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Sunday, October 28, 2018

एक दो पल तो ज़रा और रुको



एक दो पल तो ज़रा और रुको
ऐसी जल्दी भी भला क्या है चले जाना तुम
शाम महकी है अभी और न पलकों पे सितारे जागे
हम सर-ए-राह अचानक ही सही
मुद्दतों बा'द मिले हैं तो न मिलने की शिकायत कैसी

फ़ुर्सतें किस को मयस्सर हैं यहाँ
आओ दो-चार क़दम और ज़रा साथ चलें
शहर-ए-अफ़्सुर्दा के माथे पे बुझी शाम की राख
ज़र्द पत्तों में सिमटती देखें
फिर उसी ख़ाक-ब-दामाँ पल से
अपने गुज़रे हुए कल की ख़ुश-बू
लम्हा-ए-हाल में शामिल कर के
अपनी बे-ख़्वाब मसाफ़त का इज़ाला कर लें
अपने होने का यक़ीं
और न होने का तमाशा कर लें
आज की शाम सितारा कर लें

**सर-ए-राह=रास्ते पर; शहर-ए-अफ़्सुर्दा=उदास शहर; दामाँ=कोना; ज़र्द=पीली; लम्हा-ए-हाल=वर्तमान; मसाफ़त=यात्रा; इज़ाला=क्षतिपूर्ति

~ ख़ालिद मोईन


  Oct 28, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, October 27, 2018

तुम से शिकायत क्या करूँ

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होता जो कोई दूसरा
करता गिला मैं दर्द का
तुम तो हो दिल का मुद्दआ'
तुम से शिकायत क्या करूँ

देखो है बुलबुल नाला-ज़न
कहती है अहवाल-ए-चमन
मैं चुप हूँ गो हूँ पुर-मेहन
तुम से शिकायत क्या करूँ

*नाला-जन=विलाप-अवस्था; अहवाल-ए-चमन=चमन की हालत;
पुर-मेहन=बहुत उदास

माना कि मैं बेहोश हूँ
पर होश है पुर-जोश हूँ
ये सोच कर ख़ामोश हूँ
तुम से शिकायत क्या करूँ

*पुर-जोश=भरपूर जोश में

तुम से तो उल्फ़त है मुझे
तुम से तो राहत है मुझे
तुम से तो मोहब्बत है मुझे
तुम से शिकायत क्या करूँ

~ बहज़ाद लखनवी


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Friday, October 26, 2018

इक शहंशाह ने बनवा के

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इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है
इस के साए में सदा प्यार के चर्चे होंगे
ख़त्म जो हो न सकेगी वो कहानी दी है

ताज वो शम्अ है उल्फ़त के सनम-ख़ाने की
जिस के परवानों में मुफ़्लिस भी हैं ज़रदार भी हैं
संग-ए-मरमर में समाए हुए ख़्वाबों की क़सम
मरहले प्यार के आसाँ भी हैं दुश्वार भी हैं
दिल को इक जोश इरादों को जवानी दी है
*मुफ़्लिस=ग़रीब; अरदार=दौलमंद; मरहले= ठिकाने

ताज इक ज़िंदा तसव्वुर है किसी शाएर का
उस का अफ़्साना हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं
इस के आग़ोश में आ कर ये गुमाँ होता है
ज़िंदगी जैसे मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं
ताज ने प्यार की मौजों को रवानी दी है
*तसव्वुर=कल्पना;

ये हसीं रात ये महकी हुई पुर-नूर फ़ज़ा
हो इजाज़त तो ये दिल इश्क़ का इज़हार करे
इश्क़ इंसान को इंसान बना देता है
किस की हिम्मत है मोहब्बत से जो इंकार करे
आज तक़दीर ने ये रात सुहानी दी है
*पुर-नूर=रौशन; फ़ज़ा=वातावरण

इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताज-महल
सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है

~ शकील बदायूँनी

  Oct 26, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 21, 2018

ज़वाल पर थी बहार की रुत

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ज़वाल पर थी बहार की रुत
ख़िज़ाँ का मौसम उरूज पर था
उदासियाँ थीं हर एक शय पर
चमन से शादाबियाँ ख़फ़ा थीं
उन ही दिनों में थी मैं भी तन्हा
उदासी मुझ को भी डस रही थी
वो गिरते पत्तों की सूखी आहट
ये सहरा सहरा बिखरती हालत
हमी को मेरी कुचल रही थी
मैं लम्हा लम्हा सुलग रही थी
*जवाल=उतार; उरूज=चोटी; शादाब=ख़ुशी; सहरा=जंगल

मुझे ये इरफ़ान हो गया था
हक़ीक़त अपनी भी खुल रही थी
कि ज़ात अपनी है यूँ ही फ़ानी
जो एक झटका ख़िज़ाँ का आए
तो ज़िंदगी का शजर भी इस पुल
ख़मोश-ओ-तन्हा खड़ा मिलेगा
मिज़ाज और ख़ुश-रवी के पत्ते
दिलों में लोगों के मिस्ल-ए-सहरा
फिरेंगे मारे ये याद बन कर
कुछ ही दिनों तक
*इरफ़ान=ज्ञान; ज़ात=अस्तित्व; फ़ानी=नश्वर; शजर=पेड़;मिस्ल-ए-सहरा=जंगल जैसे

मगर मुक़द्दर है उन का फ़ानी
के लाख पत्ते ये शोर कर लें
मिज़ाज में सर-कशी भी रख लें
या गिर्या कर लें उदास हो लें
तो फ़र्क़ उसे ये बस पड़ेगा
ज़मीन उन को समेट लेगी
ज़रा सी फिर ये जगह भी देगी
करिश्मा क़ुदरत का है ये ऐसा
उरूज पर है ज़वाल अपना
हर एक को है पलट के जाना
*सर-कशी=विद्रोह; गिर्या=रोना-धोना;

~ असरा रिज़वी


  Oct 21, 2018 | e-kavya.blogspot.com

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Saturday, October 20, 2018

उफ़ुक़ के उस तरफ़ कहते हैं

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उफ़ुक़ के उस तरफ़ कहते हैं इक रंगीन वादी है
वहाँ रंगीनियाँ कोहसार के दामन में सोती हैं
गुलों की निकहतें हर चार-सू आवारा होती हैं
वहाँ नग़्मे सबा की नर्म-रौ मौजों में बहते हैं
वहाँ आब-ए-रवाँ में मस्तियों के रक़्स रहते हैं

*उफ़ुक़=क्षितिज; कोहसार-पर्वतों; निकहत=ख़ुशबू; सू=दिशा; आब-ए-रवाँ=बहता पानी; रक़्स-नृत्य

वहाँ है एक दुनिया-ए-तरन्नुम आबशारों में
वहाँ तक़्सीम होता है तबस्सुम लाला-ज़ारों में
सुनहरी चाँद की किरनें वहाँ रातों को आती हैं
वहाँ परियाँ मोहब्बत के बे-ख़ौफ़ गीत गाती हैं

*आबशारों=झरने; तक़्सीम=बँटता; लाला-ज़ारों=फूलों के बाग़

वहाँ के रहने वालों को गुनह करना नहीं आता
ज़लील ओ मुब्तज़िल जज़्बात से डरना नहीं आता
वहाँ अहल-ए-मोहब्बत का न कोई नाम धरता है
वहाँ अहल-ए-मोहब्बत पर न कोई रश्क करता है

*ज़लील=अपमानित; मुब्तज़िल=अशिष्ट, अहल-ए-मोहब्बत=प्रेम के लोग; रश्क-ईर्ष्या

मोहब्बत करने वालों को वहाँ रुस्वा नहीं करते
मोहब्बत करने वालों का वहाँ चर्चा नहीं करते
हम अक्सर सोचते हैं तंग आ कर कहीं चल दें
मिरी जाँ! ऐ मिरे ख़्वाबों की दुनिया चल वहीं चल दें
*रुस्वा=अपमानित

उफ़ुक़ के उस तरफ़ कहते हैं इक रंगीन वादी है

~ नज़ीर मिर्ज़ा बर्लास

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Sunday, October 14, 2018

कोई हसरत भी नहीं

 
कोई हसरत भी नहीं कोई तमन्ना भी नहीं
दिल वो आँसू जो किसी आँख से छलका भी नहीं

रूठ कर बैठ गई हिम्मत-ए-दुश्वार-पसंद
राह में अब कोई जलता हुआ सहरा भी नहीं

आगे कुछ लोग हमें देख के हँस देते थे
अब ये आलम है कोई देखने वाला भी नहीं

दर्द वो आग कि बुझती नहीं जलती भी नहीं
याद वो ज़ख़्म कि भरता नहीं रिसता भी नहीं

बादबाँ खोल के बैठे हैं सफ़ीनों वाले
पार उतरने के लिए हल्का सा झोंका भी नहीं

~ अहमद राही

  Oct 14, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, October 13, 2018

एक ख़त जो किसी ने लिखा भी नहीं

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एक ख़त जो किसी ने लिखा भी नहीं
उम्र भर आँसुओं ने उसे ही पढ़ा ।

गंध डूबा हुआ एक मीठा सपन
कर गया प्रार्थना के समय आचमन
जब कभी गुनगुनाने लगे बांसवन
और भी बढ़ गया प्यास का आयतन

पीठ पर काँच के घर उठाए हुए
कौन किसके लिए पर्वतों पर चढ़ा ।

जब कभी नाम देना पड़ा प्यास को
मौन ठहरे हुए नील आकाश को
कौन संकेत देता रहा क्या पता
होंठ गाते रहे सिर्फ़ आभास को

मोम के मंच पर अग्नि की भूमिका
एक नाटक यही तो समय ने गढ़ा ।

एक ख़त जो किसी ने लिखा भी नहीं
उम्र भर आँसुओं ने उसे ही पढ़ा ।

~ शतदल

  Oct 13, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, October 12, 2018

भले दिनों की बात है




भले दिनों की बात है
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो
न देखने में आम सी
न ये कि वो चले तो
कहकशाँ सी रहगुज़र लगे
मगर वो साथ हो तो फिर
भला भला सफ़र लगे 


*हुस्न-ए-ताम=सुंदरता की पराकाष्ठा

कोई भी रुत हो उस की छब
फ़ज़ा का रंग-रूप थी
वो गर्मियों की छाँव थी
वो सर्दियों की धूप थी
न मुद्दतों जुदा रहे
न साथ सुब्ह-ओ-शाम हो
न रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद
न ये कि इज़्न-ए-आम हो 


*इज़्न-ए-आम=आम निमंत्रण

न ऐसी ख़ुश-लिबासियाँ
कि सादगी गिला करे
न इतनी बे-तकल्लुफ़ी
कि आइना हया करे
न इख़्तिलात में वो रम
कि बद-मज़ा हों ख़्वाहिशें
न इस क़दर सुपुर्दगी
कि ज़च करें नवाज़िशें 


*इख़्तिलात= मेल-जोल; सुपुर्दगी=समर्पण

न आशिक़ी जुनून की
कि ज़िंदगी अज़ाब हो
न इस क़दर कठोर-पन
कि दोस्ती ख़राब हो
कभी तो बात भी ख़फ़ी
कभी सुकूत भी सुख़न
कभी तो किश्त-ए-ज़ाफ़राँ
कभी उदासियों का बन 


*अज़ाब=यातना; सुकूत=चुप्पी; किश्त-ए-ज़ाफ़राँ=केसर की क्यारी

सुना है एक उम्र है
मुआमलात-ए-दिल की भी
विसाल-ए-जाँ-फ़ज़ा तो क्या
फ़िराक़-ए-जाँ-गुसिल की भी
सो एक रोज़ क्या हुआ
वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क़ को अमर कहूँ
वो मेरी ज़िद से चिढ़ गई 


*विसाले-जाँ-फ़िजा=प्राण वर्धक मिलन;,फ़िराके-जाँ-गुसिल=जान लेवा दूरी


मैं इश्क़ का असीर था
वो इश्क़ को क़फ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को
वो बद-तर-अज़-हवस कहे
शजर हजर नहीं कि हम
हमेशा पा-ब-गिल रहें
न ढोर हैं कि रस्सियाँ
गले में मुस्तक़िल रहें 


*असीर=क़ैदी; बद-तर-अज़-हवस=हवस से भी बुरा

मोहब्बतों की वुसअतें
हमारे दस्त-ओ-पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें
सगान-ए-बा-वफ़ा में हैं
मैं कोई पेंटिंग नहीं
कि इक फ़्रेम में रहूँ
वही जो मन का मीत हो
उसी के प्रेम में रहूँ 


*वुसअतें=विस्तार; दस्त-ओ-पा=हाथ व पैर; निस्बत=सम्बंध; सगान-ए-बा-वफ़ा=वफ़ादार कुत्ते

तुम्हारी सोच जो भी हो
मैं उस मिज़ाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है
ये बात आज की नहीं
न उस को मुझ पे मान था
न मुझ को उस पे ज़ोम ही
जो अहद ही कोई न हो
तो क्या ग़म-ए-शिकस्तगी 


*जोम=घमंड; अहद=वचन; ग़म-ए-शिकस्तगी=हार का दुख

सो अपना अपना रास्ता
हँसी-ख़ुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी
मैं अपनी राह चल दिया
भली सी एक शक्ल थी
भली सी उस की दोस्ती
अब उस की याद रात दिन
नहीं, मगर कभी कभी

~ अहमद फ़राज़


  Oct 12, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 7, 2018

रात फिर तेरे ख़यालों ने

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रात फिर तेरे ख़यालों ने जगाया मुझ को
टिमटिमाती हुई यादों का ज़रा सा शोला
आज भड़का तो फिर इक शोला-ए-जव्वाला बना
*जव्वाला=नाचता हुआ

अक़्ल ने तुझ को भुलाने के किए लाख जतन
ले गए मुझ को कभी मिस्र के बाज़ारों में
कभी इटली कभी एस्पेन के गुलज़ारों में
बेल्जियम के, कभी हॉलैंड के मय-ख़ानों में
कभी पैरिस, कभी लंदन के सनम-ख़ानों में
और मैं अक़्ल की बातों में कुछ ऐसा आया
मैं ये समझा कि तुझे भूल चुका हूँ शायद
*सनम-ख़ानों=मंदिरों

दिल ने तो मुझ से कई बार कहा वहम है ये
इस तरह तुझ को भुलाना कोई आसान नहीं
मैं मगर वहम में कुछ ऐसा गिरफ़्तार रहा
मैं ये समझा कि तुझे भूल चुका हूँ शायद
कल मगर फिर तिरी आवाज़ ने तड़पा ही दिया
आलम-ए-ख़्वाब से गोया मुझे चौंका ही दिया
और फिर तेरा हर इक नक़्श मिरे सामने था
*आलम-ए-ख़्वाब=सपनों की दुनिया

तिरी ज़ुल्फ़ें, तिरी ज़ुल्फ़ों की घटाओं का समाँ
तिरी चितवन, तिरी चितवन वही बातिन का सुराग़
तिरे आरिज़ वही ख़ुश-रंग महकते हुए फूल
तिरी आँखें वो शराबों के छलकते हुए जाम
तिरे लब जैसे सजाए हुए दो बर्ग-ए-गुलाब
तिरी हर बात का अंदाज़ तिरी चाल का हुस्न
तिरे आने का नज़ारा तिरे जाने का समाँ
*बातिन=अंदरूनी हालत; बर्ग-ए-गुलाब=गुलाब की पंखुड़ी

तिरा हर नक़्श तो क्या तू ही मिरे सामने थी
दिल ने जो बात कई बार कही थी मुझ से
शब के अनवार में भी दिन के अँधेरों में भी
मिरे एहसास में अब गूँज रही थी पैहम
इस तरह तुझ को भुलाना कोई आसान नहीं
दिल हक़ीक़त है कोई ख़्वाब-ए-परेशाँ तो नहीं
याद मानिंद-ए-ख़िरद मस्लहत-अंदेश नहीं
*अनवार=प्रकाश-पुंज; पैहम=लगातार; मानिंद-ए-ख़िरद=बुद्धिमानों जैसा; मस्लहत-अंदेश=सही ग़लत जानना

डूबती ये नहीं हॉलैंड के मय-ख़ानों में
गुम नहीं होती ये पैरिस के सनम-ख़ानों में
ये भटकती नहीं एस्पेन के गुलज़ारों में
भूलती राह नहीं मिस्र के बाज़ारों में
याद मानिंद-ए-ख़िरद मस्लहत-अंदेश नहीं
अक़्ल अय्यार है सौ भेस बना लेती है
याद का आज भी अंदाज़ वही है कि जो था
आज भी उस का है आहंग वही रंग वही
भेस है उस का वही तौर वही ढंग वही
*अय्यार=धूर्त; आहंग=राग, गायन

फिर इसी याद ने कल रात जगाया मुझ को
और फिर तेरा हर इक नक़्श मिरे सामने था

~ जगन्नाथ आज़ाद


  Oct 07, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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सीधा, सहल, साफ़ है रस्ता देखो

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किस क़दर सीधा, सहल, साफ़ है रस्ता देखो
न किसी शाख़ का साया है, न दीवार की टेक
न किसी आँख की आहट, न किसी चेहरे का शोर
दूर तक कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं

चंद क़दमों के निशाँ हाँ कभी मिलते हैं कहीं
साथ चलते हैं जो कुछ दूर फ़क़त चंद क़दम
और फिर टूट के गिर जाते हैं ये कहते हुए
अपनी तन्हाई लिए आप चलो, तन्हा अकेले

साथ आए जो यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं
किस क़दर सीधा, सहल, साफ़ है रस्ता देखो

‍~ गुलज़ार

  Oct 06, 2018 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, October 5, 2018

अब क्यूँ उस दिन का ज़िक्र करो

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अब क्यूँ उस दिन का ज़िक्र करो
जब दिल टुकड़े हो जाएगा
और सारे ग़म मिट जाएँगे
जो कुछ पाया खो जाएगा
जो मिल न सका वो पाएँगे

ये दिन तो वही पहला दिन है
जो पहला दिन था चाहत का
हम जिस की तमन्ना करते रहे
और जिस से हर दम डरते रहे
ये दिन तो कई बार आया
सौ बार बसे और उजड़ गए
सौ बार लुटे और भर पाया

अब क्यूँ उस दिन का ज़िक्र करो
जब दिल टुकड़े हो जाएगा
और सारे ग़म मिट जाएँगे
तुम ख़ौफ़-ओ-ख़तर से दर-गुज़रो
जो होना है सो होना है
गर हँसना है तो हँसना है
गर रोना है तो रोना है

तुम अपनी करनी कर गुज़रो
जो होगा देखा जाएगा

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


  Oct 05, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh