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Thursday, March 17, 2016

जब कोई प्यार से बुलाएगा



जब कोई प्यार से बुलाएगा
तुमको एक शख़्स याद आएगा।

लज़्ज़त-ए-ग़म से आशना होकर
अपने महबूब से जुदा हो कर
दिल कहीं जब सुकूँ न पाएगा
तुमको एक शख़्स याद आएगा।

तेरे लब पे नाम होगा प्यार का
शमा देखकर जलेगा दिल तेरा
जब कोई सितारा टिमटिमाएगा
तुमको एक शख़्स याद आएगा।

ज़िन्दग़ी के दर्द को सहोगे तुम
दिल का चैन ढूँढ़ते रहोगे तुम
ज़ख़्म-ए-दिल जब तुम्हें सताएगा
तुमको एक शख़्स याद आएगा।

‍ ~ ख़्वाजा परवेज़


  Mar 17, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मोची



राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।

*राँपी=मोचियों का उपकरण

और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।

यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।

*नवैयत=किसी वस्तु की विशिष्टता सूचित करनेवाला प्रकार या भेद

एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।

मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

‍~ धूमिल (सुदामा पाण्डेय: 09 -Nov-36 - 10-Feb-75)


  Mar 16, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

यूँ तो गुज़र रहा है हर एक पल



यूँ तो गुज़र रहा है हर एक पल खुशी के साथ
फिर भी कोई कमी सी है, क्यू ज़िंदगी के साथ

रिश्ते, वफायें, दोस्ती, सब कुछ तो पास है
क्या बात है पता नही, दिल क्यूँ उदास है
हर लम्हा है हसीन, नयी दिलकशी के साथ
फिर भी कोई कमी सी है, क्यूँ ज़िंदगी के साथ।

चाहत भी है सुकून भी है दिलबरी भी है
आँखों में ख़्वाब भी है, लबों पर हँसी भी है
दिल को नहीं है कोई शिकायत किसी के साथ
फिर भी कोई कमी सी है, क्यूँ ज़िंदगी के साथ।

सोचा था जैसा वैसा ही जीवन तो है मगर
अब और किस तलाश में बैचैन है नज़र
कुदरत तो मेहरबान है दरिया-दिली के साथ
फिर भी कोई कमी सी है, क्यूँ ज़िंदगी के साथ।

~ निदा फ़ाज़ली


  Mar 15, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

वस्ल हो जाए यहीं

वस्ल हो जाए यहीं, हश्र में क्या रक्खा है
आज की बात को क्यूँ कल पे उठा रक्खा है

*वस्ल=मिलन; हश्र=क़यामत का दिन

~ अमीर मीनाई

  Mar 14, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आँख बचा न किरकिरा कर दो



आँख बचा (कर) न किरकिरा कर दो इस जीवन का मेला।
कहाँ मिलोगे किसी विजन में - न हो भीड़ का जब रेला॥
*विजन=जनहीन, एकांत

दूर कहाँ तक दूर, थका भरपूर चूर सब अंग हुआ।
दुर्गम पथ मे विरथ दौड़कर खेल न था मैने खेला॥
*विरथ=पैदल

कहते हो 'कुछ दुःख नही', हाँ ठीक, हँसी से पूछो तुम।
प्रश्न करो टेढ़ी चितवन से, किस किस-को किसने झेला॥

आने दो मीठी मीड़ो से नूपुर की झनकार, रहो।
गलबाहीं दे हाथ बढ़ाओ, कह दो प्याला भर दे, ला॥
*मीड़=(संगीत में) एक स्वर से दूसरे स्वर में जाना

निठुर इन्हीं चरणों में मैं रत्नाकर हृदय उलीच रहा।
पुलकिल, प्लावित रहो, बनो मत सूखी बालू का वेला॥
*रत्नाकर=रत्नों की खान; पुलकिल=प्रफुल्लित; प्लावित=जलमग्न

‍~ जयशंकर प्रसाद


  Mar 14, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तुमने मुझे और गूँगा बना दिया



तुमने मुझे और गूँगा बना दिया
एक ही सुनहरी आभा-सी
सब चीज़ों पर छा गई

मै और भी अकेला हो गया
तुम्हारे साथ गहरे उतरने के बाद
मैं एक ग़ार से निकला
अकेला, खोया हुआ और गूँगा

अपनी भाषा तो भूल ही गया जैसे
चारों तरफ़ की भाषा ऐसी हो गई
जैसे पेड़ पौधों की होती है
नदियों में लहरों की होती है

हज़रत आदम के यौवन का बचपना
हज़रत हौवा की युवा मासूमियत
कैसी भी! कैसी भी!

ऐसा लगता है जैसे
तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई हो
मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में
आनंद का स्थायी ग्रास... हूँ

मूक।

~ शमशेर बहादुर सिंह


  Mar 13, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

करम उनका ज़फा उनकी



करम उनका ज़फा उनकी सितम उनका वफा उनकी
हमारा आबला अपना मुहब्बत में अना उनकी
*करम=कृपा; ज़फा=नाइंसाफ़ी; आबला=छाला, फफोला; अना=ख़ुदी

तबस्सुम भी उन्हीं का और शोखी भी उन्हीं की है
हमारा अश्क अपना और चेहरे की हया उनकी
*तबस्सुम=मुस्कान

जूनून-ए-शौक दीद अपना और ये रूसवाइयाँ अपनी
ये सर सर की तपिश अपनी और वो वादे सबा उनकी
*जूनून-ए-शौक=दीवानगी की हद तक पसंद ; दीद=देखना

ये प्यासे लब भी अपने ये खाली जाम भी अपना
वो और को पिलाये है यही नाज़ु-ओ अदा उनकी

मेरे ज़ख़्मे जिगर का हाल आरिफ कुछ बता उनको
कभी ऐ काश हो जावे मेरी खातिर दुआ उनकी

~ अबू आरिफ़


  Mar 12, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

प्रात नभ था बहुत नीला

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसा
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)
बहुत काली सिल जरा-से लाल केसर से
कि धुल गयी हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और...
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।

~ शमशेर बहादुर सिंह


  Mar 11, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

सब कुछ कह लेने के बाद




सब कुछ कह लेने के बाद
कुछ ऐसा है जो रह जाता है,
तुम उसको मत वाणी देना ।

वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,
वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की,
वह सारी रचना का क्रम है,
वह जीवन का संचित श्रम है,
बस उतना ही मैं हूँ,
बस उतना ही मेरा आश्रय है,
तुम उसको मत वाणी देना ।

वह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है,
सच्चाई है-अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है,
वह यति है-हर गति को नया जन्म देती है,
आस्था है-रेती में भी नौका खेती है,
वह टूटे मन का सामर्थ है,
वह भटकी आत्मा का अर्थ है,
तुम उसको मत वाणी देना ।

वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है,
वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,
बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,
इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,

अन्तराल है वह-नया सूर्य उगा लेती है,
नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है,
वह मेरी कृति है
पर मैं उसकी अनुकृति हूँ,
तुम उसको मत वाणी देना ।

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


  Mar 11, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आज नदी बिलकुल उदास थी

आज नदी बिलकुल उदास थी
सोयी थी अपने पानी में
उसके दर्पण पर
बादल का वस्त्र पड़ा था।

मैंने उसको नहीं जगाया
दबे पाँव घर वापस आया।

~ केदारनाथ अग्रवाल

  Mar 10, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हम दीवानों की क्या हस्ती




हम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ कल वहाँ चले
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले

आए बनकर उल्लास कभी, आँसू बनकर बह चले अभी
सब कहते ही रह गए अरे, तुम कैसे आए - कहाँ चले

किस ओर चले मत ये पूछो, बस चलना है इसलिए चले
जग से जग का कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले

दो बात कहीं, दो बात सुनी, कुछ हँसे और फिर कुछ रोए
छक कर सुख-दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले

हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले
हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले

हम मान और अपमान रहित, जी भर के खुलकर खेल चुके
हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाजी हार चले

अब अपना और पराया क्या, आबाद रहें रुकने वाले
हम स्वयं बंधे थे और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले

~ भगवतीचरण वर्मा


  Mar 10, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मर्दाने मर्दों और औरतानी औरतों

मर्दाने मर्दों और औरतानी औरतों ने
सारा लेख ख़राब कर दिया,
लाज़िम यह है कि हर औरत ज़रा मर्द
और हर मर्द ज़रा नारी हो।

~ दिनकर

  Mar 09, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जादू है या तिलिस्म है

जादू है या तिलिस्म है तुम्हारी ज़ुबान में
तुम झूठ कह रहे थे, मुझे ऐतबार था।

*तिलिस्म=माया, इंद्रजाल

~ बेख़ुद देहलवी

  Mar 08, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

कीजे न दस में बैठ कर



कीजे न दस में बैठ कर आपस की बातचीत
पहुँचेगी दस हज़ार जगह दस की बातचीत

कब तक रहें ख़मोश कि ज़ाहिर से आप की
हम ने बहुत सुनी कस-ओ-नाकस की बातचीत
*कस-ओ-नाकस=हर प्रकार का बड़ा छोटा आदमी

मुद्दत के बाद हज़रत-ए-नासेह करम किया
फ़र्माइये मिज़ाज-ए-मुक़द्दस की बातचीत
*हज़रत-ए-नासेह=उपदेशक महोदय; मिज़ाज-ए-मुक़द्दस=पवित्र स्वभाव

पर तर्क-ए-इश्क़ के लिये इज़हार कुछ न हो
मैं क्या करूँ नहीं ये मेरे बस की बातचीत
*तर्क-ए-इश्क़=प्यार को त्यागना

क्या याद आ गया है 'ज़फ़र' पंजा-ए-निगार
कुछ हो रही है बन्द-ओ-मुख़म्मस की बातचीत
*पंजा-ए-निगार=(महबूबा के) मेहंदी लगे हाथ; बन्द-ओ-मुख़म्मस=पांच मिसरों के बंद वाली कविता

~ बहादुर शाह ज़फ़र


  Mar 08, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

नहीं चुनी मैंने वो ज़मीन

नहीं चुनी मैंने वो ज़मीन जो वतन ठहरी,
नहीं चुना मैंने वो घर जो खानदान बना,
नहीं चुना मैंने वो मजहब जो मुझे बख्शा गया,
नहीं चुनी मैंने वो ज़बान जिसमें माँ ने बोलना सिखाया,
और अब
मैं इन सबके लिए तैयार हूँ,
मरने मारने पर!

फ़ज़्ल ताबिश

  Mar 07, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हँसी के तार के होते हैं



हँसी के तार के होते हैं ये बहार के दिन।
हृदय के हार के होते हैं ये बहार के दिन।

निगह रुकी कि केशरों की वेशिनी ने कहा,
सुगंध-भार के होते हैं ये बहार के दिन।

कहीं की बैठी हुई तितली पर जो आँख गई,
कहा, सिंगार के होते हैं ये बहार के दिन।

हवा चली, गले खुशबू लगी कि वे बोले,
समीर-सार के होते हैं ये बहार के दिन।

नवीनता की आँखें चार जो हुईं उनसे,
कहा कि प्यार के होते हैं ये बहार के दिन।

~ सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला


  Mar 05, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ग़ुंचे! तेरी ज़िंदगी पे दिल हिलता है

ग़ुंचे! तेरी ज़िंदगी पे दिल हिलता है
बस एक तबस्सुम के लिये खिलता है,
ग़ुंचे ने कहा कि - इस चमन में बाबा
ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है।

~ जोश मलीहाबादी

  Mar 04, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी




ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई कि घड़ी हो जैसे
*कड़ी= कष्ट, संकट

अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे
*गाम=क़दम; लरज़=काँप

मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं
अपने ही पावों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे

तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर
यह गिरह अब के मेरे दिल पे पड़ी हो जैसे
*गिरह=गाँठ

कितने नादान हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे
याद करने के लिये उम्र पड़ी हो जैसे

आज दिल खोल के रोये हैं तो यूँ ख़ुश हैं फ़राज़
चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे

~ अहमद फ़राज़


  Mar 04, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आंखों में जब तुम हो समाये

आंखों में जब तुम हो समाये
दिगर मजाल किसकी सनम जो आये
लाख हसीं हुआ करे कोई
तुम बिन ज़ालिमा न अब कोई भाये

*दिगर = अन्य, दूसरा

~ कृष्ण बेताब


  Mar 03, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

उमंगों भरा दिल किसी का



उमंगों भरा दिल किसी का न टूटे।
पलट जायँ पासे मगर जुग न फूटे।
कभी संग निज संगियों का न छूटे।
हमारा चलन घर हमारा न लूटे।
सगों से सगे कर न लेवें किनारा।
फटे दिल मगर घर न फूटे हमारा ।1।

कभी प्रेम के रंग में हम रँगे थे।
उसी के अछूते रसों में पगे थे।
उसी के लगाये हितों में लगे थे।
सभी के हितू थे सभी के सगे थे।
रहे प्यार वाले उसी के सहारे।
बसा प्रेम ही आँख में था हमारे ।2।

रहे उन दिनों फूल जैसा खिले हम।
रहे सब तरह के सुखों से हिले हम।
मिलाये, रहे दूध जल सा मिले हम।
बनाते न थे हित हवाई किले हम।
लबालब भरा रंगतों में निराला।
छलकता हुआ प्रेम का था पियाला ।3।

रहे बादलों सा बरस रंग लाते।
रहे चाँद जैसी छटाएँ दिखाते।
छिड़क चाँदनी हम रहे चैन पाते।
सदा ही रहे सोत रस का बहाते।
कलाएँ दिखा कर कसाले किये कम।
उँजाला अँधेरे घरों के रहे हम।4।

रहे प्यार का रंग ऐसा चढ़ाते।
न थे जानवर जानवरपन दिखाते।
लहू-प्यास-वाले, लहू पी न पाते।
बड़े तेजश्-पंजे न पंजे चलाते।
न था बाघपन बाघ को याद होता।
पड़े सामने साँपपन साँप खोता ।5।

कसर रख न जीकी कसर थी निकलती।
बला डाल कर के बला थी न टलती।
मसल दिल किसी का, न थी, दाल गलती।
बुरे फल न थी चाह की बेलि फलता।
न थे जाल हम तोड़ते जाल फैला।
धुले मैल फिर दिल न होता था मैला ।6।

~ अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'


  Mar 03, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

होती नहीं क़ुबूल दुआ

होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्क-ए-इश्क़ की
दिल चाहता न हो तो ज़बाँ में असर कहाँ

*तर्क-ए-इश्क़=प्यार को त्यागना

~ अल्ताफ़ हुसैन हाली


  Mar 02, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बात करनी मुझे मुश्किल




बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी

ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
*सब्र-ओ-क़रार=धैर्य, संतुष्टि

चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
*चश्म-ए-क़ातिल=क़ातिल निगाहें

उन की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
कि तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी
*माइल=प्रभावित

अक्स-ए-रुख़-ए-यार ने किस से है तुझे चमकाया
ताब तुझ में माह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी
*अक्स-ए-रुख़-ए-यार=(प्रेमिका) चेहरे का प्रतिबिम्ब; ताब=चमक; माह-ए-कामिल=पुर्णिमा का चाँद

क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तेरी हूर-ए-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
*सबब=कारण; ख़ू=आदत; हूर-ए-शमाइल=अत्यंत सुंदर और सदाचारी स्त्री

~ बहादुर शाह ज़फ़र


  Mar 02, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

देखता हूं रोज़ उस तारे को

देखता हूं रोज़ उस तारे को
ये जाली में से यूं टिमटिमाता है
जैसे बारीक दुपट्टे में से
कोई बार बार नयन मिलाता है

~ कृष्ण बेताब

  Mar 01, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

एक काबुली वाले की कहते हैं



एक काबुली वाले की कहते हैं लोग कहानी,
लाल मिर्च को देख गया भर उसके मुँह में पानी।

सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।

एक चवन्नी फेंक और झोली अपनी फैलाकर,
कुंजड़िन से बोला बेचारा ज्यों-त्यों कुछ समझाकर!

‘लाल-लाल पतली छीमी हो चीज अगर खाने की,
तो हमको दो तोल छीमियाँ फकत चार आने की।’

‘हाँ, यह तो सब खाते हैं’-कुँजड़िन बेचारी बोली,
और सेर भर लाल मिर्च से भर दी उसकी झोली!

मगन हुआ काबुली, फली का सौदा सस्ता पाके,
लगा चबाने मिर्च बैठकर नदी-किनारे जाके!

मगर, मिर्च ने तुरत जीभ पर अपना जोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में पानी आया।

पर, काबुल का मर्द लाल छीमी से क्यों मुँह मोड़े?
खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाए छोड़े?

आँख पोंछते, दाँत पीसते, रोते औ रिसियाते,
वह खाता ही रहा मिर्च की छीमी को सिसियाते!

इतने में आ गया उधर से कोई एक सिपाही,
बोला, ‘बेवकूफ! क्या खाकर यों कर रहा तबाही?’

कहा काबुली ने-‘मैं आदमी नहीं ऐसा-वैसा!
जा तू अपनी राह सिपाही, मैं खाता हूँ पैसा।’

~ रामधारी सिंह 'दिनकर'


  Mar 01, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

किसी ने वायदा किया

किसी ने वायदा किया
प्यार का
बहार का
कोई परदेस में माशूक से मिलने
मीलों मील चलता गया
इसी उम्मीद पर
कि
कल सुबह होगी

~ कृष्ण बेताब


  Feb 29, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

इतिहास एक है घंटाघर



इतिहास एक है घंटाघर
जो समय-सदृश ही अस्थिर।

वह यों ही रूप पलटता है,
ज्यों गिरगिट रंग बदलता है।

वह राजनीति का साधन है
उस पर उसका अनुशासन है।

जब चाहो उसे बदल डालो
सत-असत असत-सत कर डालो।

अल्लामा सुंदरलाल सदृश
लोगों ने उसको किया स्ववश।

सुधि विद्वानों को भी आई
यह बोल उठे सरदेसाई।

समयानुसारे इतिहास लिखो
जो चाहो उसको प्रकट करो।

वह नहीं वणिक का लेखा है
इतिहास न प्रस्तर-रेखा है।

~ श्री नारायण चतुर्वेदी


  Feb 29, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh