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Saturday, June 29, 2019

तिरे निखरे हुए जल्वों ने

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तिरे निखरे हुए जल्वों ने दी थी रौशनी मुझ को
तिरे रंगीं इशारों ने मुझे जीना सिखाया था
क़सम खाई थी तू ने ज़िंदगी भर साथ देने की
बड़े ही नाज़ से तू ने मुझे अपना बनाया था
मगर पछता रहा हूँ अब तिरी बे-ए'तिनाई पर
कि मैं ने क्यूँ मोहब्बत का सुनहरा ज़ख़्म खाया था
*बे-ए'तिनाई=बेपरवाही

तिरा पैकर तिरी बाँहें तिरी आँखें तिरी पलकें
तिरे आरिज़ तिरी ज़ुल्फ़ें तिरे शाने किसी के हैं
मिरा कुछ भी नहीं इस ज़िंदगी के बादा-ख़ाने में
ये ख़ुम ये जाम ये शीशे ये पैमाने किसी के हैं
बनाया था जिन्हें रंगीन अपने ख़ून से मैं ने
वो अफ़्साने नहीं मेरे वो अफ़्साने किसी के हैं
*पैकर=आकार; आरिज़=गाल; शाने=कंधे; बादा-ख़ाने=सराय; ख़ुम=शराब रखने का बड़ा पात्र

किसी ने सोने चाँदी से तिरे दिल को ख़रीदा है
किसी ने तेरे दिल की धड़कनों के गीत गाए हैं
किसी ज़ालिम ने लूटा है तिरे जल्वों की जन्नत को
मगर मैं ने तिरी यादों से वीराने सजाए हैं
कभी जिन पर मोहब्बत का मुक़द्दर नाज़ करता था
वो यादें भी नहीं अपनी वो सपने भी पराए हैं

किसे मालूम था मंज़िल ही मुझ से रूठ जाएगी
लरज़ कर टूट जाएँगे मिरी क़िस्मत के सय्यारे
सर-ए-बाज़ार बिक जाएगी तेरे प्यार की अज़्मत
चलेंगे इश्क़ के हस्सास दिल पर ज़ुल्म के आरे
बड़े अरमान से मैं ने चुना था जिन को दामन में
किसे मालूम था वो फूल बन जाएँगे अंगारे
*लरज़=थरथरा कर; अज़्मत=प्रतिष्ठा

जहाँ तू है वहाँ हैं नुक़रई साज़ों की झंकारें
जहाँ मैं हूँ वहाँ चीख़ें हैं फ़रियादें हैं नाले हैं
मिरी दुनिया में ग़म ही ग़म हैं तारीकी ही तारीकी
तिरी दुनिया में नग़्मे हैं बहारें हैं उजाले हैं
मिरी झोली में कंकर हैं तिरी आग़ोश में हीरे
तिरे पैरों में पायल है मिरे पैरों में छाले हैं
*नुक़रई=चाँदी की घंटियाँ; नाले=आह; तारीक़ी=अंधेरे

मैं जब भी ग़ौर करता हूँ तिरी इस बेवफ़ाई पर
तो ग़म की आग में मेहर-ओ-वफ़ा के फूल जलते हैं
न फ़रियादों से ज़ंजीरों की कड़ियाँ टूट सकती हैं
न अश्कों से निज़ाम-ए-वक़्त के तेवर बदलते हैं
मैं भर सकता हूँ तेरी याद में हसरत भरी आहें
मगर आहों की गर्मी से कहीं पत्थर पिघलते हैं
*मेहर-ओ-वफ़ा=प्रेम और निष्ठा; निज़ाम-ए-वक़्त=समय के रखवाले

~ प्रेम वरबारतोनी

 Jun 29, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, June 28, 2019

हवा उड़ाए रेशम बादल

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हवा उड़ाए रेशम बादल के पर्दे
छन छन कर पेड़ों से उतरें रौशनियाँ
जैसे अचानक बच्चों को आ जाए हँसी
जंगल तीरा-बख़्त नहीं 

*तीरा-बख़्त=अभागा;

छन छन कर छितनार से बरसो रौशनियो
पौदों की रग रग में तैरो रौशनियो
जंगल के सीने के कोनों-खुदरों में
दबे हुए असरार बहुत
ख़्वाब-गज़ीदा नशे में सरशार बहुत
नींद नगर को तजने पुर इसरार बहुत
कोंपल कोंपल फूटने पे तय्यार बहुत 

*छितनार=घनी; असरार=भेद; ख़्वाब-गज़ीदा=सपनों से त्रसित; सरशार=मस्त;

बूढे पेड़ न रस्ता रोको
उन ख़्वाबों को जी लेने दो
छन छन कर छितनार से बरसो रौशनियो
इस मा'सूम हँसी में गरचे रब्त नहीं
पल-भर में आँसू बिन जाएँ ज़ब्त नहीं
इस मोती के क़ल्ब में उतरो रौशनियो
और चमक उस की चमकाओ रौशनियो 

*गरचे=अगर; रब्त=सम्बंध; कल्ब=दिल
 
नगर नगर में तुम सा नाज़ुक लम्स न पाऊँ
किरन किरन के लेकिन बरसों बोझ उठाऊँ

*लम्स=स्पर्श

~ अबरारूल हसन


 Jun 28, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, June 22, 2019

बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम



बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम
कभी मैं जो कह दूँ मोहब्बत है तुम से
तो मुझ को ख़ुदा रा ग़लत मत समझना
कि मेरी ज़रूरत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम

हैं फूलों की डाली पे बाँहें तुम्हारी
हैं ख़ामोश जादू निगाहें तुम्हारी
जो काँटे हूँ सब अपने दामन में रख लूँ
सजाऊँ मैं कलियों से राहें तुम्हारी
नज़र से ज़माने की ख़ुद को बचाना
किसी और से देखो दिल मत लगाना
कि मेरी अमानत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम

है चेहरा तुम्हारा कि दिन है सुनहरा
है चेहरा तुम्हारा कि दिन है सुनहरा
और इस पर ये काली घटाओं का पहरा
गुलाबों से नाज़ुक महकता बदन है
ये लब हैं तुम्हारे कि खिलता चमन है
बिखेरो जो ज़ुल्फ़ें तो शरमाए बादल
फ़रिश्ते भी देखें तो हो जाएँ पागल
वो पाकीज़ा मूरत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम

जो बन के कली मुस्कुराती है अक्सर
शब हिज्र में जो रुलाती है अक्सर
जो लम्हों ही लम्हों में दुनिया बदल दे
जो शाइ'र को दे जाए पहलू ग़ज़ल के
छुपाना जो चाहें छुपाई न जाए
भुलाना जो चाहें भुलाई न जाए
वो पहली मोहब्बत हो तुम
बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम

~ ताहिर फ़राज़


 Jun 22, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Friday, June 21, 2019

शैलेंद्र

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गीतकार शैलेंद्र के प्रति

'गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूँ।'

सच बतलाऊँ तुम प्रतिभा के ज्योतिपुत्र थे,छाया क्या थी,
भली-भाँति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी।

जहाँ कहीं भी अंतर्मन से, ॠतुओं की सरगम सुनते थे,
ताज़े कोमल शब्दों से तुम रेशम की जाली बुनते थे।

जन मन जब हुलसित होता था, वह थिरकन भी पढ़ते थे तुम,
साथी थे, मज़दूर-पुत्र थे, झंडा लेकर बढ़ते थे तुम।

युग की अनुगुंजित पीड़ा ही घोर घन-घटा-सी छाई
प्रिय भाई शैलेन्द्र, तुम्हारी पंक्ति-पंक्ति नभ में लहराई।

तिकड़म अलग रही मुस्काती, ओह, तुम्हारे पास न आई,
फ़िल्म-जगत की जटिल विषमता, आख़िर तुमको रास न आई।

ओ जन मन के सजग चितेरे, जब-जब याद तुम्हारी आती,
आँखें हो उठती हैं गीली, फटने-सी लगती है छाती

~ नागार्जुन

 Jun 21, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, June 9, 2019

अब के दीवार में दरवाज़ा रखूँ

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अब के दीवार में दरवाज़ा रखूँ या न रखूँ
अजनबी फिर न कोई दरपय-ए-आज़ार आ जाए
एक दस्तक में मिरी सारी फ़सीलें ढा जाए
अब के दीवार में दरवाज़ा रक्खूँ या न रखूँ

*आज़ार=रोग, तक़लीफ़; फ़सीलें=किले की दीवारें

एक अहराम न चुन लूँ सिफ़त-ए-दूद-ए-हरीर
कोई आए तो बस इक गुम्बद-ए-दर-बस्ता मिले
राज़-ए-सर-बस्ता मिले
लाख सर फोड़े सदा कोई न मुझ तक पहुँचे
क़ासिद-ए-मौज-ए-हवा कोई न मुझ तक पहुँचे
अब के दीवार में दरवाज़ा रक्खूँ या न रखूँ

*अहराम=पिरामिड; सिफ़त-ए-दूद-ए-हरीर=रेशमी धुयें से बना; गुम्बद-ए-दर-बस्ता=बंद दरवाज़ों वाला गुम्बद; क़ासिद-ए-मौज-ए-हवा=संदेश वाहक या हवा का झोंका सारे अंदेशे मगर एक तरफ़

एक तरफ़ तेरी उम्मीद
जाने किस वक़्त इधर तेरी सवारी आ जाए
अजनबी लाख कोई मेरी फ़सीलें ढा जाए
मुझ को दीवार में दरवाज़ा लगाना होगा


~ ख़ुर्शीद रिज़वी

 Jun 9, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, June 2, 2019

मैं तिरी उल्फ़त में फ़ना

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तू मिरे पास रहे मैं तिरी उल्फ़त में फ़ना (बरबाद)

जैसे अँगारों पे छींटों से धुआँ
बिंत-ए-महताब (चाँद की बेटी) को हाले (हैलो) में लिए
तू फ़रोज़ाँ (प्रकाशमान) हो मगर सारी तपिश मेरी हो
फैले अफ़्लाक (आसमानों) में बे-सम्त (दिशाहीन) सफ़र
साथ में वक़्त का रहवार (घोड़ा) लिए
जिस तरफ़ मौज-ए-तमन्ना कह दे
जुस्तुजू (इच्छा) शौक़ का पतवार लिए
गुफ़्तुगू रब्त (सम्बंध) के एहसास से दूर
ख़ामुशी रंज-ए-मुकाफ़ात (प्रतिशोध) से दूर
चाँदनी की कभी सरगोशी (काना-फूँसी) सी

फूल के नर्म लबों को चूमे
गर्द अंदेशा को शबनम धो दे
क़हक़हे फूटीं तअम्मुल (सोच) के बग़ैर
नूर उबले कभी फ़व्वारों में
और नुक़्ते (बिंदु) में सिमट आए कभी
तह-ब-तह खोले रिदा (चादर) ज़ुल्मत की
अपनी बेबाक निगाहों से मुनव्वर (रौशन) कर दे
नुक़्ता-ए-वस्ल (मिलन बिंदु) ये मिटता हुआ धब्बा ही सही
होश बहता है तो बह जाने दे

तू मिरे पास रहे मैं तिरी उल्फ़त में फ़ना

~ अबरारूल हसन

 Jun 2, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Saturday, June 1, 2019

रुख़्सत


तुम ने जो फूल
मुझे रुख़्सत होते वक़्त दिया था
वो नज़्म मैं ने
तुम्हारी यादों के साथ
लिफ़ाफ़े में बंद कर के रख दी थी

आज दिनों बाद
बहुत अकेले में उसे खोल कर देखा है
फूल की नौ पंखुड़ियाँ हैं
नज़्म के नौ मिसरे।
यादें भी कैसी अजीब होती हैं
पहली पंखुड़ी याद दिलाती है उस लम्हे की जब मैं ने
पहली बार तुम्हें भरी महफ़िल में
अपनी तरफ़ मुसलसल तकते हुए देख लिया था

दूसरी पंखुड़ी,
जब हम पहली बार एक दूसरे को कुछ कहे बग़ैर
बस यूँही जान बूझ कर नज़र बचाते हुए
एक राहदारी से गुज़र गए थे

~ इफ़्तिख़ार आरिफ़


 Jun 1, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh