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Thursday, October 29, 2015

पढ़ा लिखा कुछ काम न आया




पढ़ा लिखा कुछ काम न आया
जीवन बीता चम्मच चम्मच
सोच विचार विमर्श त्याग कर
जीवन रीता चम्मच चम्मच

बालम ने बहकाया हमको
चूल्हे ने दहकाया हमको
निभी नौकरी लश्टम पश्टम
समय सारिणी भारी भरकम
खड़ी कतारें कर्तव्यों की
सुख और हक़ के लट्टू मद्धम
कब हम जीते कब हम हारे
कौन हिसाब रखे सरपंचम

अब हमने सिर तान लिया है
मन में निश्चय ठान लिया है
अपनी मर्ज़ी आप जियेंगे
जीवन की रसधार पियेंगे
कलश उठाकर, ओक लगाकर
नहीं चाहिए हमें कृपाएँ
करछुल करछुल चम्मच चम्मच l

~ ममता कालिया
 

  Oct 29, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ऐ दिल उन आँखों पर न जा



ऐ दिल उन आँखों पर न जा,
जिनमें वफ़ूरे-रंज (अधिक दु:ख) से
कुछ देर को तेरे लिए
आँसू अगर लहरा गए।

ये चन्द लम्हों की चमक
जो तुझको पागल कर गई
इन जुगनुओं के नूर से
चमकी है कब वो ज़िन्दगी
जिसके मुक़द्दर में रही
सुबहे-तलब से तीरगी (अँधेरा)।

किस सोच में गुमसुम है तू...?
ऐ बेख़बर! नादाँ न बन -
तेरी फ़सुर्दा (उदास) रूह को
चाहत के काँटों की तलब,
और उसके दामन में फ़क़त
हमदर्दियों के फूल हैं।

~ अहमद फ़राज़


  Oct 28, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

इज़हार-ए-मोहब्बत के लिए




इज़हार-ए-मोहब्बत के लिए लाज़मी नहीं
कि फूल ख़रीदे जाएँ
किसी होटल में कमरा लिया जाए
या परिंदे आज़ाद किए जाएँ

इज़हार-ए-मोहब्बत के लिए तुम अपने बोसे
काग़ज़ में लपेट कर भेज सकती हो
जिस तरह मैं ने अपने जज़्बे
तुम्हें पोस्ट कर दिए हैं

*इज़हार=बयान करना; बोसे=चुम्बन; जज़्बे=भावनाएँ

~ ज़ाहिद इमरोज़


  Oct 28, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

दबी हुई है मेरे लबों में


दबी हुई है मेरे लबों में
कहीं पे वो आह भी जो अब तक
न शोला बन के भड़क सकी है

न अश्क-ए-बेसूद (निरर्थक आँसू) बन के निकली
घुटी हुई है नफ़स की हद में
जला दिया जो जला सकी है
न शमा बन कर पिघल सकी है 


न आज तक दूद (धुआँ) बन के निकली
दिया है बेशक मेरी नज़र को वो परतौ(छवि) जो दर्द बख़्शे
न मुझ पर ग़ालिब (विजयी) ही आ सकी है
न मेरा मस्जूद (प्रार्थना) बन के निकली


~ अख़्तर-उल-ईमान

  Oct 27, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अजाँ हो रही है

अजाँ हो रही है पिला जल्द साक़ी
इबादत करें आज मख़मूर हो कर।

*मख़मूर=मदोन्मत्त

~ नामालूम

  Oct 27, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, October 27, 2015

जीना अज़ाब क्यूँ है



जीना अज़ाब क्यूँ है ये क्या हो गया मुझे
किस शख़्स की लगी है भला बद-दुआ मुझे
*अज़ाब=सज़ा, तकलीफ़

मैं अपने आप से तो लड़ा हूँ तमाम उम्र
ऐ आसमान तू भी कभी आज़मा मुझे

बनना पड़ा है आप ही अपना ख़ुदा मुझे
किस कुफ्र की मिली है ख़ुदारा सजा मुझे
*कुफ्र=कृतघ्नता

निकले थे दोनों भेस बदल कर तो क्या अजब
मैं ढूंढता ख़ुदा को फिरा, और ख़ुदा मुझे

पूजेंगे मुझको गाँव के सब लोग एक दिन
मैं इक पुराना पेड़ हूँ, तू मत गिरा मुझे

इस घर के कोने कोने में यादों के भूत हैं
अलमारियां न खोल, बहुत मत डरा मुझे

यह कह कर मैंने रखा हर आइने का दिल
अगले जनम में रूप मिलेगा नया मुझे

तू मुतमईं नहीं है तो मुझे कब है ऐतराज
मिट्टी को फिर से गूंथ मेरी, फिर बना मुझे
*मुतमईं=संतुष्ट

~ सलमान अख़्तर


  Oct 27, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Monday, October 26, 2015

दरिया की ज़िंदगी पर

दरिया की ज़िंदगी पर, सदक़े हज़ार जानें
मुझ को नहीं गवारा साहिल की मौत मरना।

*सदक़े=दान, ख़ैरात; गवारा=स्वीकार

~ नामालूम

  Oct 26, 2015| e-kavya.blogspot.com
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इस से पहले की हम




इस से पहले की हम
एक ग़मनाक कहानी के किरदार हो जाएँ
आओ अपने हिस्से की धूप ले कर
हवा हो जाएँ
किसी और सय्यारे में जा बसें
आदम और हव्वा हो जाएँ
फिर ख़ता करें ख़ुदाई से घबरा कर
और इस जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा पाएँ
इक नई दुनिया का सबब हो जाएँ

*ग़मनाक-दु:खी; सय्यारे=ग्रह, दूसरी दुनिया

~ ख़ुर्शीद अकरम


  Oct 25, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ख़्याल, सांस, नज़र, सोच



ख़्याल, सांस, नज़र, सोच - खोल कर दे दो
लबों से बोल उतारो, जुबां से आवाज़ें
हथेलियों से लकीरें उतारकर दे दो
हाँ, दे दो अपनी 'ख़ुदी' भी, कि 'ख़ुद' नहीं हो तुम
उतारों रूह से ये जिस्म का हसीं गहना
उठो दुआ से तो आमीन कह के रूह दे दो

*आमीन=तथास्तु, ईश्वर करे ऐसा ही हो।

~ गुलज़ार


  Oct 25, 2015| e-kavya.blogspot.com
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किसे यह होश सुराही कहाँ है

किसे यह होश सुराही कहाँ है जाम कहाँ
निगाहे पीरे-मुग़ाँ से बरस रही है शराब।

*पीरे-मुग़ाँ=मधुशाला का मालिक

~ नामालूम


  Oct 24, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अक़्ल ने एक दिन ये दिल से कहा

अक़्ल ने एक दिन ये दिल से कहा
भूले-भटके की रहनुमा हूँ मैं
दिल ने सुनकर कहा-ये सब सच है
पर मुझे भी तो देख क्या हूँ मैं
राज़े-हस्ती को तू समझती है
और आँखों से देखता हूँ मैं

*राज़े-हस्ती=अस्तित्व के रहस्य

~ इक़बाल


  Oct 24, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Friday, October 23, 2015

हवा की नर्म-ख़िरामी भी



हवा की नर्म-ख़िरामी भी क्या क़यामत है
कि उसकी याद उमड़ आई है घटा की तरह
मैं उसको सोच तो सकता हूँ, छू नहीं सकता
वो मेरे सामने मौजूद है - ख़ुदा की तरह।

*नर्म-ख़िरामी=धीमी चाल

~ अहमद नदीम क़ासमी


  Oct 23, 2015| e-kavya.blogspot.com
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ठंडी साँसे ना पालो सीने में



ठंडी साँसे ना पालो सीने में
लम्बी सांसों में सांप रहते हैं
ऐसे ही एक सांस ने इक बार
डस लिया था हसीं क्लियोपेत्रा को

मेरे होटों पे अपने लब रखकर
फूँक दो सारी साँसों को 'बीबा'

मुझको आदत है ज़हर पीने की

~ गुलज़ार


  Oct 22, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, October 21, 2015

जब चट्टानों से लिपटता है समंदर



जब चट्टानों से लिपटता है समंदर का शबाब
दूर तक मौज के रोने की सदा आती है
यक-ब-यक फिर यही टूटी हुई बिखरी हुई मौज
इक नई मौज में ढलने को पलट जाती है।

*शबाब=ज़ोर

~ अहमद नदीम क़ासमी

  Oct 21, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, October 20, 2015

अजब तेरे शहर का दस्तूर

अजब तेरे शहर का दस्तूर हो गया
जिसको गले लगाया वो दूर हो गया
कागज़ में दबके मर गए कीड़े किताब के
बन्दा बिना पढे ही मशहूर हो गया ।

~ बशीर बद्र

  Oct 19, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Monday, October 19, 2015

तेरे भीगे बदन की खुशबू



तेरे भीगे बदन की खुशबू से लहरें भी हुईं मस्तानी सी
तेरा ज़ुल्फ़ को छूकर आज हुई ख़ामोश हवा दीवानी सी।

ये रूप का कुंदन दहका हुआ ये जिस्म का चंदन महका हुआ
इलज़ाम न देना फिर मुझको हो जाए अगर नादानी सी।

बिखरा हुआ काजल आँखों में तूफ़ान की हलचल साँसों में
ये नर्म लबों की ख़ामोशी पलकों में छुपी हैरानी सी।

~ कलीम उसमानी


  Oct 19, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 18, 2015

आ गया हो ना कोई

आ गया हो ना कोई भेष बदल कर देखो
दो कदम साए के हमराह भी चलकर देखो,
मेहमाँ रौशनियों! सख्त अंधेरा है यहां,
पांव रखना मेरी चौखट पे, संभल कर देखो!

~ मख़्मूर सईदी

  Oct 18, 2015| e-kavya.blogspot.com
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बेहतर दिनों की आस

बेहतर दिनों की आस लगाते हुए 'हबीब'
हम बेहतरीन दिन भी गँवाते चले गये

~ हबीब अमरोहवी

   Oct 18, 2015| e-kavya.blogspot.com
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बस इतना--अब चलना होगा



बस इतना--अब चलना होगा
फिर अपनी-अपनी राह हमें।

कल ले आई थी खींच, आज
ले चली खींचकर चाह हमें
तुम जान न पाईं मुझे, और
तुम मेरे लिए पहेली थीं;
पर इसका दुख क्या? मिल न सकी
प्रिय जब अपनी ही थाह हमें।

तुम मुझे भिखारी समझें थीं,
मैंने समझा अधिकार मुझे
तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,
था बना वही तो प्यार मुझे।

तुम लोक-लाज की चेरी थीं,
मैं अपना ही दीवाना था
ले चलीं पराजय तुम हँसकर,
दे चलीं विजय का भार मुझे।

सुख से वंचित कर गया सुमुखि,
वह अपना ही अभिमान तुम्हें
अभिशाप बन गया अपना ही
अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें
तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,
तुम समझ न पाईं जीवन को
जन-रव के स्वर में भूल गया
अपने प्राणों का गान तुम्हें।

था प्रेम किया हमने-तुमने
इतना कर लेना याद प्रिये,
बस फिर कर देना वहीं क्षमा
यह पल-भर का उन्माद प्रिये।
फिर मिलना होगा या कि नहीं
हँसकर तो दे लो आज विदा
तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,
यह मेरा आशीर्वाद प्रिये।

~ भगवतीचरण वर्मा

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Saturday, October 17, 2015

अब जाके आह करने के आदाब



अब जाके आह करने के आदाब आए है
दुनिया समझ रही है कि हम मुस्कुराए है

गुज़रे है मयकदे से जो तौबा के बाद हम
कुछ दूर आदतन भी कदम लड़खड़ाए है

इंसान जीतेजी करे तौबा ख़ताओ से
मजबूरियो ने कितने फ़रिश्ते बनाए है

~ ख़ुमार बाराबंकवी


  Oct 17, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Friday, October 16, 2015

हमने हसरतों के दाग़ आँसुओ से

हमने हसरतों के दाग़ आँसुओ से धो लिए,
आपकी खुशी हुजूर, बोलिए न बोलिए।
क्या हसीन खार थे जो मेरी निगाह ने,
सादगी से बारहा रूह में चुभो लिए।
ज़िंदगी का रास्ता काटना ही था 'अदम',
जाग उठे तो चल दिये, थक गए तो सो लिए। 


*खार=काँटे; बारहा=बार बार

~ अदम


  Oct 16, 2015| e-kavya.blogspot.com
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कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी



कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी, सो मैंने जीवन वार दिया
मैं कैसा ज़िंदा आदमी था, एक शख्स ने मुझको मार दिया

एक सब्ज़ शाख गुलाब की था, एक दुनिया अपने ख़्वाब की था
वो एक बहार जो आई नहीं उसके लिए सब कुछ वार दिया

ये सजा सजाया घर साथी, मेरी ज़ात नहीं मेरा हाल नहीं
ए काश तुम कभी जान सको, जो इस सुख ने आज़ार दिया
*आज़ार=पीड़ा, कष्ट

मैं खुली हुई सच्चाई था, मुझे जानने वाले जानते हैं
मैंने किन लोगों से नफरत की और किन लोगों को प्यार दिया

वो इश्क़ बोहत मुश्किल था, मगर आसान न था यूं जीना भी
उस इश्क़ ने ज़िंदा रहने का मुझे ज़र्फ दिया, पिन्दार दिया
*ज़र्फ=समझ; पिन्दार=गर्व

मेरे बच्चों को अल्लाह रखे, इन ताज़ा हवा के झोकों ने
मैं खुश्क पेड़ खिज़ां का था, मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया
*खिज़ां=पतझड़; बर्ग-ओ-बार=कोपलें और फल

~ उबैदुल्लाह 'अलीम'


  Oct 16, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, October 15, 2015

दूरी हुई, तो उनसे करीब और

दूरी हुई, तो उनसे करीब और हम हुए
ये कैसे फ़ासिले थे, जो बढ़ने से कम हुए

~ वसीम बरेलवी


  Oct 15, 2015| e-kavya.blogspot.com
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एक बार तुम्हें देखा है।



चाँदनी रात में,
एक बार तुम्हें देखा है।

जागती थी जैसे साहिल पे कहीं,
लेके हाथों में कोई साजे-हसीं
एक रंगीन ग़ज़ल गाते हुए,फूल बरसाते हुए
प्यार छलकाते हुए ,
चाँदनी रात में,
एक बार तुम्हें देखा है।

तूने चेहरे पे झुकाया चेहरा ,
मैंने हाथों से छुपाया चेहरा,
लाज से शर्म से घबराते हुए ,
फूल बरसाते हुए, प्यार छलकाते हुए,
चाँदनी रात में
एक बार तुम्हें देखा है।

~ नक़्श लायलपुरी


  Oct 15, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, October 14, 2015

मेरे दरवाज़े से अब चाँद को




मेरे दरवाज़े से अब चाँद को रुख़सत कर दो,
साथ आया है तुम्हारे जो तुम्हारे घर से
अपने माथे से हटा दो ये चमकता हुआ ताज
फेंक दो जिस्म से किरणों का सुनहरी ज़ेवर
तुम्ही तन्हा मेरे ग़म-खाने में आ सकती हो
एक मुद्दत से तुम्हारे ही लिए रखा है
मेरे जलते हुए सीने का दहकता हुआ चाँद

~ अली सरदार जाफ़री

  Oct 14, 2015| e-kavya.blogspot.com
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इक सबब मरने का

इक सबब मरने का, इक तलब जीने की
चाँद पुखराज का, रात पश्मीने की।

*सबब=कारण; तलब=चाहत; चाँद पुखराज=पुखराज (पीले) जैसे रंग का चाँद ; पशमीना=कश्मीरी (पशमीना बकरियों की) ऊन से बनी हुयी बेहद नरम शॉल

~ गुलज़ार

  Oct 13, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, October 13, 2015

अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं



अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूं तो चलूं
अपने ग़मख़ाने में एक धूम मचा लूं तो चलूं
और एक जाम-ए-मए तल्ख़ चढ़ा लूं तो चलूं
अभी चलता हूं ज़रा ख़ुद को संभालूं तो चलूं

जाने कब पी थी अभी तक है मए-ग़म का ख़ुमार
धुंधला धुंधला सा नज़र आता है जहाने बेदार
आंधियां चलती हैं दुनिया हुई जाती है ग़ुबार
आंख तो मल लूं, ज़रा होश में आ लूं तो चलूं
*जहान=संसार; बेदार=सचेत

वो मेरा सहर वो एजाज़ कहां है लाना
मेरी खोई हुई आवाज़ कहां है लाना
मेरा टूटा हुआ साज़ कहां है लाना
एक ज़रा गीत भी इस साज़ पे गा लूं तो चलूं
*सहर=सबेरा; एजाज़=करिश्मा

मैं थका हारा था इतने में जो आए बादल
किसी मतवाले ने चुपके से बढ़ा दी बोतल
उफ़ वह रंगीं पुर-असरार ख़यालों के महल
ऐसे दो चार महल और बना लूं तो चलूं
*पुर-असरार=रहस्यपूर्ण

मेरी आंखों में अभी तक है मोहब्बत का ग़ुरूर
मेरे होंटों को अभी तक है सदाक़त का ग़ुरूर
मेरे माथे पे अभी तक है शराफ़त का ग़ुरूर
ऐसे वहमों से ख़ुद को निकालूं तो चलूं
*सदाक़त=सच्चाई

~ मुईन अहसन जज़्बी

  Oct 13, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Monday, October 12, 2015

रंग कब बिगड़ सका उनका



रंग  कब बिगड़ सका उनका
रंग लाते दिखलाते हैं ।
मस्त हैं सदा बने रहते ।
उन्हें मुसुकाते पाते हैं ।।

भले ही जियें एक ही दिन ।
पर कहा वे घबराते हैं ।
फूल हँसते ही रहते हैं ।
खिला सब उनको पाते हैं ।।

~ अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’


  Oct 12, 2015| e-kavya.blogspot.com
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प्यारे लम्हे आएंगें ...!



प्यारे लम्हे आएंगें और मजबूरी मिट जाएगी
हम दोनों मिल जाएंगे और सब दूरी मिट जाएगी
हर दम बहने वाली आँखों, की माला भी टूटेगी
तेरी मेरी हस्ती इस, बैरी बंधन से छूटेगी

लेकिन ये सब बातें हैं अपने जी के बहलाने की
दुख की रात में धीरे-धीरे दिल का दर्द मिटाने की
रोते रोते, हँसते हँसते, रुकते रुकते गाने की

सुख का सपना सूखा है और सूखा ही रह जाएगा
सूनी सेज पे प्रेम कहानी प्रेमी यूं कह जाएगा
होते होते सारा जीवन आखों से बह जाएगा

~ मीराजी

  Oct 12, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 11, 2015

रात भर दीदा-ए-नमनाक



रात भर दीदा-ए-नमनाक* में लहराते रहे।
सांस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे
ख़ुश थे हम अपनी तमन्‍नाओं का ख्‍़वाब आयेगा
अपना अरमान बर-अफ़गंदा-नक़ाब* आयेगा।
नज़रें नीची किये शरमाए हुए आएगा
काकुलें* चेहरे पे बिखराए हुए आएगा।
आ गयी थी दिल-ए-मुज़्तर* में शिकेबाई*-सी।
बज रही थी मेरे ग़मख़ाने में शहनाई-सी
शब के जागे हुए तारों को भी नींद आने लगी
आपके आने की इक आस थी, अब जाने लगी
सुबह ने सेज से उठते हुए ली अंगड़ाई
ओ सबा* तू भी जो आई तो अकेली आई,

ओ सबा तू भी जो आई तो अकेली आई।

- दीदा-ए-नमनाक=भीगी आंखों
- बर-अफ़गंदा-नक़ाब=बिना परदा किये
- दिल-ए-मुज़्तर=बेचैन दिल
- शिकेबाई=चैन
- काकुलें=जुल्‍फ़
- सबा=पूरब से आने वाली हवा

~ मख़्दूम मोहिउद्दीन


  Oct 10, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, October 10, 2015

इस दौर में ख़्वाहिशे-लज़्ज़ात न कर

इस दौर में ख़्वाहिशे-लज़्ज़ात न कर
मंज़िल की तरफ दौड़ यहाँ रात न कर
ख़्वाबों की हसीन दुनिया के पाले पोसे
ये वक़्त अमल का है, बहुत बात न कर।

*ख़्वाहिश= तमन्ना, इच्छा; लज़्ज़ात=मज़े

~ क़दीर सिद्दीक़ी

  Oct 10, 2015| e-kavya.blogspot.com
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Friday, October 9, 2015

साजन आए, सावन आया ।



अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।

धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव गई मुझपर गहरा,

है नियति-प्रकृति की ऋतुओं में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।

तुफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,

झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लिए आया-
ऐसी निकली ही धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।

घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,

मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,
ओ' फिर जीवन की साँसे ले
उसकी म्रियमाण-जली काया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।

रोमांच हुआ जब अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू की लकड़ी से
कोई दोनों को संग छुए,

सिंचित-सा कंठ पपीहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।

~ हरिवंशराय बच्चन

  Oct 9, 2015| e-kavya.blogspot.com
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मिरी ज़िंदगी, मिरी शाइरी

मिरी ज़िंदगी, मिरी शाइरी, किसी ग़म की देन है 'जाफ़री'
दिल ओ जाँ का क़र्ज़ चुका दिया, मैं गुनाहगार नहीं गया।

~ क़ैसर-उल जाफ़री

  Oct 9, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Thursday, October 8, 2015

मेरे ख़्वाब की ताबीर के टुकड़े..

मिले हैं यूँ मुझको मेरे ख़्वाब की ताबीर के टुकड़े
मुझे भेजे हैं उसने मेरी ही तस्वीर के टुकड़े

~ नारायण प्रसाद मेहर

  Oct 8, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, October 7, 2015

तेरे शहर में

 
हो गया हूँ हर तरफ़ बद-नाम तेरे शहर में
ये मिला है प्यार का इन'आम तेरे शहर में

जब सुनहरी चूड़ियाँ बजती हैं दिल के साज़ पर
नाचती है गर्दिश-ए-अय्याम तेरे शहर में
*गर्दिश-ए-अय्याम=कालचक्र, समय का लेखा

इस क़दर पाबंदियाँ आख़िर ये क्या अंधेर है
ले नहीं सकते तिरा ही नाम तेरे शहर में

अब तो यादों के उफ़ुक़ पर चाँद बन कर मुस्कुरा
रोते रोते हो गई है शाम तेरे शहर में
*उफ़ुक़=क्षितिज

कब खुलेगा तेरे मय-ख़ाने का दर मेरे लिए
फिर रहा हूँ ले के ख़ाली जाम तेरे शहर में

एक दीवाने ने कर ली ख़ुद-कुशी पिछले पहर
आ गया आख़िर उसे आराम तेरे शहर में

'प्रेम' यूसुफ़ तो नहीं लेकिन ब-अंदाज़-ए-दिगर
हो चुका है बार-हा नीलाम तेरे शहर में
*ब-अंदाज़-ए-दिगर=दूसरी तरह से

~ प्रेम वरबारतोनी


  Oct 7, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

क्यों हाथ जला, लाख छुपाए गोरी

क्यों हाथ जला, लाख छुपाए गोरी
सखियों ने तो खोल के पहेली रख दी

साजन ने जो पल्लू तेरा खेंचा, तू ने
जलते हुए दीपक पे हथेली रख दी

~ जाँ निसार अख़्तर

  Oct 7, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

Tuesday, October 6, 2015

पतझड़ के पीले पत्तों ने



पतझड़ के पीले पत्तों ने
प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन,
वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर
जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में
भी था मुझको विश्वास कभी ।

आलोक दिया हँसकर प्रातः
अस्ताचल पर के दिनकर ने;
जल बरसाया था आज अनल
बरसाने वाले अम्बर ने;
जिसको सुनकर भय-शंका से
भावुक जग उठता काँप यहाँ;
सच कहता-हैं कितने रसमय
संगीत रचे मेरे स्वर ने ।

तुम हो जाती हो सजल नयन
लखकर यह पागलपन मेरा;
मैं हँस देता हूँ यह कहकर
'लो टूट चुका बन्धन मेरा!'
ये ज्ञान और भ्रम की बातें-
तुम क्या जानो, मैं क्या जानूँ ?
है एक विवशता से प्रेरित
जीवन सबका, जीवन मेरा !

कितने ही रस से भरे हृदय,
कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे
कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों
मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही
था दिया प्रेम का यह बन्धन !

कब तुमने मेरे मानस में
था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज
प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ
ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे
किसने कब किससे प्यार किया ?

जिस सागर से मधु निकला है,
विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी
कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है,
उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव
है मेरे इस उजड़े घर में ?

मेरी आँखों की दो बूँदों
में लहरें उठतीं लहर-लहर;
मेरी सूनी-सी आहों में
अम्बर उठता है मौन सिहर,
निज में लय कर ब्रह्माण्ड निखिल
मैं एकाकी बन चुका यहाँ,
संसृति का युग बन चुका अरे
मेरे वियोग का प्रथम प्रहर !

कल तक जो विवश तुम्हारा था,
वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना,
मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे,
सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे
तुम रोकर कह देती 'तपना'।

मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल,
गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी,
भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के
जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो,
बस मैं हूँ केवल एक अमर !

~ भगवतीचरण वर्मा


  Oct 6, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अपना अंजाम तो मालूम है

अपना अंजाम तो मालूम है सबको फिर भी
अपनी नज़रों में हर इंसान सिकंदर क्यूँ है

~ सुदर्शन फ़ाकिर

  Sep 30, 2015| e-kavya.blogspot.com
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तुमने चाहे चाँद-सितारे

तुमने चाहे चाँद-सितारे, हमको मोती लाने थे,
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या

~ अंसार क़म्बरी

  Sep 29, 2015| e-kavya.blogspot.com
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इस पथ का उद्देश्य नहीं है

इस पथ का उद्देश्य नहीं है
श्रान्त भवन में टिक जाना,
किन्तु पहुँचना उस सीमा तक
जिसके आगे राह नहीं है।

~ जयशंकर प्रसाद

  Sep 28, 2015| e-kavya.blogspot.com
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