छोड़ दे ग़ुस्सा सजन
आ जुदाई ख़ूब नईं मिल जा सजन

बे-दिलों की उज़्र-ख़्वाही मान ले
जो कि होना था सो हो गुज़रा सजन

तुम सिवा हम कूँ कहीं जागा नहीं
पस लड़ो मत हम सेती बेजा सजन

मर गए ग़म सीं तुम्हारे हम पिया
कब तलक ये ख़ून-ए-ग़म खाना सजन

जो लगे अब काटने इख़्लास के
क्या यही था प्यार का समरा सजन
*इख़्लास=निश्छलता

छोड़ तुम कूँ और किस सें हम मिलें
कौन है दुनिया में कुइ तुम सा सजन

पाँव पड़ता हूँ तुम्हारे रहम को
बात मेरी मान ले हा हा सजन

तंग रहना कब तलक ग़ुंचे की तरह
फूल के मानिंद टुक खुल जा सजन

'आबरू' कूँ खो के पछताओगे तुम
हम को लाज़िम है अता कहना सजन

~ आबरू शाह मुबारक

Jan 08, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
 

Friday, January 1, 2021

फिर वर्ष नूतन आ गया


फिर वर्ष नूतन आ गया।

सूने तमोमय पंथ पर,
अभ्यस्त मैं अब तक विचर,
नव वर्ष में मैं खोज करने को चलूँ क्यों पथ नया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!

निश्चित अँधेरा तो हुआ,
सुख कम नहीं मुझको हुआ,
दुविधा मिटी, यह भी नियति की है नहीं कुछ कम दया।
फिर वर्ष नूतन आ गया!

दो-चार किरणें प्यार कीं,
मिलती रहें संसार की,
जिनके उजाले में लिखूँ मैं जिंदगी का मर्सिया।
फिर वर्ष नूतन आ गया। 

~ हरिवंशराय बच्चन

Jan 01, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh