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Thursday, January 28, 2016

आँख और ख़्वाब में एक रात की

आँख और ख़्वाब में एक रात की दूरी रखना
ऐ मुस्सव्विर मेरी तस्वीर अधूरी रखना
अब के तकमील जो करना कोई रिश्तों का निज़ाम
दुश्मनी के भी कुछ आदाब ज़रूरी रखना

*मुस्सव्विर=तस्वीर बनाने वाला; तकमील=पूर्णता ;
निज़ाम=प्रबन्ध, व्यवस्था; आदाब=शिष्टाचार

~ मेराज़ फ़ैज़ाबादी

  Jan 28, 2016| e-kavya.blogspot.com
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हर शम्मा बुझी रफ़्ता रफ़्ता


हर शम्मा बुझी रफ़्ता रफ़्ता
हर ख्वाब लुटा धीरे धीरे
शीशा न सही, पत्थर भी न था
दिल टूट गया धीरे धीरे

बरसों में मरासिम बनते हैं
लम्हों में भला क्या टूटेंगे
तू मुझसे बिछड़ना चाहे तो
दीवार उठा धीरे धीरे
*मरासिम=रिश्ते

एहसास हुआ बर्बादी का
जब सारे घर में धूल उड़ी
आई है हमारे आँगन में
पतझड़ की हवा धीरे धीरे

दिल कैसे जला किस वक़्त जला
हमको भी पता आखिर में चला
फैला है धुंआ चुपके चुपके
सुलगी है चिता धीरे धीरे

वो हाथ पराये हो भी गए
अब दूर का रिश्ता है क़ैसर
आती है मेरी तन्हाई में
खुशबू-ऐ-हिना धीरे धीरे

~ क़ैसर-उल जाफ़री


  Jan 28, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, January 27, 2016

पत्ती पत्ती ने एहतराम किया

पत्ती पत्ती ने एहतराम किया
झुक के हर शाख ने सलाम किया
बढ़ के फूलों ने पाँव चूम लिए
तुमने जब बाग़ में खिराम किया।

*एहतराम=आदर; खिराम=धीरे धीरे चलना या टहलना

~ राजेंद्रनाथ रहबर

  Jan 27, 2016| e-kavya.blogspot.com
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घर जो लौटे भी सर-ऐ-शाम तो

घर जो लौटे भी सर-ऐ-शाम तो कुछ पास न था
दिन से परछाईं मिली थी सो कहीं छूट गई
बूद-ओ-बाश अपनी न पूछो कि इसी शहर में हम
सादगी गाँव की लाये थे, यहीं छूट गई।

*सर-ए-शाम=शाम होने पर; बूद-ओ-बाश=ठौर-ठिकाना

~ शहाब जाफ़री

  Jan 26, 2016| e-kavya.blogspot.com
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ज़िन्दगीकी तवील राहों में

ज़िन्दगीकी तवील राहों में
मुतलक़न पेचो-ख़म नहीं होंगे
एक ऐसा भी वक़्त आयेगा
जब यह दैरो-हरम नहीं होंगे

*तवील राहों में=लम्बे मार्गों में; मुतलक़न=कदापि; पेचो-ख़म=घुमाव- फिराव; दैरो-हरम=मन्दिर-मस्जिद

~ नरेश कुमार शाद

  Jan 25, 2016| e-kavya.blogspot.com
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मलामत की आख़िर कोई हद भी है,

मलामत की आख़िर कोई हद भी है,
बस अब कुछ न कहिए बहुत हो गया।

*मलामत=निंदा

~ फ़िराक़

  Jan 24, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, January 24, 2016

कैसे हाल लिखूँ अपना रे!

 
कैसे हाल लिखूँ अपना रे!
तब सपनों से भरी नींद थी
अब खुद नींद हुई सपना रे!

हलचल में मन सो जाता है
पर सूने में घबड़ाता है
दिन में सूरज एक जलाता
किन्तु रात में अगणित तारे!

पत्थर जल पर तर जाता है
दंश सर्प का झड़ जाता है
किन्तु डँसा तो गया अमृत से
उसके विष को कौन उतारे!

जाकर दूर, पास तुम आई
मधुर दूर से ज्यों शहनाई
परदेशी दिन-रैन बन गया
और प्राण परदेश बना रे!

जग क्या पाया, सो क्या खोया
रो-रो हँसा, कि हँस-हँस रोया
बहुत देर तक जगना-सोना
दोनो करते दृग रतनारे (लाल)!

~ श्यामनन्दन किशोर

  Jan 24, 2016| e-kavya.blogspot.com
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है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम

है कहाँ तमन्ना का दूसरा क़दम या रब
हम ने दश्त-ए-इम्काँ को एक नक़्श-ए-पा पाया

*दश्त-ए-इम्काँ=संभावनाओं का रेगिस्तान; नक़्श-ए-पा=पदचिन्ह

~ मिर्ज़ा ग़ालिब

  Jan 23, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, January 23, 2016

सोचा नहीं अच्छा बुरा



सोचा नहीं अच्छा बुरा, देखा सुना कुछ भी नहीं
मांगा ख़ुदा से रात दिन, तेरे सिवा कुछ भी नहीं

देखा तुझे, सोचा तुझे, चाहा तुझे, पूजा तुझे
मेरी ख़ता मेरी वफ़ा, तेरी ख़ता कुछ भी नहीं

जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं

इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक
आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं

दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा
जब आग पर काग़ज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं

अहसास की ख़ुशबू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ
ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं

~ बशीर बद्र


  Jan 23, 2016| e-kavya.blogspot.com
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तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई

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तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए,
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए।
*तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ू=दुखी/ व्यथित दिल को आराम; सई=कोशिश; करम=कृपा

हम अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके, कुछ कह न सके कुछ सुन न सके,
यां हम ने ज़बाँ ही खोली थी, वां आँख झुकी शर्मा भी गए।

*अर्ज़-ए-वफ़ा=वादा पूरा करने का निवेदन

अशुफ्तगी-ए-वहशत की कसम, हैरत की कसम, हसरत की कसम,
अब आप कहे कुछ या न कहे हम राज़-ए-तबस्सुम पा भी गए।

*अशुफ्तगी-ए-वहशत = दीवानगी की घबराहट; राज़-ए-तबस्सुम=मुस्कराहट का रहस्य

रुदाद-ए-गम-ए-उल्फत उन से, हम क्या कहते क्यूँकर कहते,
एक हर्फ़ न निकला होटों से और आँख में आंसूं आ भी गए।

*रुदाद-ए-गम-ए-उल्फत=प्यार के दर्द की कहानी; हर्फ़=शब्द

अरबाब-ए-जुनूँ पे फुरकत में, अब क्या कहिये क्या क्या गुजरा,
आये थे सवाद-ए-उल्फत में, कुछ खो भी गए कुछ पा भी गए।

*अरबाब-ए-जुनूँ=उन्माद की अवस्था में; फुरकत=जुदाई; सवाद-ए-उल्फत=प्यार की गली

ये रंग-ए-बहार-ए-आलम है, क्या फिक्र है तुझ को ऐ साकी,
महफ़िल तो तेरी सूनी न हुई, कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए।

इस महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफानी में,
सब ज़ाम-ब-क़फ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए।

*महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती=ख़ुशी और आनंद की महफ़िल; अंजुमन-ए-इरफानी=ज्ञानियों की सभा; ज़ाम-ब-क़फ=जाम हाथ में लेकर बैठना

~ असरार-उल-हक़ मजाज़


  Jan 22, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, January 20, 2016

दीप की लौ अभी ऊँची

दीप की लौ अभी ऊँची - अभी नीची
पवन की घन वेदना, रुक आँख मीची
अन्धकार अवंध, हो हल्का की गहरा
मुक्त कारागार में हूँ, तुम कहाँ हो!
मैं मगन मझधार में हूँ, तुम कहाँ हो!

~ जानकी बल्लभ शास्त्री

  Jan 20, 2016| e-kavya.blogspot.com
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बंद होंठों में छुपा लो



बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।

हैं हवा के पास
अनगिन आरियाँ
कटखने तूफान की
तैयारियाँ
कर न देना आँधियों को
रोकने की भूल
वर्ना रो पड़ोगे।

हर नदी पर
अब प्रलय के खेल हैं
हर लहर के ढंग भी
बेमेल हैं
फेंक मत देना नदी पर
निज व्यथा की धूल
वर्ना रो पड़ोगे।

बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।

~ कुँवर बेचैन


  Jan 20, 2016| e-kavya.blogspot.com
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ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी

ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है,
हुये तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो।

*फ़ित्ना=उपद्रव; ख़ाना-वीरानी=घर की तबाही

~ ग़ालिब

  Jan 18, 2016| e-kavya.blogspot.com
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निकालूँ किस तरह सीने से

निकालूँ किस तरह सीने से अपने तीरे-जानाँ को,
न पैकाँ दिल को छोड़े है, न दिल छोड़े है पैकाँ को।

*पैकाँ=तीर की नोक

~ शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

  Jan 19, 2016| e-kavya.blogspot.com
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मज़ा आता अगर गुज़री हुयी

मज़ा आता अगर गुज़री हुयी बातों का अफ़साना
कहीं से तुम बयाँ करतीं, कहीं से हम बयाँ करते।

~ वहशत

  Jan 17, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, January 17, 2016

मृत्तिका का दीप तब तक जलेगा




मृत्तिका का दीप तब तक जलेगा अनिमेष
एक भी कण स्नेह का जब तक रहेगा शेष ।
*मृत्तिका=मिट्टी

हाय जी भर देख लेने दो मुझे
मत आँख मीचो
और उकसाते रहो बाती
न अपने हाथ खींचो
प्रात जीवन का दिखा दो
फिर मुझे चाहे बुझा दो
यों अंधेरे में न छीनो-
हाय जीवन-ज्योति के कुछ क्षीण कण अवशेष ।

तोड़ते हो क्यों भला
जर्जर रूई का जीर्ण धागा
भूल कर भी तो कभी
मैंने न कुछ वरदान माँगा
स्नेह की बूँदें चुवाओ
जी करे जितना जलाओ
हाथ उर पर धर बताओ
क्या मिलेगा देख मेरा धूम्र कालिख वेश ।

शांति, शीतलता, अपरिचित
जलन में ही जन्म पाया
स्नेह आँचल के सहारे
ही तुम्हारे द्वार आया
और फिर भी मूक हो तुम
यदि यही तो फूँक दो तुम
फिर किसे निर्वाण का भय
जब अमर ही हो चुकेगा जलन का संदेश ।

- शिवमंगल सिंह सुमन


  Jan 15, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Friday, January 15, 2016

तुम्हारे हाथ से टंक कर



तुम्हारे हाथ से टंक कर
बने हीरे, बने मोती
बटन मेरी कमीज़ों के ।

नयन का जागरण देतीं,
नहाई देह की छुअनें
कभी भीगी हुई अलकें
कभी ये चुंबनों के फूल
केसर गंध सी पलकें,
सवेरे ही सपन झूले
बने ये सावनी लोचन
कई त्यौहार तीजों के ।

बनी झंकार वीणा की
तुम्हारी चूड़ियों के हाथ में
यह चाय की प्याली,
थकावट की चिलकती धूप को
दो नैन हरियाली
तुम्हारी दृष्टियाँ छूकर
उभरने और जयादा लग गए हैं
रंग चीज़ों के ।

~ कुँअर बेचैन

 
  Jan 15, 2016| e-kavya.blogspot.com
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तुम चली जाओगी, परछाइयाँ..



तुम चली जाओगी परछाइयाँ रह जाएगी
कुछ ना कुछ हुस्न की रानाइयाँ रह जाएगी
*रानाइयाँ=खूबसूरतियाँ

तुम तो इस झील के साहिल पे मिली हो मुझसे
जब भी देखूँगा यहीं मुझ को नज़र आओगी
याद मिटती है ना मंज़र कोई मिट सकता है
दूर जाकर भी तुम अपने को यहीं पाओगी
*साहिल=किनारा; मंज़र=दृश्य

घुल के रह जाएगी झोंकों में बदन की खुश्बू
ज़ुल्फ़ का अक्स घटाओं में रहेगा सदियों
फूल चुपके से चुरा लेंगे लबों की सुर्खी
ये जवां हुस्न फ़िज़ाओं में रहेगा सदियों
*अक्स=परछाईं, प्रतिबिंब

इस धड़कती हुई शादाब ओ हसीन वादी में
यह ना समझो की ज़रा देर का किस्सा हो तुम
अब हमेशा के लिए मेरे मुक़द्दर की तरह
इन नज़रों के मुक़द्दर का भी हिस्सा हो तुम
*शादाब=हराभरा, सरसब्ज

तुम चली जाओगी परछाइयाँ रह जाएगी
कुछ ना कुछ हुस्न की रानाइयाँ रह जाएगी

~ साहिर लुधियानवी


  Jan 14, 2016| e-kavya.blogspot.com
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हर नाम पे नहीं रुका करती

हर नाम पे नहीं रुका करती हैं जनाब,
धड़कनों के भी कुछ अपने उसूल होते हैं

~ नामालूम

  Jan 13, 2016| e-kavya.blogspot.com
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गिरते हैं शहसवार ही

गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में
वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले

*शहसवार =घुड़-सवार; मैदान-ए-जंग=युद्ध भूमि; तिफ़्ल=छोटा बच्चा

~ अज़ीम बेग अज़ीम

  Jan 12, 2016| e-kavya.blogspot.com
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ऐ परिंदों, किसी शाम उड़ते हुये



ऐ परिंदों, किसी शाम उड़ते हुये
रास्ते में अगर वो नज़र आए तो
गीत बारिश का कोई सुनाना उसे

ऐ सितारों, यूं ही झिलमिलाते हुये
उसका चेहरा दरीचे में आ जाये तो
बादलों को बुला कर दिखाना उसे
*दरीचे=खिड़की

ऐ हवा, जब उसे नींद आने लगे
रात अपने ठिकाने पे जाने लगे
उसके चेहरे को छू कर जगाना उसे

ख़्वाब से जब वो बेदार होने लगे
फूल बादलों में अपने पिरोने लगे
मेरे बारे में कुछ न बताना उसे।
*बेदार=सचेत

~ ज़ीशान साहिल


  Jan 12, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Monday, January 11, 2016

क्या बताऊँ किस क़दर ज़ंजीर

क्या बताऊँ किस क़दर ज़ंजीर-ए-पा साबित हुये,
चंद तिनके जिन को अपना आशियाँ समझा था मैं।

*ज़ंजीर-ए-पा=पैरों की बेड़ी

~ जिगर मुरादाबादी

  Jan 11, 2016| e-kavya.blogspot.com
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ले गया कौन गुलिस्ताँ से चुरा



ले गया कौन गुलिस्ताँ से चुरा कर खुशबू
फूल खिलते तो है पहले सी वो बू-बात नहीं

है फज़ाओं पे वही धुंध की चादर सी तनी
दिन तो निकला है मगर सुबह का एहसास नहीं

मुद्दते हो गयीं कंगाल हुआ फिरता हूँ
अब तेरी यादों की ख़ुशबू भी मेरे पास नहीं

~ कलीम उसमानी

  Jan 10, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, January 9, 2016

मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा।



तू चाहे चंचलता कह ले,
तू चाहे दुर्बलता कह ले,
दिल ने ज्यों ही मजबूर किया, मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा।

यह प्यार दिए का तेल नहीं,
दो चार घड़ी का खेल नहीं,
यह तो कृपाण की धारा है,
कोई गुड़ियों का खेल नहीं।
तू चाहे नादानी कह ले,
तू चाहे मनमानी कह ले,
मैंने जो भी रेखा खींची, तेरी तस्वीर बना बैठा।

मैं चातक हूँ तू बादल है,
मैं लोचन हूँ तू काजल है,
मैं आँसू हूँ तू आँचल है,
मैं प्यासा तू गंगाजल है।
तू चाहे दीवाना कह ले,
या अल्हड़ मस्ताना कह ले,
जिसने मेरा परिचय पूछा, मैं तेरा नाम बता बैठा।

सारा मदिरालय घूम गया,
प्याले प्याले को चूम गया,
पर जब तूने घूँघट खोला,
मैं बिना पिए ही झूम गया।
तू चाहे पागलपन कह ले,
तू चाहे तो पूजन कह ले,
मंदिर के जब भी द्वार खुले, मैं तेरी अलख जगा बैठा।

मैं प्यासा घट पनघट का हूँ,
जीवन भर दर दर भटका हूँ,
कुछ की बाहों में अटका हूँ,
कुछ की आँखों में खटका हूँ।
तू चाहे पछतावा कह ले,
या मन का बहलावा कह ले,
दुनिया ने जो भी दर्द दिया, मैं तेरा गीत बना बैठा।

मैं अब तक जान न पाया हूँ,
क्यों तुझसे मिलने आया हूँ,
तू मेरे दिल की धड़कन में,
मैं तेरे दर्पण की छाया हूँ।
तू चाहे तो सपना कह ले,
या अनहोनी घटना कह ले,
मैं जिस पथ पर भी चल निकला, तेरे ही दर पर जा बैठा।

मैं उर की पीड़ा सह न सकूँ,
कुछ कहना चाहूँ, कह न सकूँ,
ज्वाला बनकर भी रह न सकूँ,
आँसू बनकर भी बह न सकूँ।
तू चाहे तो रोगी कह ले,
या मतवाला जोगी कह ले,
मैं तुझे याद करते-करते, अपना भी होश भुला बैठा।

तू चाहे चंचलता कह ले,
तू चाहे दुर्बलता कह ले,
दिल ने ज्यों ही मजबूर किया, मैं तुझसे प्रीत लगा बैठा।

~ उदयभानु हंस


  Jan 9, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Friday, January 8, 2016

कितनी दूरियों से कितनी बार


कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूं
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।

कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लान्त –-
ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार ...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज
मुझे खींच कर ले गए हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहां नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश –-
जिस में कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं, तथ्य, तथ्य -– तथ्य –-
सत्य नहीं, अन्तहीन सच्चाइयां –-
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त –-
कितनी बार !

~ अज्ञेय, 

  Aug 24, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

जियेंगे मगर मुस्कुरा ना सकेंगे



जियेंगे मगर मुस्कुरा ना सकेंगे,
कि अब ज़िन्दगी में मोहब्बत नहीं है
लबों पे तराने अब आ ना सकेंगे,
कि अब ज़िन्दगी में मोहब्बत नहीं है

बहारें चमन में जब आया करेंगी,
नज़ारों की महफ़िल सजाया करेंगी
नज़ारें भी हमको हँसा ना सकेंगे,
कि अब ज़िन्दगी में मोहब्बत नहीं है

जवानी जो लायेगी सावन की रातें,
ज़माना करेगा मोहब्बत की बातें
मगर हम ये सावन मना ना सकेंगे,
कि अब ज़िन्दगी में मोहब्बत नहीं है

~ कैफ़ इरफ़ानी


  Jan 8, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh


A rare gem by Mukesh ji:
https://www.youtube.com/watch?v=i8SBOchJtH0

बर्बाद गुलिस्ताँ करने को

बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था
हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा

~ शौक़ बहराइची

  Jan 7, 2016| e-kavya.blogspot.com
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नज़र मुझसे मिलाती हो

 
नज़र मुझसे मिलाती हो तो तुम शरमा-सी जाती हो
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।

जबाँ ख़ामोश है लेकिन निग़ाहें बात करती हैं
अदाएँ लाख भी रोको अदाएँ बात करती हैं।
नज़र नीची किए दाँतों में उँगली को दबाती हो।
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।

छुपाने से मेरी जानम कहीं क्या प्यार छुपता है
ये ऐसा मुश्क है ख़ुशबू हमेशा देता रहता है।
तुम तो सब जानती हो फिर भी क्यों मुझको सताती हो?
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।

तुम्हारे प्यार का ऐसे हमें इज़हार मिलता है
हमारा नाम सुनते ही तुम्हारा रंग खिलता है
और फिर साज़-ए-दिल पे तुम हमारे गीत गाती हो।
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।

तुम्हारे घर में जब आऊँ तो छुप जाती हो परदे में
मुझे जब देख ना पाओ तो घबराती हो परदे में
ख़ुद ही चिलमन उठा कर फिर इशारों से बुलाती हो।
इसी को प्यार कहते हैं, इसी को प्यार कहते हैं।

~ हसरत जयपुरी


  Jan 6, 2016 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बेपैकर ख़ुशबू के साथ भटकते हो

तशख़ीश:

बेपैकर ख़ुशबू के साथ भटकते हो
और शिकायत करते हो तनहाई की
तुम नादाँ हो, जीना तुमको नहीं आता
इससे ज़ियादा कुछ न कहेंगे लब मेरे।

*तशख़ीश=पहचान; बेपैकर=काया-रहित

~ शहरयार


  Jan 5, 2016| e-kavya.blogspot.com
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चाँदनी की कहीं सरकार नहीं होती

चाँदनी की कहीं सरकार नहीं होती है
फूल के हाथ में तलवार नहीं होती है
जीत होती न कभी युद्ध के मैदानों में
प्यार की हार कभी हार नहीं होती है।

~ गुलाब खंडेलवाल

  Jan 4, 2016| e-kavya.blogspot.com
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कैसी रचना! कैसा विधान!



कैसी रचना! कैसा विधान!

हम निखिल सृष्टि के रत्न-मुकुट,
हम चित्रकार के रुचिर चित्र,
विधि के सुन्दरतम स्वप्न, कला
की चरम सृष्टि, भावुक, पवित्र।

हम कोमल, कान्त प्रकृति-कुमार,
हम मानव, हम शोभा-निधान,
जानें किस्मत में लिखा हाय,
विधि ने क्यों दुख का उपाख्यान?
कैसी रचना! कैसा विधान!

कलियों को दी मुस्कान मधुर,
कुसुमों को आजीवन सुहास,
नदियों को केवल इठलाना,
निर्झर को कम्पित स्वर-विलास।

वन-मृग को शैलतटी-विचरण,
खग-कुल को कूजन, मधुर तान,
सब हँसी-खुशी बँट गई,
रूदन अपनी किस्मत में पड़ा आन।
कैसी रचना! कैसा विधान!

खग-मृग आनन्द-विहार करें,
तृण-तृण झूमें सुख में विभोर,
हम सुख-वंचित, चिन्तित, उदास
क्यों निशि-वासर श्रम करें घोर?

अविराम कार्य, नित चित्त-क्लान्ति,
चिन्ता का गुरु अभिराम भार,
दुर्वह मानवता हुई; कौन
कर सकता मुक्त हमें उदार?

चारों दिशि ज्वाला-सिन्धु घिरा,
धू-धू करतीं लपटें अपार,
बन्दी हम व्याकुल तड़प रहे
जानें किस प्रभुवर को पुकार?

मानवता की दुर्गति देखें,
कोई सुन ले यह आर्त्तनाद,
कोई कह दे, क्यों आन पड़ा
हम पर ही यह सारा विषाद?

उपचार कौन? रे ! क्या निदान?
कैसी रचना! कैसा विधान!

~ रामधारी सिंह दिनकर


  Jan 3, 2016| e-kavya.blogspot.com
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कुछ उनके जाने वाले मरासम

कुछ उनके जाने वाले मरासम की तल्ख़ याद
कुछ उनकी आने वाली मुलाक़ात की खुशी
हम-से ख़राब हालों से पूछे कोई ज़रा
क्या चीज़ है ख़राबिए-हालात की खुशी।

*मरासम=रिश्ते

~ अब्दुल हमीद अदम

  Jan 2, 2016| e-kavya.blogspot.com
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आज इक और बरस बीत गया

आज इक और बरस बीत गया उस के बगैर
जिस के होते हुये, होते थे ज़माने मेरे।

~ अहमद फराज़

  Jan 2, 2016| e-kavya.blogspot.com
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अगर अपना कहा तुम आप ही समझे

अगर अपना कहा तुम आप ही समझे तो क्या समझे
मज़ा कहने का जब है इक कहे और दूसरा समझे

~ ऐश देहलवी

  Jan 1, 2016| e-kavya.blogspot.com
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मुबारक मुबारक नया साल सब को




मुबारक मुबारक नया साल सब को
न चाहा था हम ने तू हम से जुदा हो
मगर किस ने रोका है बहती हवा को
जो हम चाहते हैं वो कैसे भला हो
ऐ जाते बरस तुझ को सौंपा ख़ुदा को
मुबारक मुबारक नया साल सब को

मुबारक घड़ी में ये हम अहद कर लें
ब-सद-शान हम ज़िंदगी में सँवर लें
गुलों की तरह गुलिस्ताँ में निखर लें
बनें हम भी सूरज गगन में उभर लें
मुबारक मुबारक नया साल सब को

अँधेरों ने लूटी उजालों की दौलत
उड़ा ले गया वक़्त इक ख़्वाब-ए-राहत
न लौटेगी बीती हुई कोई साअत
जो अब भी न जागे तो होगी क़यामत
मुबारक मुबारक नया साल सब को

*अहद=वादा; ख़्वाब-ए-राहत=सुकून के सपने; साअत=क्षण, पल

उमीदें हैं राहें अज़ाएम सवारी
ख़बर दे रही है ये बाद-ए-बहारी
महकती हुयी मंज़िलें प्यारी प्यारी
कि सदियों से तकती हैं राहें हमारी
मुबारक मुबारक नया साल सब को
मुबारक मुबारक नया साल सब को

*अज़ाएम=इरादे; बाद-ए-बहारी=वसंत की पवन

~ मोहम्मद असदुल्लाह


  Jan 1, 2016| e-kavya.blogspot.com
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अब के बार मिल के यूँ साल-ए-नौ

अब के बार मिल के यूँ साल-ए-नौ मनायेंगे
रंजिशें भुला कर, हम नफ़रतें मिटायेंगें।

*साल-ए-नौ=नया साल

~ नामालूम

  Dec 31, 2015| e-kavya.blogspot.com
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जब ग़म हुआ चढ़ा ली दो बोतलें

जब ग़म हुआ चढ़ा ली दो बोतलें इकट्ठी,
मुल्ला की दौड़ मस्जिद, अकबर की दौड़ भट्टी।

~ अकबर इलाहाबादी

  Dec 31, 2015| e-kavya.blogspot.com
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किसी सूरत भी नींद आती



किसी सूरत भी नींद आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ
कोई शय दिल को बहलाती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

अकेला पा के मुझ को याद उन की आ तो जाती है
मगर फिर लौट कर जाती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

जो ख़्वाबों में मेरे आ कर तसल्ली मुझ को देती थी
वो-सूरत अब नज़र आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

तुम्हीं तो हो शब-ए-ग़म में जो मेरा साथ देते हो
सितारों तुम को नींद आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ
*शब-ए-ग़म=दुख भरी रात

जिसे अपना समझना था वो आँख अब अपनी दुश्मन है
कि ये रोने से बाज़ आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

तेरी तस्वीर जो टूटे हुए दिल का सहारा थी
नज़र वो साफ़ अब आती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ

घटा जो दिल से उठती है मिज़ा तक तो आ जाती है
मगर आँख उस को बरसाती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ
*मिज़ा=पुतलियों

सितारे ये ख़बर लाए की अब वो भी परीशाँ हैं
सुना है उन को नींद आती नहीं, मैं कैसे सो जाऊँ

~ अनवर मिर्ज़ापुरी


  Dec 29, 2015| e-kavya.blogspot.com
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प्यार के शोर में प्यार मन से खो गया



प्यार के शोर में प्यार मन से खो गया
मित्र मिले डगर-नगर मीत कहाँ खो गया

क्यूँ कहने लगे प्यार हम इस लेन देन को
झूठी अकड़ में काहे खोया दिल के चैन को
अपनत्व जाने कैसे पीठ मोड़ सो गया
प्यार के शोर में प्यार मन से खो गया

कैसी ये घड़ी आई, सब नवीनता गई
आडम्बरों से घिरी, सारी सहजता गई
पुनरुक्तियों की वेदी, पर निजत्व खो गया
प्यार के शोर में प्यार मन से खो गया

सदियों के संस्कार छोड़, क्षुद्रता चुनी
शालीनता को त्याग कर अभद्रता गुनी
विराट से विमुख ह्रदय विदीर्ण हो गया
प्यार के शोर में प्यार मन से खो गया

तुझसे भी करूं बात शब्द तोल तोल के
अश्रद्धा विष का करूं पान घोल घोल के
राम मेरे कृपा दृष्टि डालो, और करो दया
प्यार के शोर में प्यार मन से खो गया

~ अज्ञात


  Dec 29, 2015| e-kavya.blogspot.com
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चश्मा लगा के आँख पर

चश्मा लगा के आँख पर चलने लगे हसीं,
वो लुत्फ़ अब कहाँ निगह-ए-नीम-बाज़ का

*निगह-ए-नीम-बाज़=अधखुली आँखों से देखना

~ हाशिम अज़ीमाबादी

  Dec 22, 2015| e-kavya.blogspot.com
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बोसे अपने आरिज़-ए...

बोसे अपने आरिज़-ए-गुलफाम के
ला मुझे दे दे तेरे किस काम के।

*आरिज़-ए-गुलफाम=फूल के रंग जैसे या दिलरुबा के गाल

~ नामालूम

  Dec 21, 2015| e-kavya.blogspot.com
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रुख़ से परदा उठा दे ज़रा साक़िया



रुख़ से परदा उठा दे ज़रा साक़िया
बस अभी रंग-ए-महफ़िल बदल जायेगा
है जो बेहोश वो होश में आयेगा
गिरनेवाला जो है वो संभल जायेगा

तुम तसल्ली ना दो सिर्फ़ बैठे रहो
वक़्त कुछ मेरे मरने का टल जायेगा
क्या ये कम है मसीहा के रहने ही से
मौत का भी इरादा बदल जायेगा

मेरा दामन तो जल ही चुका है मग़र
आँच तुम पर भी आये गंवारा नहीं
मेरे आँसू ना पोंछो ख़ुदा के लिये
वरना दामन तुम्हारा भी जल जायेगा

तीर की जाँ है दिल, दिल की जाँ तीर है
तीर को ना यूँ खींचो कहा मान लो
तीर खींचा तो दिल भी निकल आयेगा
दिल जो निकला तो दम भी निकल जायेगा

फूल कुछ इस तरह तोड़ ऐ बाग़बाँ
शाख़ हिलने ना पाये ना आवाज़ हो
वरना गुलशन पे रौनक ना फ़िर आयेगी
हर कली का दिल जो दहल जायेगा

मेरी फ़रियाद से वो तड़प जायेंगे
मेरे दिल को मलाल इसका होगा मगर
क्या ये कम है वो बेनक़ाब आयेंगे
मरनेवाले का अरमाँ निकल जायेगा

इसके हँसने में रोने का अन्दाज़ है
ख़ाक उड़ाने में फ़रियाद का राज़ है
इसको छेड़ो ना ‘अनवर’ ख़ुदा के लिये
वरना बीमार का दम निकल जायेगा

~ अनवर मिर्ज़ापुरी


  Dec 21, 2015| e-kavya.blogspot.com
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हमसे गो दूर - दूर रहते हैं

हमसे गो दूर - दूर रहते हैं
दिल में लेकिन जरूर रहते हैं

इसलिए देखभाल करता हूँ
आईने में हुजूर रहते हैं

मैं जमीं पर तलाश करता हूँ
वो सितारों से दूर रहते हैं

~ अब्दुल हमीद अदम


  Dec 20, 2015| e-kavya.blogspot.com
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माँ मेरे गूंगे शब्दों को



माँ मेरे गूंगे शब्दों को
गीतों का अरमान बना दे .
गीत मेरा बन जाये कन्हाई,
फिर मुझको रसखान बना दे.

देख सकें दुख-दर्द की टोली,
सुन भी सकें फरियाद की बोली,
माँ सारे नकली चेहरों पर
आँख बना दे,कान बना दे.

मेरी धरती के खुदगर्जों ने
टुकड़े-टुकड़े बाँट लिये हैं,
इन टुकड़ों को जोड़ के मैया
सुथरा हिन्दुस्तान बना दे

गीत मेरा बन जाये कन्हाई,
फिर मुझको रसखान बना दे

~ बेकल उत्साही


  Dec 19, 2015| e-kavya.blogspot.com
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जहाँ जहाँ तिरी नज़रों की ओस

जहाँ जहाँ तिरी नज़रों की ओस टपकी है
वहाँ वहाँ से अभी तक ग़ुबार उठता है

~ साहिर लुधियानवी

  Dec 18, 2015| e-kavya.blogspot.com
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अंतर्मन के भोज पत्र पर



अंतर्मन के भोज पत्र पर,
गीत लिखे बहुतेरे
सजनी, कुछ तेरे, कुछ मेरे. . .

जब-जब सूरज को देखूँ मैं,
अंजानी-सी लगन लगे।
तेरे पथ की रखवाली में,
रात-रात भर नयन जगे।
दुविधाओं में घिरे हुए दिन,
चिंताओं के फेरे
सजनी, कुछ तेरे, कुछ मेरे. . .

मुझको देख विहँसता चंदा
जब-जब आधी रात का,
पात-पात बिखरा जाता है
मौसम झंझावात का।
इन लम्हों ने मटमैले-से
कितने चित्र उकेरे।
सजनी, कुछ तेरे, कुछ मेरे. . .

अलकों पर सपनों के मोती,
झरते धीरे-धीरे।
भीतर संचित है कितने ही,
माणिक-मुक्ता-हीरे।
मुझको बाँध लिया करते हैं,
इंद्र धनुष के घेरे
सजनी, कुछ तेरे, कुछ मेरे. . .

अंतर्मन के भोज पत्र पर,
गीत लिखे बहुतेरे
सजनी, कुछ तेरे, कुछ मेरे . . . !

~ अजय पाठक


  Dec 18, 2015| e-kavya.blogspot.com
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तू नहीं है न सही

तू नहीं है न सही तेरी मोहब्बत का ख़याल
ढूँढ लेता है तुझे हुस्न की नज़्ज़ारों में

~ अली सरदार जाफ़री

  Dec 17, 2015| e-kavya.blogspot.com
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घना अँधेरा, उजाले की बात होने दो

घना अँधेरा, उजाले की बात होने दो
दिये में तेल‘औ बाती का साथ होने दो
रहा हमारा ये वादा कि रोशनी देंगे
जलेंगे दीप की तरह भी, रात होने दो।

~ राजा अवस्‍थी

  Dec 16, 2015| e-kavya.blogspot.com
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आंसुओं यह बतला दो

आंसुओं यह बतला दो, क्यों कभी झरनों सा झरते हो
कभी हो झड़ी लगा देते, कभी बे-तरह बिखरते हो
गिर गए जब आँखों से तब किसलिए उनको भरते हो
निकल आए दिल से तब क्यों फिर जगह दिल में करते हो।

~ अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

  Dec 15, 2015| e-kavya.blogspot.com
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