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Monday, October 31, 2016

नागफनी आँचल में बांध सको तो




नागफनी आँचल में बांध सको तो आना
धागों बिंधे ग़ुलाब हमारे पास नहीं

हम तो ठहरे निपट अभागे
आधे सोये, आधे जागे
थोड़े सुख के लिये उम्र भर
गाते फिरे भीड़ के आगे
कहाँ-कहाँ हम कितनी बार हुए अपमानित
इसका सही हिसाब, हमारे पास नहीं

हमने व्यथा अनमनी बेची
तन की ज्योति कंचनी बेची
कुछ न मिला तो अंधियारों को
मिट्टी मोल चांदनी बेची
गीत रचे जो हमने उन्हें याद रखना तुम
रत्नों मढ़ी किताब, हमारे पास नहीं

झिलमिल करतीं मधुशालाएँ
दिन ढलते ही हमें रिझाएँ
घड़ी-घड़ी हर घूँट-घूँट हम
जी-जी जाएँ, मर-मर जाएँ
पीकर जिसको चित्र तुम्हारा धुंधला जाए
इतनी कड़ी शराब, हमारे पास नहीं

आखर-आखर दीपक बाले
खोले हमने मन के ताले
तुम बिन हमें न भाए पल भर
अभिनन्दन के शाल-दुशाले
अबके बिछुड़े कहाँ मिलेंगे, ये मत पूछो
कोई अभी जवाब, हमारे पास नहीं

~ किशन सरोज


  Oct 31, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, October 30, 2016

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना


जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

~ गोपाल दास 'नीरज'


  Oct 30, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, October 29, 2016

रात अभी आधी बाकी है



रात अभी आधी बाकी है
मत बुझना मेरे दीपक मन

चाँद चाँदनी की मुरझाई
छिपा चाँद यौवन का तुममें
आयु रागिनी भी अकुलाती
रह रहकर बिछुड़न के भ्रम में
जलते रहे स्नेह के क्षण ये
जीवन सम्मुख है ध्रुवतारा
तुम बुझने का नाम लेना
जब तक जीवन में अँधियारा

अपने को पीकर जीना है
हो कितना भी सूनापन
रात अभी आधी बाकी है
मत बुझना मेरे दीपक मन

तुमने विरहाकुल संध्या की
भर दी माँग अरुणिमा देकर
तम के घिरे बादलों को भी
राह दिखाई तुमने जलकर
तुम जाग्रत सपनों के साथी
स्तब्ध निशा को सोने देना
धन्य हो रहा है मेरा विश्वास
तुम्ही से पूजित होकर

जलती बाती मुक्त कहाती
दाह बना कब किसको बंधन
रात अभी आधी बाकी है
मत बुझना मेरे दीपक मन

~ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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Friday, October 28, 2016

मछलियाँ बोलीं- हमारे भाग्य में



मछलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
ढ़ेर-सा है जल, तो तड़पन भी बहुत है।

शाप है या कोई वरदान है
यह समझ पाना कहाँ आसान है
एक पल ढेरों ख़ुशी ले आएगा
एक पल में ज़िन्दगी वीरान है
लड़कियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
पर हैं उड़ने को, तो बंधन भी बहुत हैं।

भोली-भाली मुस्कुराहट अब कहाँ
वे रुपहली-सी सजावट अब कहाँ
साँकलें दरवाज़ों से कहने लगीं
जानी-पहचानी वो आहट अब कहाँ
चूड़ियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं ख़नकते सुख, तो टूटन भी बहुत है।

दिन तो पहले भी थे कुछ प्रतिकूल से
शूल पहले भी थे लिपटे फूल से
किसलिये फिर दूरियाँ बढ़ने लगीं
क्यूँ नहीं आतीं इधर अब भूल से
तितलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं महकते पल, तो अड़चन भी बहुत हैं।

रास्ता रोका घने विश्वास ने
अपनेपन की चाह ने, अहसास ने
किसलिये फिर बरसे बिन जाने लगी
बदलियों से जब ये पूछा प्यास ने
बदलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं अगर सावन, तो भटकन भी बहुत हैं।

भावना के अर्थ तक बदले गए
वेदना के अर्थ तक बदले गए
कितना कुछ बदला गया इस शोर में
प्रार्थना के अर्थ तक बदले गए
चुप्पियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
कहने का है मन, तो उलझन भी बहुत हैं।

~ दिनेश रघुवंशी


  Oct 28, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, October 27, 2016

अगर बहारें पतझड़ जैसा रूप बना



अगर बहारें पतझड़ जैसा रूप बना उपवन में आएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?

वातावरण आज उपवन का अजब घुटन से भरा हुआ है
कलियाँ हैं भयभीत फूल से, फूल शूल से डरा हुआ है
सोचो तो तुम, क्या कारण है दिल, दिल के नज़दीक नहीं है
जीवन की सुविधाओं का बँटवारा शायद ठीक नहीं है
उपवन में यदि बिना खिले ही कलियाँ मुरझाने लग जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?

यह अपनी-अपनी क़िस्मत है कुछ कलियाँ खिलती हैं ऊपर
और दूसरी मुरझा जातीं झुके-झुके जीवन भर भू पर
माना बदक़िस्मत हैं लेकिन, क्या वे महक नहीं सकती हैं
अगर मिले अवसर, अंगारे-सी क्या दहक नहीं सकती हैं ?
धूप रोशनी अगर चमन में ऊपर-ऊपर ही बँट जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?

काँटे उपवन के रखवाले अब से नहीं, ज़माने से हैं
लेकिन उनके मुँह पर ताले अब से नहीं, ज़माने से हैं
ये मुँह बंद, उपेक्षित काँटे अपनी कथा कहें तो किससे?
माली उलझे हैं फूलों से अपनी व्यथा कहें तो किससे?
इसी प्रश्न को लेकर काँटे यदि फूलों को ही चुभ जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?

सुनते हैं पहले उपवन में हर ऋतु में बहार गाती थी
कलियों का तो कहना ही क्या, मिट्टी से ख़ुश्बू आती थी
यह भी ज्ञात हमें उपवन में कुछ ऐसे भौंरे आए थे
सारा चमन कर दिया मरघट, अपने साथ ज़हर लाए थे
लेकिन अगर चमन वाले ही भौंरों के रंग-ढंग अपनाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ ?

बुलबुल की क्या है बुलबुल तो जो देखेगी, सो गाएगी
उसकी वाणी तो दर्पण है असली सूरत दिखलाएगी
चूँकि आज बुलबुल पर गाने को रस डूबा गीत नहीं है
सारा चमन बना है दुश्मन कोई उसका मीत नहीं है
गाते-गाते यदि बुलबुल के गीत आँसुओं से भर जाएँ
माली तुम्हीं फैसला कर दो, हम किसको दोषी ठहराएँ?

  Oct 27, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, October 26, 2016

शुद्ध सोना क्यों बनाया



शुद्ध सोना क्यों बनाया, प्रभु, मुझे तुमने,
कुछ मिलावट चाहिए गल-हार होने के लिए।

जो मिला तुममें भला क्या
भिन्नता का स्वाद जाने,
जो नियम में बंध गया
वह क्या भला अपवाद जाने!
जो रहा समकक्ष, करुणा की मिली कब छांह उसको
कुछ गिरावट चाहिए, उद्धार होने के लिए।

जो अजन्मा है, उसे इस
इंद्रधनुषी विश्व से संबंध क्या!
जो न पीड़ा झेल पाये स्वयं,
दूसरों के लिए उनको द्वंद्व क्या!
एक स्रष्टा शून्य को श्रृंगार सकता है
मोह कुछ तो चाहिए, साकार होने के लिए!

क्या निदाघ नहीं प्रलासी बादलों से
खींच सावन धार लाता है!
निर्झरों के पत्थरों पर गीत लिक्खे
क्या नहीं फेनिल, मधुर संघर्ष गाता है!
है अभाव जहाँ, वहीं है भाव दुर्लभ -
कुछ विकर्षण चाहिए ही, प्यार होने के लिए!

वाद्य यंत्र न दृष्टि पथ, पर हो,
मधुर झंकार लगती और भी!
विरह के मधुवन सरीखे दीखते
हैं क्षणिक सहवास वाले ठौर भी!
साथ रहने पर नहीं होती सही पहचान!
चाहिए दूरी तनिक, अधिकार होने के लिए!

~ श्यामनंदन किशोर


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Tuesday, October 25, 2016

फूल खिलते ही रहे



फूल खिलते ही रहे, कलियाँ चटकती ही रहीं
दिल धड़क जाए तो हासिल? आँख भर आई तो क्या l

शाम सुलगाती चली आती है, ज़ख़्मों के चिराग़
कोई जाम आया तो क्या, कोई घटा छाई तो क्या l

काकुलें लहराईं, रातें महकीं, पैराहन उड़े
एक उनकी याद ऐसी थी, नहीं आई तो क्या l

दूरियाँ बढ़ती भी हैं, घटती भी हैं, मिटती भी हैं
साअतें आईं, यही साअत नहीं आई तो क्या l
*साअतें = क्षण

~ मख़्दूम मोहिउद्दीन

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Monday, October 24, 2016

झरो, झरो, झरो!



झरो, झरो, झरो!
 
जंगम   जग   प्रांगण   में,
जीवन      संघर्षण     में 
नव   युग   परिवर्तन   में 
मन   के    पीले    पत्तो!
झरो, झरो, झरो!

सन्  सन् शिशिर समीरण 
देता    क्रांति    निमंत्रण !
यही जीवन विस्मृति क्षण, -
जीर्ण   जगत   के   पत्तो !
टरो, टरो, टरो!

कँप कर, उड़ कर, गिर कर,
दब कर, पिस कर, चर मर,
मिट्टी   में    मिल    निर्भर,
अमर   बीज    के    पत्तो!
मरो, मरो, मरो!

तुम पतझर, तुम मधु - जय!
पीले   दल,   नव   किसलय,
तुम्हीं  सृजन,   वर्धन,   लय,
आवा-गमनी              पत्तो!
सरो, सरो, सरो!

जाने    से    लगता    भय?
जग   में   रहना    सुखमय?
फिर    आओगे       निश्चय!
निज   चिरत्व    से    पत्तो!
डरो, डरो, डरो!

जन्म   मरण     से     होकर,
जन्म   मरण    को    खोकर,
स्वप्नों     में    जग    सोकर,
मधु    पतझर    के     पत्तो!
तरो, तरो, तरो!
 
~ सुमित्रानंदन पंत

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Saturday, October 22, 2016

मैंने फूल को सराहा



मैंने फूल को सराहा:
‘देखो, कितना सुन्दर है, हँसता है !
तुमने उसे तोड़ा
और जूड़े में खोंस लिया l

मैंने बौर को सराहा:
‘देखो, कैसी भीनी गन्ध है !’
तुमने उसे पीसा
और चटनी बना डाली l

मैंने कोयल को सराहा:
‘देखो, कैसा मीठा गाती है !’
तुमने उसे पकड़ा
और पिंजरे में डाल दिया l

एक युग पहले की बातें ये
आज याद आतीं नहीं क्या तुम्हें ?
क्या तुम्हारे बुझे मन, हत-प्राण का है यही भेद नहीं :
हँसी, गन्ध, गीत जो तुम्हारे थे
वे किसी ने तोड़ लिए, पीस दिए, कैद किए ?

मुक्त करो !
मुक्त करो ! -
जन्म-भर की यह यातना भी
इस ज्ञान के समक्ष तुच्छ है :
हँसी फूल में नहीं,
गन्ध बौर में नहीं,
गीत कंठ में नहीं,
हँसी, गन्ध, गीत - सब मुक्ति में हैं
मुक्ति ही सौन्दर्य का अन्तिम प्रमाण है !

~ भारत भूषण अग्रवाल


  Oct 22, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Friday, October 21, 2016

अब कुछ ठीक नहीं



अब कुछ ठीक नहीं।

मैं कब हँस पडूँ
कब चीखकर
अपना गला दबा लूँ
कब छुरा उठाकर
सामने वार कर बैठूँ
अब कुछ ठीक नहीं ।

मेरे चारों तरफ
कुएँ का यह घेरा
सँकरा होता होता
मेरे जिस्म को ही नहीं
मेरी आत्मा को छूने लगा है
अब कुचला जाना मेरी नियति बनता जा रहा है ।

मुझे धरती दरक जाने का डर नहीं था
न आसमान फटने का
उनमें से रास्ता निकालना
मैं जानता था,
युगों से मैं यही करता आ रहा हूँ ।
लेकिन अब
जिस सिकुड़ते घेरे में मैं पड़ गया हूँ
उसकी हर ईंट का
मुझे दबोचने का तरीका अजीब है -
वह या तो
देखते ही पीछे हट जाती है,
छूते ही आकार खो देती है,
या कुछ कहते ही
पिघलकर पानी बन जाती है ।
कायरों, ढोंगियों और मूर्खों का यह घेरा
बनता जा रहा है इतिहास मेरा ।

मैं सोचता था
इन्हें पहचानकर
इन्हें सही-सही समझकर
मैं इस कुएँ के बाहर
निकल आऊँगा
और इसी के सहारे
एक व्यापक हरा-भरा संसार रचूँगा।

लेकिन अब किसी की
कोई पहचान नहीं
और इनसे घिरकर
मैं अपनी पहचान भी
खोता जा रहा हूँ l
अब कुछ ठीक नहीं
मैं कब क्या हो जाऊँ ?

कब हँस पडूँ
कब चीखकर
अपना गला दबा लूँ
कब छुरा उठाकर
सामने वार कर बैठूँ

अब कुछ ठीक नहीं ।

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


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यह संगीत है जो अविराम है



यह संगीत है जो अविराम है
यह भीड़ में है
जो अकेलेपन के कक्ष में
गूँजता है अलग बंदिश में
शब्द में
निःशब्द में
हवा में
निर्वात में
संगीत है

यह जिजीविषा जो
कभी सितार है
कभी बाँसुरी
कभी अनसुना वाद्ययंत्र
और यह दुःख के साथ-साथ
जो कातरता बज रही है शहनाई में

और यह दुराचारी का दर्प
जो भर गया है नगाड़े में
यह संगीत है
जो छिप नहीं सकता
यह है भीतर से बाहर आता हुआ
यह है बाहर से
भरता हुआ भीतर

यह संगीत है
कभी टिमटिमाता हुआ एक तार पर
कभी गुँजाता हुआ पूरी कायनात का सभागार।

~ कुमार अंबुज


  Oct 20, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, October 19, 2016

अलमस्त हुई मन झूम उठा



अलमस्त हुई मन झूम उठा, चिड़ियाँ चहकीं डरियाँ डरियाँ
चुन ली सुकुमार कली बिखरी मृदु गूँथ उठीं लरियाँ लरियाँ
किसकी प्रतिमा हिय में रखिके नव आर्ति करूँ थरियाँ थरियाँ
किस ग्रीवा में डार ये डालूँ सखी, अँसुआन ढरूँ झरियाँ झरियाँ

सुकुमार पधार खिलो टुक तो इस दीन गरीबिन के अँगना
हँस दो, कस दो, रस की की रसरी, खनका दो अजी कर के अँगना
तुम भूल गये कल से हलकी चुनरी गहरे रँग में रँगना
कर में कर थाम लिये चल दो रँग में रँग के अपने सँग - ना?

निज ग्रीव में माल-सी डाल तनिक कृतकृत्य करौ शिथिला बहियाँ
हिय में चमके मृदु लोचन वे, कुछ दूर हटे दुख की बहियाँ
इस साँस की फाँस निकाल सखे, बरसा दो सरस रस की फुहियाँ
हरखे हिय रास रसे जियरा, खिल जायें मनोरथ की जुहियाँ

~ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'


  Oct 19, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Tuesday, October 18, 2016

कुकुरमुत्ता



एक दिन
बाजार से मेरे घर आता है
एक उच्च-भ्रू दुकान में के आदमकद फ्रिज में से निकल
पारदर्शी पोलिथीन पैकेट में बन्द
वह गौरांग।

झोली उँडेलती हुई
पत्नी फरमाती हैं :
स्वाद बदलने के लिए
आज यह मशरूम।

मैं देखता हूँ उसे
और अचरज से चिहा उठता हूँ :
वाह! बड़े दिनों बाद हुई भेंट
कैसे हो भाई कुकुरमुत्ते?
महाकवि के दुलारे, देते रहे बुत्ते
खाने से पहले तुम्हें देखूँ तो भरपेट !

कि मेरे भीतरी कानों में गूँजी एक डपट
छोड़ती लपट :
अशिष्ट !
देख ध्यान से अरे, मैं विशिष्ट
मैं नहीं वह, खुले में, सड़े पुआल पर उगा कुकुरमुत्ता
कि ले जाए वह भी जिसके पाँव में नहीं जुत्ता
अरे, मैं तो वातानुकूलित कक्ष का वासी
बारहमासी
प्रोलेतेरियत नहीं, बूर्ज्वा
सर नवा
मैं खादखोर मशरूम
क्या जाने मुझे, तू हाड़तोड़ मजलूम
गरीबी से गर्वित
निवुध अपने चित्त को लिये चित्त !

दहलाती वाणी से नहलाए कानों में सहलाती उँगली दे
तब मैंने देखा ध्यान से
उस नवयुगी कुकुरमुत्ते को
कोमलांग हुरमुट्ठे को
बेशक, यह नहीं वह गँवई-गँवार
बचपन का यार
स्वयंभू सर्वहारा
बनाते जिसे गदा निराला
करने को ध्वस्त कुल और कूल बूर्ज्वाजी के
गुलाब के बहाने परोपजीवी मूल्य बूर्ज्वाजी के

यह नहीं वह मुँहफट महामना
यह जो इतराता आज गुलाब का गोतिया बना
कुकुरमुत्ता नहीं, मशरूम
मुरव्वत से महरूम
सबाल्टर्न नहीं, अल्ट्रामाडर्न
पंचतारा होटलों का डिश
फ्लाइंग किस
वायुयानों में भर विदेशगामी
अभिमानी
वर्गारोही स्वर्गारोही
आधुनिक नव्वाबों का लाड़ला
गरीब के दुआरे आते लाज-गड़ा
अब कहाँ मयस्सर गोली और मोना बंगाली को
मालिन को और माली को
इसका कलिया-कबाब
उनका ख्वाब
खाते बस बहार और नव्वाब
एअरकंडीशंड जिन्दगी है
बड़े-बड़ों से बंदगी है
बाकी तो गरीबी है गन्दगी है

मैंने देखा उसे
जमीन से उठकर जिसका दिमाग सातवें आसमान चढ़ा
अमीरों का मुँहलगा
कहा पत्नी को :
सुनो, जल्द पकाओ इसे
नहीं तो जाऊँगा कच्चा चबा !

*प्रोलेटेरियट=श्रमिक वर्ग; बूर्ज्वा=पूंजीपतियों का हितसाधक समुदाय
  मजलूम=सताया हुआ

~ ज्ञानेन्द्रपति


  Oct 18, 2016| e-kavya.blogspot.com
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हरिवंश राय बच्चन - प्रतिनिधि रचनायें



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  Oct 17, 2016| e-kavya.blogspot.com
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लुहार के हाथों में घन बन जाना



लुहार के हाथों में घन बन जाना
माली के हाथों में खुरपी
बढ़ई के हाथों में बन जाना बसुला
किसान के हाथों में कुदाल
पर ओ भैया लोहा
सेठ की संदूकची में
मत बनना ताला और चाबी

रसोई में जाना तो हँसिया बन जाना
आँगन में कपड़ों का तार
रोटी जो जले तो चिमटा बन जाना
चप्पल जो टूटे तो कील
पर ओ भैया लोहा
हत्यारों के हाथों में
मत बनना खंजर-तलवार

कुएँ में बाल्टी और घिर्री बन जाना
घोड़े के पाँवों में नाल
दुल्हन जो जाए तो पेटी बन जाना
पाहुन जो आए तो साँकल
पर ओ भैया लोहा
जुल्मी राजा के राज में
मत बनना जेल की सलाख l

~ एकान्त श्रीवास्तव


  Oct 17, 2016| e-kavya.blogspot.com
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साये में धूप - दुष्यंत कुमार



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  Oct 16, 2016| e-kavya.blogspot.com
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पूरी रात के लिए मचलता है



पूरी रात के लिए मचलता है
आधा समुद्र
आधे चांद को मिलती है पूरी रात
आधी पृथ्वी की पूरी रात
आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है
पूरा सूर्य

आधे से अधिक
बहुत अधिक मेरी दुनिया के करोड़ों-करोड़ लोग
आधे वस्त्रों से ढांकते हुए पूरा तन
आधी चादर में फैलाते हुए पूरे पांव
आधे भोजन से खींचते पूरी ताकत
आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन
आधे इलाज की देते पूरी फीस
पूरी मृत्यु
पाते आधी उम्र में।

आधी उम्र, बची आधी उम्र नहीं
बीती आधी उम्र का बचा पूरा भोजन
पूरा स्वाद
पूरी दवा
पूरी नींद
पूरा चैन
पूरा जीवन

पूरे जीवन का पूरा हिसाब हमें चाहिए
हम नहीं समुद्र, नहीं चांद, नहीं सूर्य
हम मनुष्य, हम--
आधे चौथाई या एक बटा आठ
पूरे होने की इच्छा से भरे हम मनुष्य।

~ नरेश सक्सेना


  Oct 16, 2016| e-kavya.blogspot.com
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यह कच्ची कमज़ोर सूत-सी नींद



यह कच्ची
कमज़ोर सूत-सी नींद नहीं
जो अपने आप टूटती है

रोज़-रोज़ की दारुण विपत्तियाँ हैं
जो आँखें खोल देती हैं अचानक

सुनो, बहुत चुपचाप पाँवों से
चला आता है कोई दुःख
पलकें छूने के लिए
सीने के भीतर आनेवाले
कुछ अकेले दिनों तक
पैठ जाने के लिए

मैं एक अकेला
थका-हारा कवि
कुछ भी नहीं हूँ अकेला
मेरी छोड़ी गयीं अधूरी लड़ाइयाँ
मुझे और थका देंगी

सुनो, वहीं था मैं
अपनी थकान, निराशा, क्रोध
आँसुओं, अकेलेपन और
एकाध छोटी-मोटी
खुशियों के साथ

यहीं नींद मेरी टूटी थी
कोई दुःख था शायद
जो अब सिर्फ़ मेरा नहीं था

अब सिर्फ़ मैं नहीं था अकेला
अपने जागने में

चलने के पहले
एक बार और पुकारो मुझे

मैं तुम्हारे साथ हूँ

तुम्हारी पुकार की उँगलियाँ थाम कर
चलता चला आऊँगा
तुम्हारे पीछे-पीछे

अपने पिछले अँधेरों को पार करता।

~ उदय प्रकाश


  Oct 15, 2016| e-kavya.blogspot.com
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चाँद यह सोने नहीं देता



चाँद यह सोने नहीं देता

किया था मैंने कभी प्रेम
भूलकर सब नेम, योग-क्षेम
याद उसकी यह मुझे खोने नहीं देता

कान के आ पास जाता कूक
उठाता है कलेजे में हूक
किन्तु खुलकर यह मुझे रोने नहीं देता

प्राण-चूनर में लगा है दाग
आग में जल भस्म यह होने नहीं देता।

*नेम=नियमित रूप से प्रतिदिन किया जानेवाला काम; योग-क्षेम=अप्राप्त की प्राप्ति - योग, और जो प्राप्त हो गया है उसकी रक्षा करना क्षेम; प्राण-चूनर=प्राण रूपी चुनरी

~ नंदकिशोर नवल



  Oct 14, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, October 13, 2016

अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया




अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
कि एक उम्र चले और घर नहीं आया।
*अज़ाब=मुसीबत

इस एक ख़्वाब की हसरत में जल-बुझी आंखें
वो एक ख़्वाब कि अब तक नज़र नहीं आया।

केरें तो किससे करें नारसाईयों का गिला
सफ़र-तमाम हुआ हमसफ़र नहीं आया।
*नारसाईयों=दुख-पीड़ा; गिला=शिकायत; सफ़र-तमाम=यात्रा की समाप्ति

दिलों की बात बदन की ज़बाँ से कह देते
यह चाहते थे मगर दिल इधर नहीं आया।

अजीब ही था मेरे दौर-ए-गुमराही का रफ़ीक
बिछड़ गया तो कभी लौट कर नहीं आया।
*दौर-ए-गुमराही=भटकने का ज़माना; रफ़ीक=दोस्त

हरीम-ए-लफ़ज़-ओ-मुआनी से निसबतें भी रहीं
मगर सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं आया।
*हरीम-ए-लफ़ज़-ओ-मुआनी=शब्दों के अर्थ की दीवारें; निसबतें=सम्बंध;
सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर=बात कहने का ढंग

~ इफ़्तेख़ार आरिफ़


  Oct 13, 2016| e-kavya.blogspot.com
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तुम्हारा शरीर

तुम्हारा शरीर
जब मुझ पर सहस्त्रधा
बरसता है,
मेरा मन वैसे नाचता है,
जैसे तेज़ बारिश में
एक पत्ती।


*सहस्त्रधा=हजार तरह से

~ नन्दकिशोर नवल

  Oct 12, 2016| e-kavya.blogspot.com
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दुनिया से मेरे जाने की बात



दुनिया से मेरे जाने की बात
सामने आ रही है
ठंडी सादगी से

यह सब इसलिए
कि शरीर मेरा थोड़ा हिल गया है
मैं तैयार तो कतई नहीं हूँ
अभी मेरी उम्र ही क्या है !

इस उम्र में तो लोग
घोड़ों की सवारी सीखते हैं
तैर कर नदी पार करते हैं
पानी से भरा मशक
खींच लेते हैं कुएँ से बाहर !

इस उम्र में तो लोग
किसी नेक और कोमल स्त्री
के पीछे-पीछे रुसवाई उठाते हैं
फूलों से भरी डाल
झकझोर डालते हैं
उसके ऊपर!

~ आलोक धन्वा


  Oct 12, 2016| e-kavya.blogspot.com
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आदमी के आज दुश्मन हैं बहुत

आदमी के आज दुश्मन हैं बहुत
राम कम हैं और रावन हैं बहुत

छल रहे हैं अब भी सोने के हिरन
मुश्किलों में आज लछमन हैं बहुत

हों वो कलियाँ या कि नाज़ुक फूल हों
हादिसों में इनके बचपन हैं बहुत

जितनी सुविधाएं मिलीं इंसान को
उतनी उसके साथ उलझन हैं बहुत

सबके चेहरों पर मुखौटे हैं उधर
और अंधेरों में ये दर्पन हैं बहुत

मालियों ने उनको देखा ही नहीं
जंगलों जैसे ही उपवन हैं बहुत

सबके कमरे और चौखट हैं अलग
आंगनों में आज अनबन हैं बहुत

कंगनों को रास आती ही नहीं
चूड़ियों में वो जो खनखन हैं बहुत

हों वो मरुथल या जलाशय हों 'कुँअर'
सबकी ही आँखों में सावन हैं बहुत

~ कुँअर बेचैन

  Oct 11, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Monday, October 10, 2016

आवो, चलें हम साथ दो कदम



आवो, चलें हम
साथ दो कदम
हमकदम हों
दो ही कदम चाहे
दुनिया की कदमताल से छिटक

हाथ कहां लगते हैं मित्रों के हाथ
घड़ी-दो घड़ी को
घड़ीदार हाथ-जिनकी कलाई की नाड़ी से तेज
धड़कती है घड़ी
वक्त के जख्म़ से लहू रिसता ही रहता है लगातार

कहां चलते हैं हम कदम-दो कदम
उंगलियों में फंसा उंगलियां
उंगलियों में फंसी है डोर
सूत्रधार की नहीं
कठपुतलियों की
हथेलियों में फंसी है
एक बेलन
जिन्दगी को लोई की तरह बेलकर
रोटी बनाती

किनकी अबुझ क्षुधाएं
उदरम्भरि हमारी जिन्दगियां
भसम कर रही हैं
बेमकसद बनाए दे रही हैं
खास मकसद से
आवो, विचारें हम
माथ से जोड़कर माथ
दो कदम हमकदम हों हाथ से जोड़े हाथ

~ ज्ञानेन्द्रपति


  Oct 10, 2016| e-kavya.blogspot.com
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वे मुसलमान थे



कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे

वे मुसलमान थे

उन्होंने अपने घोड़े सिन्धु में उतारे
और पुकारते रहे हिन्दू! हिन्दू!! हिन्दू!!!

बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया

वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिन्दुओं की तरह पैदा होते थे

उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की
और मृत्यु की

प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक
और अपने ख़ून में कन्धों तक
वे डूबे होते थे
उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के
नक्शे होते थे

न! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे

वे मुसलमान थे

वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकन्द, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए

वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू

वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं

वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिख़ेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे

वे मुसलमान थे

यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए

कि वे प्रायः इस तरह होते थे
कि प्रायः पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे

वे मुसलमान थे

वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता

मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती

वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला ख़ुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के गुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता

मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता

वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे

वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे

इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे
वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे

वे जितना पी.ए.सी. के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे

वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे

वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे

वे उखड़ा-उखड़ा राग-द्वेष थे
वे मुसलमान थे

वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें
पूरे शहर में गूँजती रहती थीं

वे शहर के बाहर रहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पैट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
ख़बरें आती थीं

उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे

वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज़्यादा बार
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे

वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है

अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे

वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएँ
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे

वे मुसलमान थे इसलिए
तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे

कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि
उन्हें फेंका जाए तो
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए

वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूजे नहीं थे

सावधान!
सिन्धु के दक्षिण में
सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे वे

वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिन्धु और हिन्दुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे

वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे

~ देवीप्रसाद मिश्र


  Oct 9, 2016| e-kavya.blogspot.com
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छतों पर आती हैं लड़कियाँ




अब भी
छतों पर आती हैं लड़कियाँ
मेरी ज़िंदगी पर पड़ती हैं उनकी परछाइयाँ।
गो कि लड़कियाँ आयी हैं उन लड़कों के लिए
जो नीचे गलियों में ताश खेल रहे हैं
नाले के ऊपर बनी सीढियों पर और
फ़ुटपाथ के खुले चायख़ानों की बेंचों पर
चाय पी रहे हैं
उस लड़के को घेर कर
जो बहुत मीठा बजा रहा है माउथ ऑर्गन पर
आवारा और श्री 420 की अमर धुनें।

पत्रिकाओं की एक ज़मीन पर बिछी दुकान
सामने खड़े-खड़े कुछ नौजवान अख़बार भी पढ़ रहे हैं।
उनमें सभी छात्र नहीं हैं
कुछ बेरोज़गार हैं और कुछ नौकरीपेशा,
और कुछ लफंगे भी

लेकिन उन सभी के ख़ून में
इंतज़ार है एक लड़की का !
उन्हें उम्मीद है उन घरों और उन छतों से
किसी शाम प्यार आयेगा!

~ आलोक धन्वा
 


  Oct 8, 2016| e-kavya.blogspot.com
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बे-सहारों का इंतिज़ाम करो




बे-सहारों का इंतिज़ाम करो
यानी इक और क़त्ल-ए-आम करो

ख़ैर-ख़्वाहों का मशवरा ये है
ठोकरें खाओ और सलाम करो

दब के रहना हमें नहीं मंज़ूर
ज़ालिमो जाओ अपना काम करो

ख़्वाहिशें जाने किस तरफ़ ले जाएँ
ख़्वाहिशों को न बे-लगाम करो

मेज़बानों में हो जहाँ अन-बन
ऐसी बस्ती में मत क़याम करो
*क़याम=ठहरना

आप छट जाएँगे हवस वाले
तुम ज़रा बे-रुख़ी को आम करो

ढूँडते हो गिरों पड़ों को क्यूँ
उड़ने वालों को ज़ेर-ए-दाम करो
*ज़ेर-ए-दाम=फँसाना

देने वाला बड़ाई भी देगा
तुम समाई का एहतिमाम करो
*समाई=बूता, सामर्थ्य; एहतिमाम=व्यवस्था

बद-दुआ दे के चल दिया वो फ़क़ीर
कह दिया था कि कोई काम करो

ये हुनर भी बड़ा ज़रूरी है
कितना झुक कर किसे सलाम करो

सर-फिरों में अभी हरारत है
इन जियालों का एहतिराम करो
*जियालों=बहादुरों

साँप आपस में कह रहे हैं 'हफ़ीज़'
आस्तीनों का इंतिज़ाम करो

~ हफ़ीज़ मेरठी

Oct 10, 2016 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, October 7, 2016

पक्की दोस्तियों का आईना



पक्की दोस्तियों का आईना इतना नाजुक होता जाता था
कि ज़रा-सी बात से उसमें बाल आ जाता और
कभी-कभी वह उम्र भर नहीं जा पाता था ।

ऐसी दोस्तियाँ जब टूटती थीं तब पता लगता था
कि कितनी कड़वाहट छिपी बैठी थी उनके भीतर
एक-एक कर न जाने कब-कब की कितनी ही बातें याद आती थीं
कितने टुच्चेपन, कितनी दग़ाबाजियाँ छिपी रही अब तक इसके भीतर
हम कहते थे, यह तो हम थे कि सब कुछ जानते हुए भी निभाते रहे
वरना इसे तो कभी का टूट जाना चाहिए था ।

पक्की दोस्तियों का फल
कितना तिक्त कितना कटु भीतर ही भीतर !

टूटने से खाली हुई जगह को भरती थी हमारी घृणा !

उम्र के साथ-साथ नए दोस्त बनते थे और पुराने छूटते जाते थे
बचपन के लंगोटिया यार बिछड जाते थे ।
कभी-कभी तो महीनों और साल-दर-साल उनकी याद भी नहीं आती
साल-चौमासे या बरसों बाद उनमें से कोई अचानक मिल जाता था
कस कर एक दूसरे को कुछ पलों को भींच लेते थे
फिर कोई कहता कि यूँ तो मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया है
पर आज तेरे मिलने की ख़ुशी में बरसों बाद एक सिगरेट पिऊँगा
दोनों सिगरेट जलाते थे ।
अतीत के ढेर सारे किस्सों को दोहराते थे, जो दोनों को ही याद थे
बिना बात बीच-बीच में हँसते थे, देर तक बतियाते थे
लेकिन अचानक महसूस होता था
कि उनके पास सिर्फ़ कुछ यादें बची हैं
जिनमें बहुत सारे शब्द हैं पर सम्बन्धों का ताप कहीं चुक गया है ।

पक्की दोस्तियों का आईना
समय के फ़ासलों से मटमैला होता जाता था ।

रात दिन साथ रह कर भी जिनसे कभी मन नहीं भरा
बातें जो कभी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं
बरसों बाद उन्हीं से मिल कर लगता था
कि जैसे अब करने को कोई बात ही नहीं बची
और क्या चल रहा है आजकल..... जैसा फ़िज़ूल का वाक्य
बीच में बार-बार चली आती चुप्पी को भरने को
कई-कई बार दोहराते थे ।
कोई बहाना करते हुए कसमसाकर उठ जाते थे
उठते हुए कहते थे... कभी-कभी मिलाकर यार ।
बेमतलब है यह वाक्य हम जानते थे
जानते थे कि हम शायद फिर कई साल नहीं मिलेंगे ।

मुश्किल वक़्त में ऐसे दोस्त अक्सर ज़्यादा काम आते थे
जिनसे कभी कोई खास नज़दीकी नहीं रही ।

पक्की दोस्तियों के आईने में
एक दिन हम अपनी ही शक़्ल नहीं पहचान पाते थे ।


~ राजेश जोशी

  Oct 7, 2016| e-kavya.blogspot.com
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कितने अकेले तुम रह सकते हो


कितने अकेले तुम रह सकते हो?
अपने जैसे कितनों को खोज सकते हो तुम?
अपने जैसे कितनों को बना सकते हो?

हम एक गरीब देश के रहने वाले हैं
इसलिए
हमारी मुठभेड़ हर वक्त रहती है ताकत से।


देश के गरीब होने का मतलब है
अकड़ और अश्लीलता का
हम पर हर वक्त हमला।

~ रघुवीर सहाय
  Oct 6, 2016| e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, October 5, 2016

बहुत मुश्किल है क़ैदे-ज़िन्दगी में

बहुत मुश्किल है क़ैदे-ज़िन्दगी में मुतमइन होना,
चमन भी इक मुसीबत था कफस भी इक मुसीबत है।

*मुतमइन=संतुष्ट, निश्चिन्त; कफस=पिंजरा

~ सीमाब अकबराबादी


  Oct 5, 2016| e-kavya.blogspot.com
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पुरानी तस्वीरों में ऐसा क्या है



पुरानी तस्वीरों में ऐसा क्या है
जो जब दिख जाती हैं तो मैं गौर से देखने लगता हूँ
क्या वह सिर्फ़ एक चमकीली युवावस्था है
सिर पर घने बाल नाक-नक़्श कुछ कोमल
जिन पर माता-पिता से पैदा होने का आभास बचा हुआ है
आंखें जैसे दूर और भीतर तक देखने की उत्सुकता से भरी हुई
बिना प्रेस किए कपड़े उस दौर के
जब ज़िंदगी ऐसी ही सलवटों में लिपटी हुई थी

इस तस्वीर में मैं हूँ अपने वास्तविक रूप में
एक स्वप्न सरीखा चेहरे पर अपना हृदय लिए हुए
अपने ही जैसे बेफ़िक्र दोस्तों के साथ
एक हल्के बादल की मानिंद जो कहीं से तैरता हुआ आया है
और एक क्षण के लिए एक कोने में टिक गया है
कहीं कोई कठोरता नहीं कोई चतुराई नहीं
आंखों में कोई लालच नहीं

यह तस्वीर सुबह एक नुक्कड़ पर एक ढाबे में चाय पीते समय की है
उसके आसपास की दुनिया भी सरल और मासूम है
चाय के कप, नुक्कड़ और सुबह की ही तरह
ऐसी कितने ही तस्वीरें हैं जिन्हें कभी-कभी दिखलाता भी हूँ
घर आए मेहमानों को

और अब यह क्या है कि मैं अक्सर तस्वीरें खिंचवाने से कतराता हूँ
खींचने वाले से अक्सर कहता हूँ रहने दो
मेरा फोटो अच्छा नहीं आता मैं सतर्क हो जाता हूँ
जैसे एक आइना सामने रख दिया गया हो
सोचता हूँ क्या यह कोई डर है है मैं पहले जैसा नहीं दिखूंगा
शायद मेरे चेहरे पर झलक उठेंगी इस दुनिया की कठोरताएं
और चतुराइयाँ और लालच
इन दिनों हर तरफ़ ऐसी ही चीजों की तस्वीरें ज़्यादा दिखाई देती हैं
जिनसे लड़ने की कोशिश में
मैं कभी-कभी इन पुरानी तस्वीरों को ही हथियार की तरह उठाने की सोचता हूँ

~ मंगलेश डबराल


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Tuesday, October 4, 2016

धन्य प्रिया तुम जागीं




धन्य प्रिया तुम जागीं,
ना जाने दुख भरी रैन में कब तेरी अंखियां लागीं।

जीवन नदिया, बैरी केवट, पार न कोई अपना
घाट पराया, देस बिराना, हाट-बाट सब सपना
क्या मन की, क्या तन की, किहनी अपनी अंसुअन पागी।

दाना-पानी, ठौर ठिकाना, कहां बसेरा अपना
निस दिन चलना, पल-पल जलना, नींद भई इक छलना
पाखी रूंख न पाएं, अंखियां बरस-बरस की जागी।

प्रेम न सांचा, शपथ न सांचा, सांच न संग हमारा
एक सांस का जीवन सारा, बिरथा का चौबारा
जीवन के इस पल फिर तुम क्यों जनम-जनम की लागीं।

धन्य प्रिया तुम जागीं,
ना जाने दुख भरी रैन में कब तेरी अंखियां लागीं।

~ उदय प्रकाश


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Monday, October 3, 2016

ओ मेरे घर....!



ओ मेरे घर
ओ हे मेरी पृथ्वी
साँस के एवज़ तूने क्या दिया मुझे
ओ मेरी माँ ?

तूने युद्ध ही मुझे दिया
प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम
और क्या दिया
मुझे भगवान दिए कई-कई
मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह !
और अद्भुत शक्तिशाली मकानिकी प्रतिमाएँ!

ऐसी मुझे ज़िंदगी दी
ओह
आँखें दीं जो गीली मिट्टी का बुदबुद-सी हैं
और तारे दिए मुझे अनगिनती

साँसों की तरह
अनगिनती इकाइयों में
मुझसे लगातार दूर जाते
मौत की व्यर्थ प्रतीक्षाओं-से!

और दी मुझे एक लंबे नाटक की
हँसी
फैली हुई
दर्शकशाला के इस छोर से उस छोर तक
लहराती कटु-क्रर

फिर मुझे जागना दिया, यह कहकर कि
लो और सोओ
और वही तलवार अँधेरे की
अंतिम लोरियों के बजाय !
इन्सान के अँखौटे में डालकर मुझे

सब कुछ तो दे दियाः
जब मुझे मेरे कवि का बीज दिया कटु-तिक्त।
फिर एक ही जन्म में और क्या-क्या
चाहिए!

~ शमशेर बहादुर सिंह


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Saturday, October 1, 2016

धूप ही क्यों छांव भी दो



धूप ही क्यों छांव भी दो
पंथ ही क्यों पांव भी दो
सफर लम्बी हो गई अब,
ठहरने को गांव भी दो।

प्यास ही क्यों नीर भी दो
धार ही क्यों तीर भी दो
जी रही पुरुषार्थ कब से,
अब मुझे तकदीर भी दो।

पीर ही क्यों प्रीत भी दो
हार ही क्यों जीत भी दो
शुन्य में खोए बहुत अब,
चेतना को गीत भी दो।

ग्रन्थ ही क्यों ज्ञान भी दो
ज्ञान ही क्यों ध्यान भी दो
तुम हमारी अस्मिता को,
अब निजी पहचान भी दो।

*अस्मिता=मन का यह भाव कि स्वयं की एक पृथक् और विशिष्ट सत्ता है, अहंभाव।

~ कनक प्रभा

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