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Sunday, December 29, 2019

मेरे जीवन के पतझड़ में

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मेरे जीवन के पतझड़ में
ऋतुपति अब आए भी तो क्या?

ऋतुराज स्वयं है पीत-वर्ण
मेरी आहों को छू-छू कर,
मेरे अंतर में चाहों की
है चिता धधकती धू-धू कर,
मेरे अतीत पर वर्तमान
अब यदि पछताए भी तो क्या?

मधुमास न देखा जिस तस्र ने
फिर उसको ग्रीष्म जलाती क्यों ?
मधु-मिलन न जाना हो जिसने
विरहाग्नि उसे झुलसाती क्यों ?
निर्झर ने चाहा बलि होना
सरिता की विगलित ममता पर,
हँस दी तब सरिता की लहरें
निर्झर की उस भावुकता पर,
यदि सरिता को उस निर्झर की
अब याद सताए भी तो क्या?

जिसकी निश्च्छलता पर मेरे
अरमान निछावर होते थे,
जिसकी अलसाई पलकों पर
मेरे सुख सपने सोते थे,
मेरे जीवन के पृष्ठ किसी
निष्ठुर की आँखों से ओझल,
शैशव की कारा में बंदी
मेरे नव-यौवन की हलचल।
अब कोई यदि मेरे पथ पर
दृग-सुमन बिछाए भी तो क्या?

दु:ख झंझानिल में भी मैंने
था अपना पथ निर्माण किया,
पथ के शूलों को भी मैंने
था फूलों सा सम्मान किया,
प्यासों की प्यास बुझाना ही
निर्झर ने जाना जीवन भर,
सागर के खारे पानी में
घुल गया उधर सरिता का उर।
जिसके अपनाने में मैंने
अपनेपन की परवाह न की,
उसने मेरे अपनेपन का
क्रंदन सुनकर भी आह न की।

अब दुनिया मेरे गीतों में
अपनापन पाए भी तो क्या?

~ बलबीर सिंह 'रंग'


 Dec 29, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, December 25, 2019

आया है त्यौहार क्रिसमस

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आया है त्यौहार क्रिसमस
बाँटे सब को प्यार क्रिसमस

मैं लाया हूँ प्यारे तोहफ़े
देखो कितने सारे तोहफ़े
गुड़िया कैसी आली लाया
गुड्डा दाढ़ी वाला लाया
जिस के पास हों पैसे ले लो
जी चाहे तो वैसे ले लो

तोहफ़े पा कर सब बोलेंगे
आए यूँ हर बार क्रिसमस
बाँटे सब को प्यार क्रिसमस

रंगीले ग़ुब्बारे ले लो
गोया चाँद सितारे ले लो
चलती फिरती मोटर ले लो
ढोल बजाता बंदर ले लो
देखो आ कर ख़ूब तमाशा
आओ जाने आओ 'पाशा'
अगले साल मैं फिर आउँगा

जब आएगा यार क्रिसमस
बाँटे सब को प्यार क्रिसमस

~ हैदर बयाबानी

 Dec 25, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 22, 2019

हम बंजारे दिल वाले हैं

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हम बंजारे दिल वाले हैं
और पैंठ में डेरे डाले हैं
तुम धोका देने वाली हो?
हम धोका खाने वाले हैं

इस में तो नहीं शर्माओगी?
क्या धोका देने आओगी?
सब माल निकालो, ले आओ
ऐ बस्ती वालो ले आओ
ये तन का झूटा जादू भी
ये मन की झूटी ख़ुश्बू भी
ये ताल बनाते आँसू भी
ये जाल बिछाते गेसू भी
ये लर्ज़िश डोलते सीने की
पर सच नहीं बोलते सीने की
ये होंट भी, हम से क्या चोरी
क्या सच-मुच झूटे हैं गोरी?

*लर्ज़िश=कम्पन

इन रम्ज़ों में इन घातों में
इन वादों में इन बातों में
कुछ खोट हक़ीक़त का तो नहीं?
कुछ मैल सदाक़त का तो नहीं?
ये सारे धोके ले आओ
ये प्यारे धोके ले आओ
क्यूँ रक्खो ख़ुद से दूर हमें
जो दाम कहो मंज़ूर हमें

*रम्ज़ों=रहस्य; सदाकत=यथार्थ

इन काँच के मनकों के बदले
हाँ बोलो गोरी क्या लोगी?
तुम एक जहान की अशरफ़ियाँ?
या दिल और जान की अशरफ़ियाँ?

~ इब्न-ए-इंशा


 Dec 22, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 14, 2019

तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत से

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तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत से अगर नफ़रत है
तू ने होंटों को लरज़ने से तो रोका होता
बे-नियाज़ी से मगर काँपती आवाज़ के साथ
तू ने घबरा के मिरा नाम न पूछा होता

*इज़हार-ए-मोहब्बत=प्रेम की अभिव्यक्ति; लरज़ना=कंपकपी; बे-नियाज़ी=उपेक्षा

तेरे बस में थी अगर मशअ'ल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख़्सार में गुलज़ार न भड़का होता
यूँ तो मुझ से हुईं सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें
अपने टूटे हुए फ़िक़्रों को तो परखा होता

*मशअ'ल=मसाल; आब-ओ-हवा=मौसम; फ़िक़्रों=तानों

यूँही बे-वज्ह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी
दम-ए-रुख़्सत मैं अगर याद न आया होता
तेरा ग़म्माज़ बना ख़ुद तिरा अंदाज़-ए-ख़िराम
दिल न सँभला था तो क़दमों को सँभाला होता

*दम-ए-रुख़्सत=विदाई के क्षण; ग़म्माज़=चुगली करने वाला; अंदाज़-ए-ख़िराम=धीरे धीरे चलने का अंदाज़

अपने बदले मिरी तस्वीर नज़र आ जाती
तू ने उस वक़्त अगर आइना देखा होता
हौसला तुझ को न था मुझ से जुदा होने का
वर्ना काजल तिरी आँखों में न फैला होता

~ अहमद नदीम क़ासमी

 Dec 14, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 13, 2019

तग़ाफ़ुल और करम दोनों

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तग़ाफ़ुल और करम दोनों बराबर काम करते थे
जिगर के ज़ख़्म भरते थे तो दिल के दाग़ उभरते थे
*तग़ाफ़ुल=उपेक्षा; करम=कृपा

ख़ुदा जाने हमें क्या था कि फिर भी उन पे मरते थे
जो दिन भर में हज़ारों वा'दे करते थे मुकरते थे

न पूछो उन की तस्वीर-ए-ख़याली की सजावट को
उधर दिल रंग देता था इधर हम रंग भरते थे
*तस्वीर-ए-ख़याली=काल्पनिक छवि

मोहब्बत का समुंदर उस की मौजें ऐ मआ'ज़-अल्लाह
दिल इतना डूबता जाता था जितना हम उभरते थे
*मआ'ज़-अल्लाह=ईश्वर रक्षा करे

अजब कुछ ज़िंदगानी हो गई थी हिज्र में अपनी
न हँसते थे न रोते थे न जीते थे न मरते थे
*हिज्र=वियोग

शहीदान-ए-वफ़ा की मंज़िलें तो ये अरे तो ये
वो राहें बंद हो जातीं थीं जिन पर से गुज़रते थे
*शहीदान-ए-वफ़ा=शहीदों की वफ़ा

न पूछो उस की बज़्म-ए-नाज़ की कैफ़िय्यतें 'मंज़र'
हज़ारों बार जीते थे हज़ारों बार मरते थे
*बज़्म-ए-नाज़=शोख़ लोगों की महफ़िल; कैफ़िय्यत=अवस्था

~ मंज़र लखनवी

 Dec 13, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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चलने का हौसला नहीं

चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
इश्क़ के इस सफ़र ने तो मुझ को निढाल कर दिया।

~ परवीन शाकिर


 Dec 11, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 1, 2019

अंजाम-ए-मोहब्बत से बेगाना

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अंजाम-ए-मोहब्बत से मैं बेगाना नहीं हूँ
दीवाना बना फिरता हूँ दीवाना नहीं हूँ

दम भर में जो हो ख़त्म वो अफ़्साना नहीं हूँ
इंसान हूँ इंसान मैं परवाना नहीं हूँ

साक़ी तिरी आँखों को सलामत रक्खे अल्लाह
अब तक तो मैं शर्मिंदा-ए-पैमाना नहीं हूँ

हो बार न ख़ातिर पे तो नासेह कहूँ इक बात
समझा लें जिसे आप वो दीवाना नहीं हूँ

बर्बादियों का ग़म नहीं ग़म है तो ये ग़म है
मिट कर भी मैं ख़ाक-ए-दर-ए-जानाना नहीं हूँ

*ख़ाक-ए-दर-ए-जानाना=प्रेमिका के घर की धूल

तौबा तिरे दामन पे जुनूँ-ख़ेज़ निगाहें
हूँ तो मगर अब इतना भी दीवाना नहीं हूँ

*जुनूँ-ख़ेज़=उन्माद से भरी

सब कुछ मिरे साक़ी ने दिया है मुझे 'मंज़र'
मोहताज-ए-मय-ओ-शीशा-ओ-पैमाना नहीं हूँ

~ मंज़र लखनवी


 Dec 1, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 30, 2019

मैं ज़िंदगी के अज़ाब लिक्खूँ

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मिरे ख़ुदाया
मैं ज़िंदगी के अज़ाब लिक्खूँ कि ख़्वाब लिक्खूँ
ये मेरा चेहरा ये मेरी आँखें
बुझे हुए से चराग़ जैसे
जो फिर से चलने के मुंतज़िर हों
*अज़ाब=तकलीफ़; मुंतज़िर=प्रतीक्षा करने वाला

वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें
वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
जिन्हों ने पैमाँ किए थे मुझ से
रफ़ाक़तों के मोहब्बतों के
कहा था मुझ से कि ऐ मुसाफ़िर रह-ए-वफ़ा के
जहाँ भी जाएगा हम भी आएँगे साथ तेरे
बनेंगे रातों में चाँदनी हम तो दिन में साए बिखेर देंगे
*पैमाँ=वादे; रफ़ाक़त=मित्रता; रह-ए-वफ़ा=वफ़ा की राह पर

वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें
वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
वो अपने पैमाँ रफ़ाक़तों के मोहब्बतों के
शिकस्त कर के
न जाने अब किस की रहगुज़र का मनारा-ए-रौशनी हुए हैं
मगर मुसाफ़िर को क्या ख़बर है
वो चाँद-चेहरा तो बुझ गया है
सितारा-आँखें तो सो गई हैं
वो ज़ुल्फ़ें बे-साया हो गई हैं
वो रौशनी और वो साए मिरी अता थे
सो मेरी राहों में आज भी हैं
कि मैं मुसाफ़िर रह-ए-वफ़ा का
*शिकस्त=हार कर; मनारा=मीनार; अता=उपहार

वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें
वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
हज़ारों चेहरों हज़ारों आँखों
हज़ारों ज़ुल्फ़ों का एक सैलाब-ए-तुंद ले कर
मिरे तआक़ुब में आ रहे हैं
*सैलाब-ए-तुंद=ज़ोर से आती हुई बाढ़; तआक़ुब=पीछे

हर एक चेहरा है चाँद-चेहरा
हैं सारी आँखें सितारा-आँखें
तमाम हैं
मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
मैं किस को चाहूँ मैं किस को चूमूँ
मैं किस के साए में बैठ जाऊँ
बचूँ कि तूफ़ाँ में डूब जाऊँ
न मेरा चेहरा न मेरी आँखें
मिरे ख़ुदाया
मैं ज़िंदगी के अज़ाब लिक्खूँ कि ख़्वाब लिक्खूँ

~ उबैदुल्लाह अलीम

 Nov 30, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Thursday, November 28, 2019

तिरे रुख़्सार से बे-तरह

तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम,
जो कुछ कहिए तो बल खा उलझती है ज़ुल्फ़ बे-ढंगी।

~ शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

 Nov 28, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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जिससे पथ पर स्नेह मिला


जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही का धन्यवाद।

जीवन अस्थिर अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग­डग, लम्बी मंजिल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं
दाएं­ बाएं सुख दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही का धन्यवाद।

सांसों पर अवलंबित काया
जब चलते­ चलते चूर हुई
दो स्नेह­ शब्द मिल गये, मिली
नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई
पथ के पहचाने छूट गये
पर साथ­साथ चल रही याद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही का धन्यवाद।

जो साथ न मेरा दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूं यदि तो भी क्या
राही मर लेकिन राह अमर
इस पथ पर वे ही चलते हैं
जो चलने का पा गए स्वाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही का धन्यवाद।

कैसे चल पाता यदि न मिला
होता मुझको आकुल ­अंतर
कैसे चल पाता यदि मिलते
चिर तृप्ति अमरता पूर्ण प्रहर
आभारी हूं मैं उन सबका
दे गए व्यथा का जो प्रसाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही का धन्यवाद।

- शिवमंगल सिंह 'सुमन'


 Nov 28, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 23, 2019

तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

 
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
हाथों में बस गई है साँसों में रच रही है
ख़्वाबों की वुसअ'तों में इक धूम मच रही है
जज़्बात के गुलिस्ताँ महका रही है हर सू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
*वुसअ'त=क्षेत्र; हर सू=हर तरफ

तेरे ख़तों की मुझ पर क्या क्या इनायतें हैं
बे-मुद्दआ करम है बेजा शिकायतें हैं
अपने ही क़हक़हों पर बरसा रही है आँसू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

तेरी ज़बान बन कर अक्सर मुझे सुनाए
बातें बनी बनाई जुमले रटे-रटाए
मुझ पर भी कर चुकी है अपनी वफ़ा का जादू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

समझे हैं कुछ उसी ने आदाब चाहतों के
सब के लिए वही हैं अलक़ाब चाहतों के
सब के लिए बराबर फैला रही है बाज़ू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू
*अलक़ाब=उपाधियाँ

अपने सिवा किसी को मैं जानता नहीं था
सुनता था लाख बातें और मानता नहीं था
अब ख़ुद निकाल लाई बेगानगी के पहलू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

क्या जाने किस तरफ़ को चुपके से मुड़ चुकी है
गुलशन के पर लगा कर सहरा को उड़ चली है
रोका हज़ार मैं ने आई मगर न क़ाबू
तेरे ख़तों की ख़ुश्बू

~ क़तील शिफ़ाई

 Nov 23, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 22, 2019

साथ अगर तुम हो तो फिर हम


 
साथ अगर तुम हो तो फिर हम
हँसते हँसते चलते चलते
दूर आकाश की हद तक जाएँ
काली काली सी दलदल से
तपता ताँबा फूट रहा हो

मकड़ी के जाले का फ़ीता
काट के हम उस बाग़ में जाएँ
जिस में कोई कभी न गया हो
कोकनार के फूल खिले हों
भँवरे उन को चूम रहे हों

पत्थर से पानी चलता हो
मैं पानी का चुल्लू भर कर
जब मारूँ चेहरे पे तुम्हारे
पहले तुम को साँस न आए
और फिर मेरे साथ लिपट कर
ऐसे छूटे धार हँसी की
जैसे चश्मा फूट रहा हो

~ ख़ुर्शीद रिज़वी

 Nov 23, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, November 19, 2019

दिल सोया हुआ था मुद्दत से

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दिल सोया हुआ था मुद्दत से ये कैसी बशारत जागी है
इस बार लहू में ख़्वाब नहीं ताबीर की लज़्ज़त जाती है
*बशारत=ख़ुशख़बरी; ताबीर=(ख़्वाब)सम्भावित अर्थ

इस बार नज़र के आँगन में जो फूल खिला ख़ुश-रंग लगा
इस बार बसारत के दिल में नादीदा बसीरत जागी है
*बसारत=दृष्टि; नादीदा=जो दिखा नहीं हो; बसीरत=दिल की नज़र

इक बाम-ए-सुख़न पर हम ने भी कुछ कहने की ख़्वाहिश की थी
इक उम्र के ब'अद हमारे लिए अब जा के समाअत जागी है
*बाम=छत; समाअत=सुनने की क्षमता

इक दस्त-ए-दुआ की नर्मी से इक चश्म-ए-तलब की सुर्ख़ी तक
अहवाल बराबर होने में इक नस्ल की वहशत जागी है
*दस्त-ए-दुआ=प्रार्थना के लिए उठे हाथ; चश्म-ए-तलब=जिसको नज़रें देखना चाहें; अहवाल=हालात;

ऐ त'अना-ज़नो दो चार बरस तुम बोल लिए अब देखते जाओ
शमशीर-ए-सुख़न किस हाथ में है किस ख़ून में हिद्दत जागी है
*हिद्दत=तीव्रता

~ अज़्म बहज़ाद


 Nov 19, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, November 9, 2019

सुबह का तारा

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वक़्त-ए-सहर, ख़ामोश धुँदलका नाच रहा है सेहन-ए-जहाँ में
ताबिंदा, पुर-नूर सितारे, जगमग जगमग करते करते
हार चुके हैं अपनी हिम्मत, डूब चुके हैं बहर-ए-फ़लक में
तारीकी के तूफ़ानों में अपनी कश्ती खेते खेते

*सहन-ए-जहाँ=आँगन; ताबिंदा=प्रकाशमान; बाहर-ए-फ़लक=आकाश के समुद्र; तारीकी=अँधेरा

लेकिन इक बा-हिम्मत तारा अब भी आँखें खोल रहा है
अब भी जहाँ को देख रहा है अपनी मस्ताना नज़रों से
जैसे किसी तालाब में लचके कोई शगुफ़्ता फूल कँवल का
जैसे बेले की शाख़ों में दूर से एक शगूफ़ा चमके

*बाँ-हिम्मत=साहसी; शगुफ़्ता=खिला हुआ; शगूफ़ा=कली

वक़्त-ए-सहर, ख़ामोश धुँदलका एक सितारा काँप रहा है
जैसे कोई बोसीदा कश्ती तूफ़ानों में डोल रही हो
कोई दिया रौशन हो जैसे क़ब्रिस्तान में ताक़-ए-लहद पर
जिस की लौ अंजाम के डर से घटती हो और थर्राती हो

*बोसीदा=फटे-हाल; लहद=क़ब्र

वक़्त-ए-सहर ख़ामोश धुँदलका एक सितारा काँप रहा है
रुख़ पर जिस के खेल रहा है अब भी तबस्सुम हल्का हल्का
वो आया इक नूर का धारा जल्वों की बूँदें बरसाता
जगमग जगमग करता करता डूब गया मासूम सितारा

~ रिफ़अत सरोश


 Nov 10, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, November 1, 2019

आज की बात नई बात नहीं

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आज की बात नई बात नहीं है ऐसी
जब कभी दिल से कोई गुज़रा है याद आई है
सिर्फ़ दिल ही ने नहीं गोद में ख़ामोशी की
प्यार की बात तो हर लम्हे ने दोहराई है

चुपके चुपके ही चटकने दो इशारों के गुलाब
धीमे धीमे ही सुलगने दो तक़ाज़ों के अलाव!
रफ़्ता रफ़्ता ही छलकने दो अदाओं की शराब
धीरे धीरे ही निगाहों के ख़ज़ाने बिखराओ

बात अच्छी हो तो सब याद किया करते हैं
काम सुलझा हो तो रह रह के ख़याल आता है
दर्द मीठा हो तो रुक रुक के कसक होती है
याद गहरी हो तो थम थम के क़रार आता है

दिल गुज़रगाह है आहिस्ता-ख़िरामी के लिए
तेज़-गामी को जो अपनाओ तो खो जाओगे
इक ज़रा देर ही पलकों को झपक लेने दो
इस क़दर ग़ौर से देखोगे तो सो जाओगे

~ ज़ेहरा निगाह


 Nov 1, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 27, 2019

दीप से दीप जलें


सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।

लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ, कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे, नवीन दुकूलों में।।

गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले, गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
भवन-भवन तेरा मंदिर है, स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को, उज्ज्वल कर कल्याणी।।

वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है, तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत, दीप से दीप जलें।

~ माखनलाल चतुर्वेदी

 Oct 27, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, October 19, 2019

फूलों पे रक़्स और न बहारों पे रक़्स कर

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फूलों पे रक़्स और न बहारों पे रक़्स कर
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद में ख़ारों पे रक़्स कर
हो कर जुमूद-ए-गुलशन-ए-जन्नत से बे-नियाज़
दोज़ख़ के बे-पनाह शरारों पे रक़्स कर

*रक़्स=नृत्य; गुलज़ार=चमन; हस्त-ओ-बूद=कल और आज; जुमूद=जमे हुए (निष्क्रिय); बे-नियाज़=उदासीन; शरारों=चिंगारी

शम-ए-सहर फुसून-ए-तबस्सुम, हयात-ए-गुल
फ़ितरत के इन अजीब नज़ारों पे रक़्स कर
तंज़ीम-ए-काएनात-ए-जुनूँ की हँसी उड़ा
उजड़े हुए चमन की बहारों पे रक़्स कर

*शम-ए-सहर=सुबह का दीप; फुसून-ए-तबस्सुम-मुस्कुराहट का जादू; हयात-ए-गुल=जिंदगी का फूल
तंज़ीम=नियम कानून; कायनात-ए-जुनूँ=प्रकृति का उन्माद

सहमी हुई सदा-ए-दिल-ए-ना-तवाँ न सुन
बहकी हुई नज़र के इशारों पर रक़्स कर
जो मर के जी रहे थे तुझे उन से क्या ग़रज़
तू अपने आशिक़ों के मज़ारों पे रक़्स कर
*सदा=आवाज़; ना-तवाँ=कमज़ोर

हर हर अदा हो रूह की गहराइयों में गुम
यूँ रंग-ओ-बू की राह-गुज़ारों पे रक़्स कर
तू अपनी धुन में मस्त है तुझ को बताए कौन
तेरी ज़मीं फ़लक है सितारों पर रक़्स कर
*राह-गुज़ारों=राही

इस तरह रक़्स कर कि सरापा असर हो तू
कोई नज़र उठाए तो पेश-ए-नज़र हो तू
*सरापा=सर से पाँव तक; पेश-ए-नज़र= का कारण

~ शकील बदायुनी


 Oct 19, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, October 18, 2019

सब माया है

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सब माया है, सब ढलती फिरती छाया है 
इस इश्क़ में हम ने जो खोया जो पाया है
जो तुम ने कहा है, 'फ़ैज़' ने जो फ़रमाया है
सब माया है

हाँ गाहे गाहे दीद की दौलत हाथ आई
या एक वो लज़्ज़त नाम है जिस का रुस्वाई
बस इस के सिवा तो जो भी सवाब कमाया है
सब माया है

इक नाम तो बाक़ी रहता है, गर जान नहीं
जब देख लिया इस सौदे में नुक़सान नहीं
तब शम्अ पे देने जान पतिंगा आया है
सब माया है

मालूम हमें सब क़ैस मियाँ का क़िस्सा भी
सब एक से हैं, ये राँझा भी ये 'इंशा' भी
फ़रहाद भी जो इक नहर सी खोद के लाया है
सब माया है

क्यूँ दर्द के नामे लिखते लिखते रात करो
जिस सात समुंदर पार की नार की बात करो
उस नार से कोई एक ने धोका खाया है?
सब माया है

जिस गोरी पर हम एक ग़ज़ल हर शाम लिखें
तुम जानते हो हम क्यूँकर उस का नाम लिखें
दिल उस की भी चौखट चूम के वापस आया है
सब माया है

वो लड़की भी जो चाँद-नगर की रानी थी
वो जिस की अल्हड़ आँखों में हैरानी थी
आज उस ने भी पैग़ाम यही भिजवाया है
सब माया है

जो लोग अभी तक नाम वफ़ा का लेते हैं
वो जान के धोके खाते, धोके देते हैं
हाँ ठोक-बजा कर हम ने हुक्म लगाया है
सब माया है

जब देख लिया हर शख़्स यहाँ हरजाई है
इस शहर से दूर इक कुटिया हम ने बनाई है
और उस कुटिया के माथे पर लिखवाया है
सब माया है

~ इब्न-ए-इंशा

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Thursday, October 17, 2019

कभी साया है कभी धूप

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कभी साया है कभी धूप मुक़द्दर मेरा
होता रहता है यूँ ही क़र्ज़ बराबर मेरा

टूट जाते हैं कभी मेरे किनारे मुझ में
डूब जाता है कभी मुझ में समुंदर मेरा

किसी सहरा में बिछड़ जाएँगे सब यार मिरे
किसी जंगल में भटक जाए गा लश्कर मेरा

*सहरा=बियाबान; लश्कर=काफिला

बा-वफ़ा था तो मुझे पूछने वाले भी न थे
बे-वफ़ा हूँ तो हुआ नाम भी घर घर मेरा

*बा-वफ़ा=वफ़ादार

कितने हँसते हुए मौसम अभी आते लेकिन
एक ही धूप ने कुम्हला दिया मंज़र मेरा

*मंज़र=दृश्य

आख़िरी ज़ुरअ-ए-पुर-कैफ़ हो शायद बाक़ी
अब जो छलका तो छलक जाए गा साग़र मेरा

* ज़ुरअ-ए-पुर-कैफ़=नशे से भरपूर ख़ुराक

~ अतहर नफ़ीस


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Sunday, October 13, 2019

अभी सर्दी पोरों की पहचान के मौसम में है

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अभी सर्दी पोरों की पहचान के मौसम में है

इस से पहले कि बर्फ़ मेरे दरवाज़े के आगे दीवार बन जाए
तुम क़हवे की प्याली से उठती महकती भाप की तरह
मेरी पहचान कर लो
मैं अभी तक सब्ज़ हूँ
मुँह-बंद इलायची की तरह

मैं ने आज तुम्हारी याद के कबूतर को
अपने ज़ेहन के काबुक से आज़ाद किया
तो मुझे अंदर की पतावर दिखाई दी
चाँद पूरा होने से पहले तुम ने मुझे छुआ
और बात पूरी होने से पहले
तुम ने बात ख़त्म कर दी

*काबुक=कबूतर का दड़बा; पतावर=पुआल, सूखी घास

जानकारी के भी कितने दुख होते हैं
बिन कहे ही तल्ख़ बात समझ में आ जाती है
अच्छी बात को दोहराने की सई
और बुरी बात को भुलाने की जिद्द-ओ-जोहद में
ज़िंदगी बीत जाती है
बर्फ़ की दीवार में
अब के मैं भी चुनवा दी जाऊँगी
कि मुझे आग से खेलता देख कर
दानिश-मंदों ने यही फ़ैसला किया है

*सई=प्रयत्न, हिम्मत; जिद्द-ओ-जहद=संघर्ष; दानिश-मंदों=शिक्षित समाज

मैं तुम्हारे पास लेटी हुई भी
फुलझड़ी की तरह सुलगती रहती हूँ
मैं तुम से दूर हूँ
तब भी तुम मेरी लपटों से सुलगते और झुलसते रहते हो
समुंदर सिर्फ़ चाँद का कहा मानता है
सर-ए-शाम जब सूरज और मेरी आँखें सुर्ख़ हों
तो मैं चाँद के बुलावे पे समुंदर का ख़रोश देखने चली जाती हूँ
और मेरे पैरों के नीचे से रेत निकल कर
मुझे बे-ज़मीन कर देती है
पैर बे-ज़मीन
और सर बे-आसमान

*ख़रोश-शोर, हाहाकार; सब्ज़=हरा

फाँसी पर लटके शख़्स की तरह हो के भी
यही समझती हो
कि मुँह-बंद इलायची की तरह अभी तक सब्ज़ हो

~ किश्वर नाहीद


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Saturday, October 12, 2019

मैं आग भी था और प्यासा भी

 
मैं आग भी था और प्यासा भी
तू मोम थी और गंगा-जल भी
मैं लिपट लिपट कर
भड़क भड़क कर
प्यास बुझाती आँखों में बुझ जाता था

वो आँखें सपने वाली सी
सपना जिस में इक बस्ती थी
बस्ती का छोटा सा पुल था
सोए सोए दरिया के संग
पेड़ों का मीलों साया था
पुल के नीचे अक्सर घंटों
इक चाँद पिघलते देखा था

अब याद में पिघली आग भी है
आँखों में बहता पानी भी
मैं आग भी था और प्यासा भी

~ अबरारूल हसन

 Oct 12, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, October 11, 2019

सोच लो सोच लो जीने का ये अंदाज़

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सोच लो सोच लो जीने का ये अंदाज़ नहीं
अपनी बाँहों का यही रंग नुमायाँ न करो
हुस्न ख़ुद ज़ीनत*-ए-महफ़िल है चराग़ाँ न करो
नीम-उर्यां* सा बदन और उभरते सीने
तंग और रेशमी मल्बूस* धड़कते सीने
तार जब टूट गए साज़ कोई साज़ नहीं
तुम तो औरत हो मगर जिंस-ए-गिराँ* बन न सकीं
*ज़ीनत=शोभा; नीम-उर्यां=अर्ध-नग्न ;मल्बूस=कपड़े; जिंस-ए-गिराँ=मँहगा सामान

और आँखों की ये गर्दिश ये छलकते हुए जाम
और कूल्हों की लचक मस्त चकोरों का ख़िराम*
शम्अ जो देर से जलती है न बुझने पाए
कारवाँ ज़ीस्त का इस तरह न लुटने पाए
तुम तो ख़ुद अपनी ही मंज़िल का निशाँ बन न सकीं
*ख़िराम=मस्त चाल;

रात कुछ भीग चली दूर सितारे टूटे
तुम तो औरत ही के जज़्बात को खो देती हो
तालियों की इसी नद्दी में डुबो देती हो
मुस्कुराहट सर-ए-बाज़ार बिका करती है
ज़िंदगी यास* से क़दमों पे झुका करती है
और सैलाब उमड़ता है सहारे टूटे
दूर हट जाओ निगाहें भी सुलग उट्ठी हैं
वर्ज़िशों की ये नुमाइश तू बहुत देख चुका
पिंडलियों की ये नुमाइश तू बहुत देख चुका
जाओ अब दूसरे हैवान यहाँ आएँगे
भेस बदले हुए इंसान यहाँ आएँगे
*यास=निराशा

देखती क्या हो ये बाँहें भी सुलग उट्ठी हैं
सोच लो सोच लो जीने का ये अंदाज़ नहीं

~ अख़्तर पयामी

 Oct 11, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 6, 2019

दिल के रू-ब-रू न रहे


सबा में मस्त-ख़िरामी गुलों में बू न रहे
तिरा ख़याल अगर दिल के रू-ब-रू न रहे
*सबा=सुबह की हवा; मस्त-ख़िरामी=नशीली चाल; रू-ब-रू=आमने सामने

तिरे बग़ैर हर इक आरज़ू अधूरी है
जो तू मिले तो मुझे कोई आरज़ू न रहे

है जुस्तुजू में तिरी इक जहाँ का दर्द-ओ-निशात
तो क्या अजब कि कोई और जुस्तुजू न रहे
*दर्द-ओ-निशात=दर्द और सुख

तिरी तलब से इबारत है सोज़-ओ-हयात
हो सर्द आतिश-ए-हस्ती जो दिल में तू न रहे
*सोज़-ओ-हयात=जीने की लालसा; आतिश-ए-हस्ती=अस्तित्व की आग

तू ज़ौक़-ए-कम-तलबी है तो आरज़ू का शबाब
है यूँ कि तू रहे और कोई जुस्तुजू न रहे
*ज़ौक़-ए-कम-तलबी=कम पा कर ख़ुश रहने की आदत

ख़ुदा करे न वो उफ़्ताद आ पड़े हम पर
कि जान-ओ-दिल रहें और तेरी आरज़ू न रहे
*उफ़्ताद=आपत्ति

तिरे ख़याल की मय दिल में यूँ उतारी है
कभी शराब से ख़ाली मिरा सुबू न रहे

वो दश्त-ए-दर्द सही तुम से वास्ता तो रहे
रहे ये साया-ए-गेसू-ए-मुश्क-बू न रहे
*दश्त-ए-दर्द=दर्द का सहरा(जंगल); साया-ए-गेसू-ए-मुश्क-बू=कस्तूरी ख़ुशबू वाली ज़ुल्फों का साया

नहीं क़रार की लज़्ज़त से आश्ना ये वजूद
वो ख़ाक मेरी नहीं है जो कू-ब-कू न रहे
*कू-ब-कू=हर इक कोने में

इस इल्तिहाब में कैसे ग़ज़ल-सरा हो कोई
कि साज़-ए-दिल न रहे ख़ू-ए-नग़्मा-जू न रहे
*इल्तिहाब=आग भड़कना; ग़ज़ल-सरा=ग़ज़ल लिखने/पढने वाला; ख़ू-ए-नग़्मा-जू=संगीत का चाहक

सफ़र तवील है इस उम्र-ए-शो'ला-सामाँ का
वो क्या करे जिसे जीने की आरज़ू न रहे
*तवील=लम्बा

~ साजिदा ज़ैदी

 Oct 06, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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ये पिछले इश्क़ की बातें हैं


ये पिछले इश्क़ की बातें हैं
जब आँख में ख़्वाब दमकते थे
जब दिलों में दाग़ चमकते थे
जब पलकें शहर के रस्तों में
अश्कों का नूर लुटाती थीं
जब साँसें उजले चेहरों की
तन मन में फूल सजाती थीं



जब चाँद की रिम-झिम किरनों से
सोचों में भँवर पड़ जाते थे
जब एक तलातुम रहता था
अपने बे-अंत ख़यालों में
हर अहद निभाने की क़स्में
ख़त ख़ून से लिखने की रस्में
जब आम थीं हम दिल वालों में

अब अपने फीके होंटों पर
कुछ जलते बुझते लफ़्ज़ों के
याक़ूत पिघलते रहते हैं
अब अपनी गुम-सुम आँखों में
कुछ धूल है बिखरी यादों की
कुछ गर्द-आलूद से मौसम हैं

अब धूप उगलती सोचों में
कुछ पैमाँ जलते रहते हैं
अब अपने वीराँ आँगन में
जितनी सुब्हों की चाँदी है
जितनी शामों का सोना है
उस को ख़ाकिस्तर होना है

अब ये बातें रहने दीजे
जिस उम्र में क़िस्से बनते थे
उस उम्र का ग़म सहने दीजे
अब अपनी उजड़ी आँखों में
जितनी रौशन सी रातें हैं
उस उम्र की सब सौग़ातें हैं
जिस उम्र के ख़्वाब ख़याल हुए
वो पिछली उम्र थी बीत गई
वो उम्र बिताए साल हुए

अब अपनी दीद के रस्ते में
कुछ रंग है गुज़रे लम्हों का
कुछ अश्कों की बारातें हैं
कुछ भूले-बिसरे चेहरे हैं
कुछ यादों की बरसातें हैं
ये पिछले इश्क़ की बातें हैं

~ मोहसिन नक़वी

 Oct 10, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, October 5, 2019

जंगलों का दस्तूर

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सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है 
सुना है शेर का जब पेट भर जाए तो वो हमला नहीं करता
दरख़्तों की घनी छाँव में जा कर लेट जाता है

हवा के तेज़ झोंके जब दरख़्तों को हिलाते हैं
तो मैना अपने बच्चे छोड़ कर
कव्वे के अंडों को परों से थाम लेती है

सुना है घोंसले से कोई बच्चा गिर पड़े तो सारा जंगल जाग जाता है
सुना है जब किसी नद्दी के पानी में
बए के घोंसले का गंदुमी रंग लरज़ता है
तो नद्दी की रुपहली मछलियाँ उस को पड़ोसन मान लेती हैं

*गंदुमी=गेहुँआ

कभी तूफ़ान आ जाए, कोई पुल टूट जाए तो
किसी लकड़ी के तख़्ते पर
गिलहरी, साँप, बकरी और चीता साथ होते हैं
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है

ख़ुदावंदा! जलील ओ मो'तबर! दाना ओ बीना! मुंसिफ़ ओ अकबर!
मिरे इस शहर में अब जंगलों ही का कोई क़ानून नाफ़िज़ कर!

*ख़ुदावंदा=ईश्वर;
*जलील=मोहतरम, मान्यवर; मो’तबर=भरोसेमंद;
*दाना=अक़्लमंद, सीखे हुए; बीना=दूरदृष्टि वाले
*मुंसिफ़=न्याय करने वाले; अकबर=महान
*नाफ़िज़=ज़ारी करना

~ ज़ेहरा निगाह

 Oct 05, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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कल शाम याद आया मुझे

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कल शाम याद आया मुझे!
ऐसे कि जैसे ख़्वाब था
कोने में आँगन के मिरे
गुल-चाँदनी का पेड़ था

मैं सारी सारी दोपहर
साए में उस के खेलती
फूलों को छू कर भागती
शाख़ों से मिल कर झूलती
इस के तने में बीसियों!
लोहे कि कीलें थीं जड़ी
कीलों को मत छूना कभी
ताकीद थी मुझ को यही!
ये राज़ मुझ पे फ़ाश था
इस पेड़ पर आसेब था!
इक मर्द-ए-कामिल ने मगर
ऐसा अमल उस पर किया
बाहर वो आ सकता नहीं!!
कीलों में उस को जड़ दिया
हाँ कोई कीलों को अगर
खींचेगा ऊपर की तरफ़!
आसेब भी छुट जाएगा
फूलों को भी खा जाएगा
पत्तों पे भी मँडलाएगा
फिर देखते ही देखते
ये घर का घर जल जाएगा

*आसेब=भूत प्रेत; मर्द-ए-कामिल=आदर्श पुरुष

इस सहन-ए-जिस्म-ओ-जाँ में भी
गुल चाँदनी का पेड़ है!
सब फूल मेरे साथ हैं
पत्ते मिरे हमराज़ हैं
इस पेड़ का साया मुझे!
अब भी बहुत महबूब है
इस के तने में आज तक
आसेब वो महसूर है
ये सोचती हूँ आज भी!
कीलों को गर छेड़ा कभी
आसेब भी छुट जाएगा
पत्तों से किया लेना उसे
फूलों से किया मतलब उसे
बस घर मिरा जल जाएगा
क्या घर मिरा जल जाएगा?

*सहन-ए-जिस्म-ओ-जाँ=तन मन के आँगन; आसेब=भूत-प्रेत; महसूर=घिरा हुआ

~ ज़ेहरा निगाह

 Oct 03, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, September 28, 2019

वो इक मज़दूर लड़की

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वो इक मज़दूर लड़की है
बहुत आसान है मेरे लिए उस को मना लेना

ज़रा आरास्ता (सुसज्जित) हो लूँ
मिरा आईना कहता है
किसी सब से बड़े बुत-साज़ (मूर्तिकार) का शहकार (श्रेष्ट कृति) हूँ गोया
मैं शहरों के तबस्सुम-पाश (मुस्कराते हुए) नज़्ज़ारों का पाला हूँ
मैं पर्वर्दा (पाला हुआ) हूँ बारों क़हवा-ख़ानों की फ़ज़ाओं का
मैं जब शहरों की रंगीं तितलियों को छेड़ लेता हूँ
मैं जब आरास्ता ख़ल्वत-कदों (प्राइवेट बूथ) की मेज़ पर जा कर
शराबों से भी ख़ुश-रंग फूलों को अपना ही लेता हूँ

तो फिर इक गाँव की पाली हुई मासूम सी लड़की
मिरे बस में न आएगी
भला ये कैसे मुमकिन है?
और फिर ऐसे में
जब मैं चाहता हूँ प्यार करता हूँ।

ज़रा बैठो
मैं दरिया के किनारे
धान के खेतों में हो आऊँ
यही मौसम है
जब धरती से हम रोटी उगाते हैं
तुम्हें तकलीफ़ तो होगी
हमारे झोंपड़ों में चारपाई भी नहीं होती
नहीं, मैं रुक गई
तो धान तक पानी न आएगा
हमारे गाँव में
बरसात ही तो एक मौसम है
कि जब हम
साल भर के वास्ते कुछ काम करते हैं

इधर बैठो
पराई लड़कियों को इस तरह देखा नहीं करते
ये लिपस्टिक
ये पाउडर
और ये स्कार्फ़
क्या होगा
मुझे खेतों में मज़दूरी से फ़ुर्सत ही नहीं मिलती
मिरे होंटों पे घंटों बूँद पानी की नहीं पड़ती
मिरे चेहरे मिरे बाज़ू पे लू और धूप रहती है
गले में सिर्फ़ पीतल का ये चंदन हार काफ़ी है
हवा में दिलकशी है
और फ़ज़ा सोना लुटाती है
मुझे उन से अक़ीदत (निष्ठा) है
यही मेरी मताअ' (आभूषण) मेरी नेमत है

बहुत मम्नून (कृतज्ञ) हूँ लेकिन
हुज़ूर आप अपने तोहफ़े
शहर की परियों में ले जाएँ

~ सलाम मछली शहरी


 Sep 28, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, September 22, 2019

उस शख़्स के आने के

 
इक ख़्वाब की आहट से यूँ गूँज उठीं गलियाँ
अम्बर पे खिले तारे बाग़ों में हँसें कलियाँ
सागर की ख़मोशी में इक मौज ने करवट ली
और चाँद झुका उस पर
फिर बाम हुए रौशन
खिड़की के किवाड़ों पर साया सा कोई लर्ज़ा
और तेज़ हुई धड़कन

फिर टूट गई चूड़ी, उजड़ने लगे मंज़र
इक दस्त-ए-हिनाई की दस्तक से खुला दिल में
इक रंग का दरवाज़ा
ख़ुशबू सी अजब महकी
कोयल की तरह कोई बे-नाम तमन्ना सी
फिर दूर कहीं चहकी
फिर दिल की सुराही में इक फूल खिला ताज़ा
जुगनू भी चले आए सुन शाम का आवाज़ा
और भँवरे हँसे मिल कर

हर एक सितारे की आँखों में इशारे हैं
उस शख़्स के आने के
ऐ वक़्त ज़रा थम जा
आसार ये सारे हैं उस शख़्स के आने के

~ अमजद इस्लाम अमजद


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Thursday, September 19, 2019

सज तो दी महफ़िल तिरी तेरे बग़ैर

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शम-ओ-गुल ने सज तो दी महफ़िल तिरी तेरे बग़ैर
वो रही अपनी जगह जो थी कमी तेरे बग़ैर
*शमा-ओ-गुल =शमा (दीप) और फूल

आमद-ओ-रफ़्त-ए-नफ़स दुश्वार थी तेरे बग़ैर
एक नश्तर सा चुभा जब साँस ली तेरे बग़ैर
*आमद-ओ-रफ़्त-ए-नफ़स=साँस लेना और निकालना

हो गईं थीं सब भली बातें बुरी तेरे बग़ैर
हाँ मगर अच्छी हुई तो शाइरी तेरे बग़ैर

हाए दिल जिस की उमंगें थीं बहारें बाग़ की
वो मिरी जन्नत जहन्नम बन गई तेरे बग़ैर

था बहुत मुमकिन कि बच जाती ग़म-ए-दुनिया से जान
सच तो ये है हम ने कोशिश भी न की तेरे बग़ैर

मुझ को रोने से मिले फ़ुर्सत तो फिर ढूँडूँ उसे
हँस रहा है कौन क़िस्मत का धनी तेरे बग़ैर

जाने वाले जा ख़ुदा हाफ़िज़ मगर ये सोच ले
कुछ से कुछ हो जाएगी दीवानगी तेरे बग़ैर

तेरे दीवाने भी पूजे जाएँगे इक दिन यूँ ही
हो रही है जैसे तेरी बंदगी तेरे बग़ैर

तेरा 'मंज़र' जो कभी था अंदलीब-ए-ख़ुश-नवा
खो गया दुनिया से यूँ चुप साध ली तेरे बग़ैर
*अंदलीब-ए-ख़ुश-नवा=कोयल सी मीठी आवाज़ वाला

~ मंज़र लखनवी

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Wednesday, September 18, 2019

नया आसमाँ तलाश करो

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नई ज़मीन नया आसमाँ तलाश करो
जो सत्ह-ए-आब पे हो वो मकाँ तलाश करो
*सत्ह-ए-आब=पानी की सतह पर

नगर में धूप की तेज़ी जलाए देती है
नगर से दूर कोई साएबाँ तलाश करो
*साएबाँ=मंडप

ठिठुर गया है बदन सब का बर्फ़-बारी से
दहकता खोलता आतिश-फ़िशाँ तलाश करो
*आतिश-फिशाँ=आग बरसाने वाला

हर एक लफ़्ज़ के मा'नी बहुत ही उथले हैं
इक ऐसा लफ़्ज़ जो हो बे-कराँ तलाश करो
*बे-कराँ=असीमित

बहुत दिनों से कोई हादिसा नहीं गुज़रा
किसी के ताज़ा लहू का निशाँ तलाश करो

हर एक के राज़ से वाक़िफ़ हो कह रहे हैं सभी
मिरे बदन में कोई दास्ताँ तलाश करो

~ असअ'द बदायुनी


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Sunday, September 15, 2019

मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला


अब क्या बताऊँ मैं तिरे मिलने से क्या मिला
इरफ़ान-ए-ग़म हुआ मुझे अपना पता मिला
*इरफ़ान-ए-ग़म=दुख से आलोकित हो कर

जब दूर तक न कोई फ़क़ीर-आश्ना मिला
तेरा नियाज़-मंद तिरे दर से जा मिला
*फ़क़ीर-आश्ना=भिक्षुक; नियाज़-मंद=ज़रूरत मंद

मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला
सब कुछ मुझे मिला जो तिरा नक़्श-ए-पा मिला
*नक़्श-ए-पा=पैरों के निशान

ख़ुद-बीन-ओ-ख़ुद-शनास मिला ख़ुद-नुमा मिला
इंसाँ के भेस में मुझे अक्सर ख़ुदा मिला

सरगश्ता-ए-जमाल की हैरानियाँ न पूछ
हर ज़र्रे के हिजाब में इक आइना मिला

पाया तुझे हुदूद-ए-तअय्युन से मावरा
मंज़िल से कुछ निकल के तिरा रास्ता मिला

क्यूँ ये ख़ुदा के ढूँडने वाले हैं ना-मुराद
गुज़रा मैं जब हुदूद-ए-ख़ुदी से ख़ुदा मिला

ये एक ही तो ने'मत-ए-इंसाँ-नवाज़ थी
दिल मुझ को मिल गया तो ख़ुदाई को क्या मिला

या ज़ख़्म-ए-दिल को छील के सीने से फेंक दे
या ए'तिराफ़ कर कि निशान-ए-वफ़ा मिला

'सीमाब' को शगुफ़्ता न देखा तमाम उम्र
कम-बख़्त जब मिला हमें ग़म-आश्ना मिला

~ सीमाब अकबराबादी


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Saturday, September 14, 2019

करो अपनी भाषा पर प्यार

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करो अपनी भाषा पर प्यार,
जिसके बिना मूक रहते तुम, रुकते सब व्यवहार।

जिसमें पुत्र पिता कहता है, पत्नी प्राणाधार,
और प्रकट करते हो जिसमें तुम निज निखिल विचार,
बढ़ायो बस उसका विस्तार,
करो अपनी भाषा पर प्यार।

भाषा विना व्यर्थ ही जाता ईश्वरीय भी ज्ञान,
सब दानों से बहुत बड़ा है ईश्वर का यह दान,
असंख्यक हैं इसके उपकार,
करो अपनी भाषा पर प्यार।

यही पूर्वजों का देती है तुमको ज्ञान-प्रसाद,
और तुमहारा भी भविष्य को देगी शुभ संवाद,
बनाओ इसे गले का हार,
करो अपनी भाषा पर प्यार।

~ मैथिलीशरण गुप्त

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Sunday, September 8, 2019

अपनी तन्हाई

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घंटियाँ गूँज उठीं गूँज उठीं
गैस बेकार जलाते हो बुझा दो बर्नर
अपनी चीज़ों को उठा कर रक्खो
जाओ घर जाओ लगा दो ये किवाड़
एक नीली सी हसीं रंग की कॉपी ले कर
मैं यहाँ घर को चला आता हूँ
एक सिगरेट को सुलगाता हूँ

वो मिरी आस में बैठी होगी
वो मिरी राह भी तकती होगी
क्यूँ अभी तक नहीं आए आख़िर
सोचते सोचते थक जाएगी
घबराएगी
और जब दूर से देखेगी तो खिल जाएगी
उस के जज़्बात छलक उट्ठेंगे
उस का सीना भी धड़क उट्ठेगा
उस की बाँहों में नया ख़ून सिमट आएगा
उस के माथे पे नई सुब्ह उभरती होगी
उस के होंटों पे नए गीत लरज़ते होंगे
उस की आँखों में नया हुस्न निखर आएगा
एक तर्ग़ीब (उत्तेजना) नज़र आएगी
उस के होंटों के सभी गीत चुरा ही लूँगा

ओह क्या सोच रहा हूँ मुझे कुछ याद नहीं
मैं तसव्वुर में घरौंदे तो बना लेता हूँ
अपनी तन्हाई को पर्दों में छुपा लेता हूँ

~ अख़्तर पयामी


 Sep 8, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, September 6, 2019

अभी तो मैं जवान हूँ


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अभी तो मैं जवान हूँ
जवान हो तो ज़िंदगी की नब्ज़ गुदगुदा तो दो
जवान हो तो वक़्त की सियाहियाँ मिटा तो दो
ये आग लग रही है क्यूँ उसे ज़रा बुझा तो दो

*सियाहियाँ=कालिखें

अभी तो मैं जवान हूँ
जवान हो तो आँधियों से डर रहे हो किस लिए
जवान हो तो बे-कसी से मर रहे हो किस लिए
उरूस-ए-नौ की तरह तुम सँवर रहे हो किस लिए

*बे-कसी=लाचारी; उरूस-ए-नौ=नई दुल्हन

अभी तो मैं जवान हूँ
जवान हो तो शीशा-ओ-शराब ज़िंदगी नहीं
जवान हो तो ज़िंदगी में सिर्फ़ इक हँसी नहीं
फ़लक पे बदलियाँ भी हैं फ़लक पे चाँदनी नहीं

*शीशा-ओ-शराब=शराब और प्याला

अभी तो मैं जवान हूँ
जवान हो तो हो गए हो ज़िंदगी पे बार क्यूँ
जवान हो तो दर ही से पलट गई बहार क्यूँ
दिमाग़ हसरतों का है बना हुआ मज़ार क्यूँ

अभी तो मैं जवान हूँ
जवान हो तो ज़िंदगी से काम ले के बढ़ चलो
जवान हो तो हुर्रियत का नाम ले के बढ़ चलो
दयार-ए-इंक़लाब का पयाम ले के बढ़ चलो

*हुर्रियत=स्वतंत्रता; दयार-ए-इंक़लाब=देश

~ अख़्तर पयामी

 Sep 6, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, September 1, 2019

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो

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ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो

दरख़्त हैं तो परिंदे नज़र नहीं आते
वो मुस्तहिक़ हैं वही हक़ से बे-दख़ल लोगो
* मुस्तहिक़=हक़दार

वो घर में मेज़ पे कुहनी टिकाए बैठे हैं
थमी हुई है वहीं उम्र आज-कल लोगो

किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नक़ल लोगो

तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
किसी की नींद में गड़ता रहा ख़लल लोगो

ज़रूर वो भी इसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम-शकल लोगो

दिखे जो पावँ के ताज़ा निशान सहरा में
तो याद आए हैं तालाब के कँवल लोगो

वे कह रहे हैं ग़ज़ल-गो नहीं रहे शाएर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सम्त से ग़ज़ल लोगो

~ दुष्यंत कुमार

 Sep 1, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, August 31, 2019

फूल की ख़ुशबू


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फूल की ख़ुशबू हँसती आई
मेरे बसेरे को महकाने
मैं ख़ुशबू में ख़ुशबू मुझ में
उस को मैं जानूँ मुझ को वो जाने
मुझ से छू कर मुझ में बस कर
इस की बहारें उस के ज़माने
लाखों फूलों की महकारें
रखते हैं गुलशन वीराने
मुझ से अलग हैं मुझ से जुदा हैं
मैं बेगाना वो बेगाने

उन को बिखेरा उन को उड़ाया
दस्त-ए-ख़िज़ाँ ने मौज-ए-सबा ने
भूला-भटका नादाँ क़तरा
आँखों की पुतली को सजाने
आँसू बन कर दौड़ा आया
मेरी पलकें उस के ठिकाने
उस का थिरकना, उस का तड़पना
मेरे क़िस्से मेरे फ़साने
उस की हस्ती मेरी हस्ती
उस के मोती मेरे ख़ज़ाने
बाक़ी सारे गौहर-पारे
ख़ाक के ज़र्रे रेत के दाने

पर्बत की ऊँची चोटी से
दामन फैलाया जो घटा ने
ठंडी हवा के ठंडे झोंके
बे-ख़ुद आवारा मस्ताने
अपनी ठंडक ले कर आए
मेरी आग में घुल-मिल जाने
उन की हस्ती का पैराहन
मेरी साँस के ताने-बाने
उन के झकोले मेरी उमंगें
उन की नवाएँ मेरे तराने
बाक़ी सारे तूफ़ानों को
जज़्ब किया पहना-ए-फ़ज़ा ने

फ़ितरत की ये गूनागूनी
गुलशन बिन वादी वीराने
काँटे कलियाँ नूर अंधेरा
अंजुमनें शमएँ परवाने
लाखों शातिर लाखों मोहरे
फैले हैं शतरंज के ख़ाने
जानता हूँ मैं ये सब क्या हैं
सहबा से ख़ाली पैमाने
भूकी मिट्टी को सौंपे हैं
दुनिया ने अपने नज़राने
जिस ने मेरा दामन थामा
आया जो मुझ में बस जाने
मेरे तूफ़ानों में बहने
मेरी मौजों में लहराने

मेरे सोज़-ए-दिल की लौ से
अपने मन की जोत जगाने
ज़ीस्त की पहनाई में फैले
मौत की गीराई को न जाने
उस का बरबत मेरे नग़्मे
उस के गेसू मेरे शाने
मेरी नज़रें उस की दुनिया
मेरी साँसें उस के ज़माने

~ मजीद अमजद

 Feb 15, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, August 30, 2019

कौन सोचे



कौन सोचे कि
सूरज के हाथों में क्या है
हवाओं की तहरीर पढ़ने की
फ़ुर्सत किसी को नहीं
कौन ढूँडे
फ़ज़ाओं में तहलील रस्ता
कौन गुज़रे
सोच के साहिलों से
ख़्वाहिशों की सुलगती हुई रेत को
कौन हाथों में ले
कौन उतरे
समुंदर की गहराइयों में
चाँदनी की जवाँ उँगलियों में
उँगलियाँ कौन डाले
कौन समझे
मिरे फ़लसफ़े को
जल्द ही ये सफ़र ख़त्म होने को है
किसी बेनाम-ओ-निशाँ लम्हे में दिल चाहता है

दूरियाँ बस मिरी मुट्ठी में सिमट कर रह जाएँ
डोरियाँ ख़ेमा-ए-तन्हाई की कट कर रह जाएँ 

*बेनाम-ओ-निशाँ=पहचान रहित;  ख़ेमा-ए-तन्हाई= अकेलेपन का डेरा


~ असअ'द बदायुनी


 Aug 30, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, August 24, 2019

किस ओर मैं, किस ओर मैं

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किस ओर मैं, किस ओर मैं!

है एक ओर असित निशा,
है एक ओर अरुण दिशा,
पर आज स्‍वप्‍नों में फँसा, यह भी नहीं मैं जानता
किस ओर मैं, किस ओर मैं!

है एक ओर अगम्‍य जल,
है एक ओर सुरम्‍य थल,
पर आज लहरों से ग्रसा, यह भी नहीं मैं जानता
किस ओर मैं, किस ओर मैं!

है हार ऐक तरफ पड़ी,
है जीत ऐक तरफ खड़ी,
संघर्ष-जीवन में धँसा, यह भी नहीं मैं जानता।
किस ओर मैं, किस ओर मैं!

~ हरिवंशराय बच्चन

 Aug 24, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, August 23, 2019

आजु दिन कान्ह आगमन




आजु दिन कान्ह आगमन के बधाए सुनि ,
छाए मग फूलन सुहाए थल थल के।
कहैँ पदमाकर त्योँ आरती उतारिबे को ,
थारन मे दीप हीरा हारन के छलके।
कंचन के कलस भराए भूरि पन्नन के ,
ताने तुँग तोरन तहाँई झलाझल के।
पौर के दुवारे तैँ लगाय केलि मँदिर लौ,
पदमिनि पांवडे पसारे मखमल के।

~ पद्माकर

 Aug 23, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, August 18, 2019

मेरा वतन हिन्दोस्ताँ

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मेरा वतन हिन्दोस्ताँ 
हर राह जिस की कहकशाँ
कोह-ए-गिराँ से कम नहीं जिस के जियाले नौजवाँ
ये वीर-ओ-गौतम की ज़मीं अमन-ओ-अहिंसा का चमन
अकबर के ख़्वाबों का जहाँ चिश्ती-ओ-नानक का वतन
शमएँ हज़ारों हैं मगर है एकता की अंजुमन
तहज़ीब का गहवारा हैं गंग-ओ-जमन की वादियाँ
मेरा वतन हिन्दोस्ताँ

तारीख़ की अज़्मत है ये जम्हूरियत की शान है
रूहानियत की रूह है सब मज़हबों की जान है
ये अपना हिन्दोस्तान है ये अपना हिन्दोस्तान है
हासिल यहाँ इंसान को हर तरह की आज़ादियाँ
मेरा वतन हिन्दोस्ताँ

जब दिल से दिल मिलते गए मिटते गए सब फ़ासले
ये आज का नग़्मा नहीं सदियों के हैं ये सिलसिले
सदियों से मिल कर ही बढ़े सब अहल-ए-दिल के क़ाफ़िले
इक साथ उठती है यहाँ आवाज़-ए-नाक़ूस-ओ-अज़ाँ
मेरा वतन हिन्दोस्ताँ

तारीख़ के इस मोड़ पर हम फ़र्ज़ से ग़ाफ़िल नहीं
क़ाबू न जिस पर पा सकें ऐसी कोई मुश्किल नहीं
जिस को न हम सर कर सकें ऐसी कोई मंज़िल नहीं
हाँ बाँकपन की शान से है कारवाँ अपना रवाँ
मेरा वतन हिन्दोस्ताँ

~ रिफ़अत सरोश

 Aug 18, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh