Disable Copy Text

Monday, January 30, 2017

बापू

Image may contain: drawing

ऐसा भी कोई जीवन का मैदान कहीं
जिसने पाया कुछ बापू से वरदान नहीं?
मानव के हित जो कुछ भी रखता था माने
बापू ने सबको गिन-गिनकर,
अवगाह लिया।

बापू की छाती की हर साँस तपस्‍या थी
आती-जाती हल करती एक समस्‍या थी,
पल बिना दिए कुछ भेद कहाँ पाया जाने,
बापू ने जीवन के क्षण-क्षण को,
थाह लिया।

किसके मरने पर जगभर को पछताव हुआ?
किसके मरने पर इतना हृदय-माथव हुआ?
किसके मरने का इतना अधिक प्रभाव हुआ?

बनियापन अपना सिद्ध किया अपना सोलह आने,
जीने की कीमत कर वसूल पाई-पाई,
मरने का भी बापू ने मूल्‍य
उगाह लिया।

~ हरिवंशराय बच्चन


  Jan 30, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

भर दिया जाम जब तुमने

Image may contain: 1 person, closeup

भर दिया जाम जब तुमने अपने हाथों से
प्रिय! बोलो, मैं इन्कार करूं भी तो कैसे!

वैसे तो मैं कब से दुनियाँ से ऊब चुका,
मेरा जीवन दुख के सागर में डूब चुका,
पर प्राण, आज सिरहाने तुम आ बैठीं तो–
मैं सोच रहा हूँ हाय मरूं तो भी कैसे!

मंजिल अनजानी पथ की भी पहचान नहीं,
है थकी थकी–सी साँस, पाँव में जान नहीं,
पर जब तक तुम चल रहीं साथ मधुरे, मेरे
मैं हार मान अपनी ठहरूं भी तो कैसे!

मंझधार बहुत गहरी है, पतवारें टूटीं,
यह नाव समझ लो, अब डूबी या तब डूबी,
पर यह जो तुमने पाल तान दी आँचल की,
जब मैं लहरों से प्राण डरूँ भी तो कैसे

भर दिया जाम जब तुमने अपने हाथों से
प्रिय! बोलो, मैं इन्कार करूं भी तो कैसे!

∼ बालस्वरूप राही


  Jan 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, January 28, 2017

टालने से वक़्त क्या टलता रहा

Image may contain: 1 person, standing and indoor

टालने से वक़्त क्या टलता रहा
आस्तीं में साँप इक पलता रहा

मौत भी लेती रही अपना ख़िराज
कारोबार-ए-ज़ीस्त भी चलता रहा
*ख़िराज=एक तरह का टैक्स; ज़ीस्त=ज़िंदगी

कोई तो साँचा कभी आएगा रास
मैं हर इक साँचे में यूँ ढलता रहा

शहर के सारे महल महफ़ूज़ थे
तेरा मेरा आशियाँ जलता रहा
*महफ़ूज़=सुरक्षित; आशियाँ=घरौंदा

ज़िंदगी में और सब कुछ था हसीं
अपना होना ही मुझे खलता रहा

बुझ गए तहज़ीब-ए-नौ के सब चराग़
एक मिट्टी का दिया जलता रहा
*तहज़ीब-ए-नौ=नयी सभ्यता

आरज़ूएँ ख़ाक में मिलती रहीं
नख़्ल-ए-उल्फ़त फूलता फलता रहा
*नख़्ल-ए-उल्फ़त=प्यार का मरु उद्यान

बन के सोने का हिरन तेरा वजूद
मेरे महसूसात को छलता रहा

रात भर सूनी रही बिरहन की सेज
और आँगन में दिया जलता रहा

ज़िक्र-ए-हक़ भी था बजा 'साहिर' मगर
मय-कशी का दौर भी चलता रहा
*ज़िक्र-ए-हक़=सच्चाई; मय-कशी=शराब पीने का

~ साहिर होशियारपुरी


  Jan 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

इस धरती पर लाना है

Image may contain: flower, sky, mountain, tree, plant, outdoor, nature and water

इस धरती पर लाना है
हमें खींच कर स्वर्ग,
कहीं यदि उसका ठौर-ठिकाना है!

यदि वह स्वर्ग कल्पना ही हो
यदि वह शुद्ध जल्पना ही हो
तब भी हमें भूमि-माता को
अनुपम स्वर्ग बनाना है!
जो देवोपम है उसको ही, इस धरती पर लाना है!

और स्वर्ग तो भोग-लोक है
तदुपरान्त बस रोग-शोक है
हमें भूमि को योग-लोक का
नव अपवर्ग बनाना है!
जो कि देव-दुर्लभ है उसको, इस धरती पर लाना है!

बनना है हमको निज स्वामी
उर्ध्व वृत्ति सत्-चित्-अनुगामी
वसुधा सुधा-सिंचिता करके
हमें अमर फल खाना है
जो कि देव-दुर्लभ है उसको, इस धरती पर लाना है!

हैं आनंद-जात जन निश्चय
सदानंद में ही उनका लय
चिर आनंद वारि धाराएँ
हमें यहाँ बरसाना है
जो देवोपम है उसको ही, इस धरती पर लाना है!

~ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'


  Jan 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Thursday, January 26, 2017

हम सब सुमन एक उपवन के

No automatic alt text available.

हम सब सुमन एक उपवन के
एक हमारी धरती सबकी
जिसकी मिट्टी में जन्मे हम
मिली एक ही धूप हमें है
सींचे गए एक जल से हम।
पले हुए हैं झूल-झूल कर
पलनों में हम एक पवन के
हम सब सुमन एक उपवन के।।

रंग रंग के रूप हमारे
अलग-अलग है क्यारी-क्यारी
लेकिन हम सबसे मिलकर ही
इस उपवन की शोभा सारी
एक हमारा माली हम सब
रहते नीचे एक गगन के
हम सब सुमन एक उपवन के।।

सूरज एक हमारा, जिसकी
किरणें उसकी कली खिलातीं,
एक हमारा चांद चांदनी
जिसकी हम सबको नहलाती।
मिले एकसे स्वर हमको हैं,
भ्रमरों के मीठे गुंजन के
हम सब सुमन एक उपवन के।।

काँटों में मिलकर हम सबने
हँस हँस कर है जीना सीखा,
एक सूत्र में बंधकर हमने
हार गले का बनना सीखा।
सबके लिए सुगन्ध हमारी
हम श्रंगार धनी निर्धन के
हम सब सुमन एक उपवन के।।

~ द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी


  Jan 26, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हम झुक नहीं सकते

Image may contain: sky, cloud and outdoor

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अँधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है

दीप निष्ठा का लिये निष्कम्प
वज्र टूटे या उठे भूकम्प
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु हे सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज।

किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
पुनः अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण–पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार।

दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

~ अटल बिहारी वाजपेयी


  Jan 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, January 24, 2017

व्यक्तित्व का मध्यांतर

Image may contain: 1 person, closeup

लो आ पहुँचा सूरज के चक्रों का उतार
रह गई अधूरी धूप उम्र के आँगन में
हो गया चढ़ावा मंद वर्ण–अंगार थके
कुछ फूल रह गए शेष समय के दामन में।

खंडित लक्ष्यों के बेकल साये ठहर गए
थक गये पराजित यत्नों के अन–रुके चरण
मध्याह्न बिना आये पियराने लगी धूप
कुम्हलाने लगा उमर का सूरजमुखी बदन।

वह बाँझ अग्नि जो रोम–रोम में दीपित थी
व्यक्तित्व देह को जला स्वयं ही राख हुई
साहस गुमान की दोज उगी थी जो पहले
वह पीत चंद्रमा वाला अन्धा पाख हुई।

रंगीन डोरियाँ ऊध्र्व कामनाओं वाली
थे खींचे जिनसे नय–नये आकाश दिये
हर चढ़े बरस ने तूफानी उँगलियाँ बढ़ा
अधजले दीप वे एक–एक कर बुझा दिये।

तन की छाया सी साथ रही है अडिग रात
पथ पर अपने ही चलते पाँव चमकते हैं
रह जाती ज्यों सोने की रेत कसौटी पर
सोने के बदले सिर्फ निशान झलकते हैं।

आ रहीं अँँधिकाएँ भरने को श्याम रंग
हर उजले रंग का चमक चँदोवा मिटता है
नक्षत्र भावनाओं के बुझते जाते हैं
हर चाँद कामना का सियाह हो उगता है।

हर काम अधूरे रहे वर्ष रस के बीते
वय के वसंत की सूख रही आख़िरी कली
तूफ़ान भँवर में पड़ कर भी मोती न मिले
हर मोती में सूनी वन्धया चीत्कार मिली।

चल रहा उमर का रथ दिनान्त के पहियों पर
मंज़िलें खोखली पथ ऊसर एकाकी है
गति व्यर्थ गई उपलब्धिहीन साधना रही
मन में लेकिन संध्या की लाली बाकी है।

इस लाली का मैं तिलक करूँ हर माथे पर
दूँ उन सब को जो पीड़ित हैं मेरे समान
दुख‚ दर्द‚ अभाव भोगकर भी जो झुके नहीं
जो अन्यायों से रहे जूझते वक्ष तान।

जो सज़ा भोगते रहे सदा सच कहने की
जो प्रभुता‚ पद‚ आतंकों से नत हुए नहीं
जो विफल रहे पर कृपा ना माँगी घिघियाकर
जो किसी मूल्य पर भी शरणागत हुए नहीं।

∼ गिरिजा कुमार माथुर


  Jan 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

उतना तुम पर विश्वास बढ़ा।

Image may contain: 2 people, closeup
 
बाहर के आंधी पानी से मन का तूफान कहीं बढ़कर‚
बाहर के सब आघातों से‚ मन का अवसान कहीं बढ़कर‚
फिर भी मेरे मरते मन ने तुम तक उड़ने की गति चाही‚
तुमने अपनी लौ से मेरे सपनों की चंचलता दाही‚
इस अनदेखी लौ ने मेरी बुझती पूजा में रूप गढ़ा‚
जितनी तुम ने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढ़ा।

प्राणों में उमड़ी थी कितने अनगाए गीतों की हलचल‚
जो बह न सके थे वह आंसू भीतर भीतर ही तप्त विकल‚
रुकते रुकते ही सीख गये थे सुधि के सुमिरन में बहना‚
तुम जान सकोगे क्या न कभी मेरे अर्पित मन का सहना‚
तुमने सब दिन असफलता दी मैंने उसमें वरदान पढ़ा‚
जितनी तुम ने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढ़ा।

मैने चाहा तुम में लय हो स्वासों के स्वर सा खो जाना‚
मैं प्रतिक्षण तुममें ही बीतूं – हो पूर्ण समर्पण का बाना‚
तुमने क्या जाने क्या करके मुझको भंवरों में भरमाया‚
मैंने अगणित मंझधारों में तुमको साकार खड़ा पाया‚
भयकारी लहरों में भी तो तुम तक आने का चाव चढ़ा‚
जितनी तुम ने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढ़ा।

मेरे मन को आधार यही यह सब कुछ तुम ही देते हो‚
दुःख में तन्मयता देकर तुम सुख की मदिरा हर लेते हो‚
मैंने सारे अभिमान तजे लेकिन न तुम्हारा गर्व गया‚
संचार तुम्हारी करुणा का मेरे मन में ही नित्य नया‚
मैंने इतनी दूरी में भी तुम तक आने का स्वप्न गढ़ा‚
जितनी तुम ने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढा।

मुझको न मिलन की आशा है अनुमान तुम्हें मैं कितना लूं‚
मन में बस एक पिपासा है पहचान तुम्हें मैं कितना लूं‚
जो साध न पूरी हो पायी उसमें ही तुम मंडराते हो‚
जो दीप न अब तक जल पाया उसमें तुम स्नेह सजाते हो;
तुम जितने दूर रहे तुम पर उतना जीवन का फूल चढ़ा‚
जितनी तुम ने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढा।

आभास तुम्हारी महिमा का कर देता है पूजा मुश्किल‚
परिपूर्ण तुम्हारी वत्सलता करती मन की निष्ठा मुश्किल‚
मैं सब कुछ तुममें ही देखूं सब कुछ तुममें ही हो अनुभव‚
मेरा दुर्बल मन किंतु कहां होने देता यह सुख संभव‚
जितनी तन की धरती डूबी उतना मन का आकाश बढ़ा‚
जितनी तुम ने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढा।

~ रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’

  Jan 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, January 22, 2017

ख़ुलूसो मोहब्बत की खुशबू

ख़ुलूसो मोहब्बत की खुशबू से तर है
चले आइये, ये अदीबों का घर है।

अलग ही मज़ा है फ़क़ीरी का अपना
न पाने की चिंता, न खोने का डर है।

~ दीक्षित दनकौरी

  Jan 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हर इक क़दम पे ज़ख़्म नए खाए

Image may contain: 1 person, smiling, closeup and outdoor

हर इक क़दम पे ज़ख़्म नए खाए किस तरह
रिंदों की अंजुमन में कोई जाए किस तरह
*रिंद=पीने वाला; अंजुमन=महफिल

सहरा की वुसअतों में रहा उम्र भर जो गुम
सहरा की वहशतों से वो घबराए किस तरह
*सहरा=रेगिस्तान; वुसअतों=विस्तार; वहशत=दरिंदगी

जिस ने भी तुझ को चाहा दिया उस को तू ने ग़म
दुनिया तिरे फ़रेब कोई खाए किस तरह

ज़िंदाँ पे तीरगी के हैं पहरे लगे हुए
पुर-हौल ख़्वाब-गाह में नींद आए किस तरह
*तीरगी=अंधेरा; पुर-हौल=डरावने; ख़्वाब-गाह=शयन गृह

ज़ंजीर-ए-पा कटी तो जवानी गुज़र गई
होंटों पे तेरा नाम-ए-'सबा' लाए किस तरह
*ज़ंजीर-ए-पा=पैरों की ज़ंजीर

~ सिब्त अली सबा


  Jan 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

चलो हम दोनों चलें वहां

भरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।
जहां दिन भर महुआ पर झूल,
रात को चू पड़ते हैं फूल,
बांस के झुरमुट में चुपचाप,
जहां सोये नदियों के कूल;
हरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।
विहंग मृग का ही जहां निवास,
जहां अपने धरती आकाश,
प्रकृति का हो हर कोई दास,
न हो पर इसका कुछ आभास;
खरे जंगल के के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

∼ पंडित नरेंद्र शर्मा



  May 29, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Saturday, January 21, 2017

मेरे पथ पर शूल बिछाकर

Image may contain: 1 person, sitting


मेरे पथ पर शूल बिछाकर
दूर खड़े मुस्काने वाले,
दाता ने संबंधी पूछे पहला नाम तुम्हारा लूंगा।

आंसू आहें और कराहें
ये सब मेरे अपने ही हैं,
चांदी मेरा मोल लगाए
शुभचिंतक ये सपने ही हैं।

मेरी असफलता की चर्चा
घर–घर तक पहुंचाने वाले
वरमाला यदि हाथ लगी तो इसका श्रेय तुम्ही को दूंगा।

सिर्फ उन्हीं का साथी हूं मैं
जिनकी उम्र सिसकते गुज़री,
इसीलिये बस अंधियारे से
मेरी बहुत दोस्ती गहरी।

मेरे जीवित अरमानों पर
हँस–हँस कफन उढ़ाने वाले
सिर्फ तुम्हारा क़र्ज चुकाने एक जनम मैं और जियूंगा।

मैंने चरण धरे जिस पथ पर
वही डगर बदनाम हो गयी,
मंजिल का संकेत मिला तो
बीच राह में शाम हो गई।

जनम जनम के साथी बन कर
मुझसे नज़र चुराने वाले,
चाहे जितना श्राप मुझे दो मैं सबको आशीश कहूंगा।

~ नरेंद्र दीपक


  Jan 21, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

सुर्मा लगाया कीजिए

सुर्मा लगाया कीजिए आँखों में मेहरबाँ
इक्सीर ये सुफ़ूफ़ है बीमार के लिए।

*इक्सीर=ऐसी दवा जो लोहे को सोने में बदल दे; सुफ़ूफ़=पाउडर

~ हैदर अली आतिश


  Jan 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, January 20, 2017

जैसे सूखा ताल बच रहे

Image may contain: flower and plant

जैसे सूखा ताल बच रहे
या कुछ कंकड़ या कुछ काई,
जैसे धूल भरे मेले में
चलने लगे साथ तन्हाई,
तेरे बिन मेरे होने का
मतलब कुछ कुछ ऐसा ही है,
जैसे सिफ़रों की क़तार
बाकी रह जाए बिना इकाई।

जैसे ध्रुवतारा बेबस हो,
स्याही सागर में घुल जाए
जैसे बरसों बाद मिली चिठ्ठी
भी बिना पढ़े घुल जाए
तेरे बिन मेरे होने का
मतलब कुछ कुछ ऐसा ही है,
जैसे लावारिस बच्चे की
आधी रात नींद खुल जाए।

जैसे निर्णय कर लेने पर
मन में एक द्विधा रह जाए,
जैसे बचपन की किताब में
कोई फूल मुँदा रह जाए
मेरे मन में तेरी यादें
अब भी कुछ ऐसे अंकित हैं
जैसे खँडहर पर शासक का
शासन काल खुदा रह जाए।

∼ रमेश गौड़


  Jan 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

सूरज डूब गया बल्ली भर

Image may contain: outdoor

सूरज डूब गया बल्ली भर-
सागर के अथाह जल में।
एक बाँस भर उठ आया है-
चांद, ताड़ के जंगल में।

अगणित उँगली खोल, ताड़ के पत्र, चाँदनी में डोले,
ऐसा लगा, ताड़ का जंगल सोया रजत-छत्र खोले।
कौन कहे, मन कहाँ-कहाँ
हो आया, आज एक पल में।

बनता मन का मुकुर इंदु, जो मौन गगन में ही रहता,
बनता मन का मुकुर सिंधु, जो गरज-गरज कर कुछ कहता।
शशि बनकर मन चढा गगन पर,
रवि बन छिपा सिंधु तल में।

परिक्रमा कर रहा किसी की, मन बन चाँद और सूरज,
सिंधु किसी का हृदय-दोल है, देह किसी की है भू-रज।
मन को खेल खिलाता कोई,
निशि दिन के छाया-छल में।

एक बाँस भर उठ आया है
चांद, ताड़ के जंगल में।

~ नरेन्द्र शर्मा


  Jan 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आभारी हूँ बहुत दोस्तो

Image may contain: 7 people

आभारी हूँ बहुत दोस्तो, मुझे तुम्हारा प्यार मिला
सुख में, दुख में, हार-जीत में एक नहीं सौ बार मिला!

सावन गरजा, भादों बरसा, घिर-घिर आई अँधियारी
कीचड़-कांदों से लथपथ हो, बोझ हुई घड़ियाँ सारी
तुम आए तो लगा कि कोई कातिक का त्योहार मिला!

इतना लम्बा सफ़र रहा, थे मोड़ भयानक राहों में
ठोकर लगी, लड़खड़ाया, फिर गिरा तुम्हारी बाँहों में
तुम थे तो मेरे पाँवों को छिन-छिनकर आधार मिला!

आया नहीं फ़रिश्ता कोई, मुझको कभी दुआ देने
मैंने भी कब चाहा, दूँ इनको अपनी नौका खेने
बहे हवा-से तुम, साँसों को सुन्दर बंदनवार मिला!

हर पल लगता रहा कि तुम हो पास कहीं दाएँ-बाएँ
तुम हो साथ सदा तो आवारा सुख-दुख आए-जाए
मृत्यु-गंध से भरे समय में जीवन का स्वीकार मिला!

~ रामदरश मिश्र


  Jan 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, January 17, 2017

संसार

Image may contain: 1 person

निश्वासों सा नीड़ निशा का
बन जाता जब शयनागार,
लुट जाते अभिराम छिन्न
मुक्तावलियों के वंदनवार
तब बुझते तारों के नीरव नयनों का यह हाहाकार,
आँसू से लिख जाता है ‘कितना अस्थिर है संसार’!

हँस देता जब प्रात, सुनहरे
अंचल में बिखरा रोली,
लहरों की बिछलन पर जब
मचली पड़तीं किरणें भोली
तब कलियाँ चुपचाप उठा कर पल्लव के घूँघट सुकुमार,
छलकी पलकों से कहतीं है ‘कितना मादक है संसार’!

देकर सौरभ दान पवन से
कहते जब मुरझाए फूल,
‘जिसके पथ में बिछे वही
क्यों भरता इन आँखों में धूल’
‘अब इनमें क्या सार’ मधुर जब गाती भौंरों की गुंजार,
मर्मर का रोदन कहता है ‘कितना निष्ठुर है संसार’!

स्वर्ण वर्ण से दिन लिख जाता
जब अपने जीवन की हार
गोधूली नभ के आँगन में
देती अगणित दीपक बार
हँस कर तब उस पार तिमिर का कहता बढ़ बढ़ पारावार
‘बीते युग पर बन हुआ है 'अब तक मतवाला संसार’!

स्वप्नलोक के फूलों से कर
अपने जीवन का निर्माण,
‘अमर हमारा राज्य’ सोचते
हैं जब मेरे पागल प्राण
आकर तब अज्ञात देश से जाने किसकी मृदु झंकार,
गा जाती है करुण स्वरों में ‘कितना पागल है संसार’!

~ महादेवी वर्मा


  Jan 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

सबसे ख़तरनाक

Image may contain: night, sky and outdoor

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-सोए पकड़े जाना – बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना – बुरा तो है
भींचकर जबड़े बस वक्‍त काट लेना – बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वह घड़ी होती है
तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो
तुम्हारी नज़र के लिए रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वह आँख होती है
जो सबकुछ देखती हुई भी ठण्डी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को
मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अन्धेपन की
भाप पर मोहित हो जाती है
जो रोज़मर्रा की साधारणतया को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दोहराव के दुष्चक्र में ही गुम जाती है

सबसे ख़तरनाक वह चाँद होता है
जो हर कत्ल-काण्ड के बाद
वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है
लेकिन तुम्हारी आँखों में मिर्चों की तरह नहीं लड़ता है

सबसे ख़तरनाक वह गीत होता है
तुम्हारे कान तक पहुंचने के लिए
जो विलाप को लाँघता है
डरे हुए लोगों के दरवाज़े पर जो
गुण्डे की तरह हुँकारता है

सबसे ख़तरनाक वह रात होती है
जो उतरती है जीवित रूह के आकाशों पर
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते गीदड़ हुआते
चिपक जाता सदैवी अँधेरा बन्द दरवाज़ों की चैगाठों पर

सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाये
और उसकी मुर्दा धूप की कोई फांस
तुम्हारे जिस्म के पूरब में चुभ जाये

~ अवतार संधू पाश


  Jan 16, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Sunday, January 15, 2017

मन का कंगन बेच दिया

Image may contain: 1 person, shoes, mountain, sunglasses, outdoor and nature

अब काया का मोह नहीं, यह चाहे जिस वन में भटके
पापों के व्यापारी को जब, मन का कंगन बेच दिया

अनचाहे सुख का जीवन, कितनी हसीन लाचारी था
क्या कह दूँ, किससे कह दूँ, यह सागर कितना खारी था
मत आँजो तुम आँख, मांग में मत सुहाग सिंदूर भरो
निर्जनता के बदले बाँहों का मृदु बंधन बेच दिया

अपमानों का गँदला पानी पी जीवन की बेल बढ़ी
और इसे था गर्व कि कितने-कितने ऊँचे शिखर चढ़ी
लेकिन क्षमा करो, मुझको मुर्झाने दो, मिट जाने दो
दुख की पूंजी के बदले में सुख का क्रंदन बेच दिया

क्षण-क्षण पल-पल पर कड़वी दुविधा ने डेरा डाला था
मैं मकड़ी था और मुझे घेरे ख़ुद मेरा जाला था
ऐसी हूक उठी मन में, रग-रग में ऐसा दर्द जगा
मैंने अभिशापों के बदले युग का वंदन बेच दिया

जिसको जीवन कहा, मौत के घर की वह पगडंडी थी
आईं सांसें चार एक से एक अधिक ही ठंडी थी
और आज जब छोर पाँव के नीचे सोच रहा हूँ मैं
अब चलना कैसा जब विष के बदले चंदन बेच दिया

~ भीमसेन त्यागी


  Jan 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

उम्र लहरों सी तट पर बिछलती रही

Image may contain: one or more people, ocean, sky, cloud, twilight, outdoor, water and nature



नाव चलती रही, सांझ ढलती रही,
उम्र लहरों सी तट पर बिछलती रही।

कौन सी रागनी बज रही है यहाँ
देह से अजनबी प्राण से अजनबी
क्या अजनबी रागनी के लिये
जिंदगी की त्वरा यूँ मचलती रही
नाव चलती रही, सांझ ढलती रही,
उम्र लहरों सी तट पर बिछलती रही।
त्वरा=शीघ्रता, तेज़ी

रुक गए यूँ कदम मुड़ के देखूँ ज़रा
है वहां अब भी ज़िंदा दिली ताज़गी
राह कोई भी पकड़ू वहाँ के लिये
राह हर एक बच कर निकलती रही
नाव चलती रही, सांझ ढलती रही,
उम्र लहरों सी तट पर बिछलती रही।

हर सुमन खिल रहा है बड़ी शान से
हर चमन उस पे सौ जान से है फ़िदा
तू सुमन भी नहीं, तू चमन भी नहीं
शाख पर एक मैना चहकती रही
नाव चलती रही, सांझ ढलती रही,
उम्र लहरों सी तट पर बिछलती रही।

धुप भी वही, चाँदनी भी वही
जिंदगी भी वही, बानगी भी वही
कौन जाने कि क्यों एक धुंधली परत
बीच में यूँ कुहासे सी तिरती रही
नाव चलती रही, सांझ ढलती रही,
उम्र लहरों सी तट पर बिछलती रही।

वृद्ध पापा हुए, माँ बहुत ढल गई
ज़िंदगी साँप सी फन पटकती रही
क्या हुआ एक पीढ़ी गुज़र भी गई
इक नई पौध उगती, उमगती रही
नाव चलती रही, सांझ ढलती रही,
उम्र लहरों सी तट पर बिछलती रही।

सत्य है वह सभी जो कि मैंने जिया
सत्य वह भी कि जो रह गया अन-जिया
कौन से तट, उतरना कहाँ है मुझे
एक पाती हवा में भटकती रही
नाव चलती रही, सांझ ढलती रही,
उम्र लहरों सी तट पर बिछलती रही।

∼ वीरबाला भावसार
 

  Jan 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

पतंग

Image may contain: 1 person


पतंग
मेरे लिए उर्ध्वगति का उत्सव
मेरा सूर्य की ओर प्रयाण।

पतंग
मेरे जन्म-जन्मांतर का वैभव,
मेरी डोर मेरे हाथ में
पदचिह्न पृथ्वी पर,
आकाश में विहंगम दृश्य।

मेरी पतंग
अनेक पतंगों के बीच...
मेरी पतंग उलझती नहीं,
वृक्षों की डालियों में फंसती नहीं।

पतंग
मानो मेरा गायत्री मंत्र।
धनवान हो या रंक,
सभी को कटी पतंग एकत्र करने में आनंद आता है,
बहुत ही अनोखा आनंद।

कटी पतंग के पास
आकाश का अनुभव है,
हवा की गति और दिशा का ज्ञान है।
स्वयं एक बार ऊंचाई तक गई है,
वहां कुछ क्षण रुकी है।

पतंग
मेरा सूर्य की ओर प्रयाण,
पतंग का जीवन उसकी डोर में है।
पतंग का आराध्य(शिव) व्योम(आकाश) में,
पतंग की डोर मेरे हाथ में,
मेरी डोर शिव जी के हाथ में।

जीवन रूपी पतंग के लिए(हवा के लिए)
शिव जी हिमालय में बैठे हैं।
पतंग के सपने(जीवन के सपने)
मानव से ऊंचे।

पतंग उड़ती है,
शिव जी के आसपास,
मनुष्य जीवन में बैठा-बैठा,
उसकी डोर को सुलझाने में लगा रहता है।

~ नरेंद्र मोदी


  Jan 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बात पर याद आ गई है बात

Image may contain: 1 person, closeup


आह सी धूल उड़ रही है आज
चाह-सा काफ़िला खड़ा है कहीं
और सामान सारा बेतरतीब
दर्द-सा बिन-बँधे पड़ा है कहीं
कष्ट सा कुछ अटक गया होगा
मन-सा राहें भटक गया होगा
आज तारों तले बिचारे को
काटनी ही पड़ेगी सारी रात

बात पर याद आ गई है बात

स्वप्न थे तेरे प्यार के सब खेल
स्वप्न की कुछ नहीं बिसात कहीं
मैं सुबह जो गया बगीचे में
बदहवास हो के जो नसीम बही
पात पर एक बूँद थी ढलकी
आँख मेरी मगर नहीं छलकी
हाँ, बिदाई तमाम रात आई
याद रह रह के कँपकँपाया गात

बात पर याद आ गई है बात

~ दुष्यंत कुमार


  Jan 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

पहले सौ बार इधर और

पहले सौ बार इधर और उधर देखा है
तब कहीं डर के तुम्हें एक बार देखा है

~ मजरूह सुल्तानपुरी

  Jan 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Thursday, January 12, 2017

आओ कुछ राहत दें




आओ कुछ राहत दें इस क्षण की पीड़ा को
क्योंकि नये युग की तो बात बड़ी होती है
अपने हैं लोग यहाँ बैठो कुछ बात करो
मुश्किल से हीं नसीब ऐसी घड़ी होती है

दर्द से लड़ाई की काँटों से भरी डगर
एक शुरुआत करें आज रहे ध्यान मगर,
झूठे पैगम्बर तो मौज किया करते हैं
ईसा के हाथों में कील गड़ी होती है

हमराही हिम्मत से बीहड़ को पार करो
आहों के सौदागर तबकों पर वार करो
जिनको हम शेर समझ डर जाया करते हैं
अक्सर तो भूसे पर ख़ाल मढ़ी होती है

संकल्पों और लक्ष्य बीच बड़ी दूरी है
मन है मजबूर मगर कैसी मज़बूरी है,
जब तक हम जीवन की गुत्थी को सुलझाएँ
अपनी अगवानी में मौत खड़ी होती है

~ दिनेश मिश्र


  Jan 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, January 11, 2017

एक चाय की चुस्की

Image may contain: 2 people, people eating, people sitting and food

एक चाय की चुस्की,
एक कहकहा,
अपना तो इतना सामान ही रहा ।

चुभन और दंशन
पैने यथार्थ के,
पग-पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के,
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा।
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा।

एक अदद गंध
एक टेक गीत की,
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की,
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा।
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा।

एक क़सम जीने की
ढेर उलझनें,
दोनों ग़र नहीं रहे
बात क्या बने,
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा।
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा।

~ उमाकांत मालवीय


  Jan 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हसीनों से फ़क़त साहिब


Image may contain: 1 person, smiling, closeup

हसीनों से फ़क़त साहिब-सलामत दूर की अच्छी
न उन की दोस्ती अच्छी न उन की दुश्मनी अच्छी

ज़माना फ़स्ल-ए-गुल का और आग़ाज़-ए-शबाब अपना
अभी से तू ने तौबा की भी ऐ ज़ाहिद कही अच्छी
*फ़स्ल-ए-गुल=वसंत; आग़ाज़-ए-शबाब=यौवन की शुरुआत

जफ़ा-दोस्त उस को कहता है कोई कोई वफ़ा-दुश्मन
हमारे साथ तो उस ने निबाही दोस्ती अच्छी
*जफ़ा=अन्याय; वफ़ा=निष्ठा

तिरी ख़ातिर से ज़ाहिद हम ने तौबा आज की वर्ना
घड़ी भर ग़म ग़लत करने को बस वो चीज़ थी अच्छी
*ज़ाहिद=सांसारिकता से दूर ईश्वर का भक्त (जो शराब भी नहीं पीता है)

ज़ियादा ऐ फ़लक दे रंज-ओ-राहत हम को जो कुछ दे
न दो दिन का ये ग़म अच्छा न दो दिन की ख़ुशी अच्छी
*फ़लक=आकाश; रंज-ओ-राहत=दुख और आराम

कभी जब हाथ मल कर उन से कहता हूँ कि बे-बस हूँ
तो वो हँस कर ये कहते हैं तुम्हारी बेबसी अच्छी

जो सच पूछो हसीनों का हया ने रख लिया पर्दा
निकल चलते घरों से ये तो होती दिल-लगी अच्छी
*दिल-लगी=मनोरंजन

हम आएँ आप में या-रब वो जिस दम आएँ बालीं पर
हुजूम-ए-रंज-ए-तन्हाई से है ये बे-ख़ुदी अच्छी
*बालीं=छत; हुजूम=भीड़; रंज-ए-तन्हाई=दुख और अकेलेपन; बे-ख़ुदी=नशे की अवस्था

मोहब्बत के मज़े से दिल नहीं है आश्ना जिस का
न उस की ज़िंदगी अच्छी न उस की मौत ही अच्छी
*आश्ना=परिचित

उसे दुनिया की सौ फ़िक्रें हमें इक रंग-ए-नादारी
कहीं मुनइम की दौलत से हमारी मुफ़्लिसी अच्छी
*नादारी=गरीबी; मुनइम=अमीर; मुफ़्लिसी=गरीबी

ख़ुशी के ब'अद ग़म का सामना होना क़यामत है
जो ग़म के ब'अद हासिल हो वो अलबत्ता ख़ुशी अच्छी

न छूटेगी मोहब्बत ग़ैर की हम से न छूटेगी
अजी ये बात तुम ने आज तो खुल कर कही अच्छी

हमारे दीदा-ओ-दिल में हज़ारों ऐब निकलेंगे
तुम्हारा आइना अच्छा तुम्हारी आरसी अच्छी
*दीदा=आँख; आरसी=शीशा

कहे सौ शेर तुम ने सुस्त तो हासिल 'हफ़ीज़' इस का
ग़ज़ल हो चुस्त छोटी सी तो बैतों की कमी अच्छी
*बैत=किसी शेर या पद्य के दोनों चरण।

~ हफ़ीज़ जौनपुरी


  Jan 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Monday, January 9, 2017

ऐ दिल पहले भी तन्हा थे

Image may contain: one or more people, people standing, ocean, sky, twilight, cloud, outdoor, water and nature

ऐ दिल पहले भी तन्हा थे, ऐ दिल हम तन्हा आज भी हैं
और उन ज़ख़्मों और दाग़ों से अब अपनी बातें होती हैं
जो ज़ख़्म कि सुर्ख़ गुलाब हुए, जो दाग़ कि बदर-ए-मुनीर हुए
इस तरहा से कब तक जीना है, मैं हार गया इस जीने से
*बदर-ए-मुनीर=चमकता हुआ चाँद

कोई अब्र उड़े किसी क़ुल्ज़ुम से रस बरसे मिरे वीराने पर
कोई जागता हो कोई कुढ़ता हो मिरे देर से वापस आने पर
कोई साँस भरे मिरे पहलू में कोई हाथ धरे मिरे शाने पर
*अब्र=बादल; क़ुल्ज़ुम=समंदर; शाने=कंधे

और दबे दबे लहजे में कहे तुम ने अब तक बड़े दर्द सहे
तुम तन्हा तन्हा जलते रहे तुम तन्हा तन्हा चलते रहे
सुनो तन्हा चलना खेल नहीं, चलो आओ मिरे हम-राह चलो
चलो नए सफ़र पर चलते हैं, चलो मुझे बना के गवाह चलो

~ साक़ी फ़ारुक़ी


  Jan 09, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

फूल को तोड़ो नहीं


Image may contain: 1 person, standing and outdoor


फूल को तोड़ो नहीं
फूल को शाख़ से जुड़ा रहने दो ।
गंध की साँस लेती टहनियों के हाथों में
जो यह खिला फूल है
वह जीवन की एक ऋचा है
जिसे पेड़ गाते हैं -
पेड़ों की इस ऋचा को
गंधों के सामगान को
पेड़ पर ही रहने दो।

तुम्हारे गुलदस्ते में
तुम्हारे बटन-होल में
वह राग का प्रवाह नहीं है
जिससे उगते सूरज का अनुष्टुप छंद बनता है ।
वहाँ सजाते समय
तुम्हारी उँगलियों में
एक स्वार्थ है
एक लोभ है
जिससे ऋचाएँ और छंद
यानी साँसों का अनवरत बहाव
टूटने लगते हैं।

तुम अपने साथ
अपने नाड़ी-प्रवाह के साथ
इसे जोड़ नहीं पाओगे
क्योंकि तुमने
गुलदस्ते और बटन-होल के मोह में
अपने को जीवन के
शाश्वत-सनातन सामगान से
अलग रखा है ।
मोह की स्थितियों से
छंद बनते नहीं हैं
बिगड़ते हैं।

फूल को शाख़ पर ही रहने दो -
वहीँ उसे खिलने और मरने दो;
वहाँ फूल मरकर भी नहीं मरता
क्योंकि झरते समय
टहनियों पर वह अपना बीज छोड़ जाता है ।
गंध का वह बीज
किसी अगले पेड़ का जन्म बनता है ।
तुम्हारे तोड़ लेने से
वह गंधों का भविष्य
वह नया जन्म
सदा के लिए मर जाता है -
हाँ, तुम्हारी ललचाई उँगलियों में
मृत्यु की छुवनें हैं
जन्म की नहीं।

फूल को तोड़ो नहीं
फूल को शाख़ से जुड़ा रहने दो।

~ कुमार रवींद्र


  Jan 08, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

यदि फूल नहीं बो सकते तो

Image may contain: 1 person, standing and outdoor


यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।

है अगम चेतना की घाटी, कमज़ोर बड़ा मानव का मन,
ममता की शीतल छाया में, होता कटुता का स्वयं शमन।
ज्वालाएँ जब घुल जाती हैं, खुल-खुल जाते हैं मुँदे नयन,
होकर निर्मलता में प्रशांत बहता प्राणों का क्षुब्ध पवन।

संकट में यदि मुस्का न सको, भय से कातर हो मत रोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।

हर सपने पर विश्वास करो, लो लगा चाँदनी का चंदन,
मत याद करो, मत सोचो, ज्वाला में कैसे बीता जीवन।
इस दुनिया की है रीत यही - सहता है तन, बहता है मन,
सुख की अभिमानी मदिरा में, जो जाग सका वह है चेतन।

इसमें तुम जाग नहीं सकते, तो सेज बिछाकर मत सोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।

पग - पग पर शोर मचाने से, मन में संकल्प नहीं जगता,
अनसुना - अचीन्हा करने से, संकट का वेग नहीं थमता।
संशय के सूक्ष्म कुहासों में, विश्वास नहीं क्षण भर रमता,
बादल के घेरों में भी तो, जयघोष न मारुत का थमता।

यदि बढ़ न सको विश्वासों पर, साँसों के मुर्दे मत ढ़ोओ।
यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ

~ रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'


  Jan 07, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, January 6, 2017

इक पल में इक सदी का मज़ा





































इक पल में इक सदी का मज़ा हम से पूछिए
दो दिन की ज़िंदगी का मज़ा हम से पूछिए

भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए
*रफ़्ता रफ़्ता=धीरे धीरे

आग़ाज़-ए-आशिक़ी का मज़ा आप जानिए
अंजाम-ए-आशिक़ी का मज़ा हम से पूछिए

जलते दियों में जलते घरों जैसी ज़ौ कहाँ
सरकार रौशनी का मज़ा हम से पूछिए
*ज़ौ=रौशनी, चमक

वो जान ही गए कि हमें उन से प्यार है
आँखों की मुख़बिरी का मज़ा हम से पूछिए

हँसने का शौक़ हम को भी था आप की तरह
हँसिए मगर हँसी का मज़ा हम से पूछिए

हम तौबा कर के मर गए बे-मौत ऐ 'ख़ुमार'
तौहीन-ए-मय-कशी का मज़ा हम से पूछिए
*मय-कशी=शराब पीना

~ ख़ुमार बाराबंकवी


  Jan 06, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Thursday, January 5, 2017

कौन कहता है मोहब्बत की

Image may contain: 1 person, indoor

कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है
ये हक़ीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है।

वो न आए तो सताती है ख़लिश सी दिल को
वो जो आए तो ख़लिश और जवाँ होती है।
*ख़लिश=दर्द

रूह को शाद करे दिल को जो पुर-नूर करे
हर नज़ारे में ये तनवीर कहाँ होती है।
*शाद=प्रसन्न; पुर-नूर=प्रकाशित; तनवीर=उजाला

ज़ब्त सैलाब-ए-मोहब्बत को कहाँ तक रोके
दिल में जो बात हो आँखों से अयाँ होती है।
*ज़ब्त=आत्मसंयम; सैलाब-ए-मोहब्बत=प्रेम का सागर; अयाँ=प्रत्यक्ष

ज़िंदगी एक सुलगती सी चिता है 'साहिर'
शोअ'ला बनती है न ये बुझ के धुआँ होती है।

~ साहिर होशियारपुरी


  Jan 05, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, January 4, 2017

मन को वश में करो

Image may contain: 1 person

मन को वश में करो
फिर चाहे जो करो।

कर्ता तो और है
रहता हर ठौर है
वह सबके साथ है
दूर नहीं पास है
तुम उसका ध्यान धरो
फिर चाहे जो करो।

सोच मत बीते को
हार मत जीते को
गगन कब झुकता है
समय कब रुकता है
समय से मत लड़ो
फिर चाहे जो करो।

रात वाल सपना
सवेरे कब अपना
रोज़ यह होता है
व्यर्थ क्यों रोता है
डर के मत मरो
फिर चाहे जो करो।

मन को वश में करो
फिर चाहे जो करो।

∼ रमानाथ अवस्थी


  Jan 04, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, January 3, 2017

क्यों प्रभु, क्यों?

Image may contain: 1 person, closeup


मन मेरा क्यों अनमन
कैसा यह परिवर्तन
क्यों प्रभु, क्यों?

डोर में, पतंगों में
प्रकृति रूप रंगों में
कथा में, प्रसंगों में
कविता के छंदों में
झूम–झूम जाता था,
अब क्यों वह बात नही
क्यों प्रभु, क्यों?

सागर तट रेतों में
सरसों के खेतों में
स्तब्ध निशा तारों के
गुपचुप संकेतों में
घंटों खो जाता था
अब क्यों वह बात नही,
क्यों प्रभु, क्यों?

रैनों की घातों में
प्रियतम की बातों में
अश्रुपूर्ण पलकों की
अंतिम सौगातों में
रोता हर्षाता था
अब क्यों वह बात नही
क्यों प्रभु, क्यों?

साधु में, संतों में
मठों में, महंतों में
नतमस्तक पूजा में
मंदिर के घंटों में
जमता रम जाता था
अब क्यों वह बात नही,
क्यों प्रभु, क्यों?

चिंतन की शामों में
बौद्धिक व्यायामों में
दर्शन के उलझे कुछ
अद्भुद आयामों में
झूलता–झुलाता था
अब क्यों वह बात नही
क्यों प्रभु, क्यों?

मेझ में, फुहारों में
फूल में, बहारों में
मौसम के संग आते
जाते त्यौहारों में
मस्त मगन गाता था
अब क्यों वह बात नही,
क्यों प्रभु, क्यों?

जग का यह रंगमंच
वेश नया धरता हूँ
त्याग पुरातन, लेकर
राह नई चलता हूँ
अंतर–संगीत नया
गीत नया गाता हूँ
बाध्य नही परिवर्तन
फिर भी अपनाता हूँ,
क्यों प्रभु, क्यों?

~ राजीव कृष्ण सक्सेना

  Jan 03, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Monday, January 2, 2017

आओ मन की गांठे खोलें

Image may contain: one or more people

आओ मन की गांठे खोलें।

यमुना तट, टीले रेतीले,
घास फूस का घर डंडे पर,
गोबर से लीपे आँगन में,
तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर.
माँ के मुँह से रामायण के दोहे चौपाई रस घोलें।
आओ मन की गांठे खोलें।

बाबा की बैठक में बिछी
चटाई बाहर रखे खड़ाऊँ,
मिलने वालों के मन में
असमंजस, जाऊं ना जाऊं,
माथे तिलक, आंख पर ऐनक, पोथी खुली स्वंय से बोलें।
आओ मन की गांठे खोलें।

सरस्वती की देख साधना,
लक्ष्मी ने संबंध ना जोड़ा,
मिट्टी ने माथे के चंदन
बनने का संकल्प ना तोड़ा,
नये वर्ष की अगवानी में, टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें।
आओ मन की गांठे खोलें।

~ अटल बिहारी वाजपेयी


  Jan 02, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आख़िर इस नए साल में क्या नया है

Image may contain: night

इस साल हमने बहुत सोचा विचारा
यहाँ तक कि अपना सर तक दीवार पे दे मारा
बहुतों से पूछा बहुतों ने बताया
फिर भी यह रहस्य समझ में नहीं आया
कि कल और आज में अंतर क्या है
आख़िर इस नए साल में क्या नया है

वही रोज़ की मारामारी
जीवन जीने की लाचारी
बढ़ती हुई महँगाई
सरकार की सफ़ाई
राशन की लाइन
ट्रैफ़िक का फाइन
गृहस्थी की किचकिच
आफ़िस की खिचखिच
सड़कों के गढ्ढे
नेताओं के फड्डे
लेफ्ट की चाल
बेटी की ससुराल
मुर्गी या अंडा
अमरीका का फंडा
खून का स्वाद
धर्म का उन्माद
एक सा अख़बार
फिर मर गए चार
राष्ट्रगान का अपमान
मेरा भारत महान
आज भी है वही जूता लात
न हम बदले हैं न हालात
सिर्फ़ सफ़ेद हो गए चार बाल
क्या इस लिए मनाएँ नया साल

अभी हमारा मन
इस चक्कर से नहीं था निकल पाया
तभी हमारा बेटा हमारे पास आया
बोला पापा क्या आप
इस साल भी रोज़ आफ़िस से लेट आओगे
हमारे साथ बिल्कुल टाइम नहीं बिताओगे
और आ के सारा टाइम सिर्फ़ टीवी निहारोगे
आफ़िस का सारा गुस्सा भी घर पर उतारोगे
सच कहूँ
जो साथ ले के चलते हैं दुनिया के ग़म
उनकी उम्र हो जाती है दस साल कम
क्या फ़र्क पड़ता है कि क्या होगा कल
खुश रहो आज जियो हर पल
जानते हैं मैंने ये पिटारा क्यों खोला है
क्योंकि चार दिन हो गए
आपने मुझे अभी तक हैप्पी न्यू
यिअ नहीं बोला है
तब हमें ये समझ में आया
कि कुछ बदलने के लिए हर पल मनाना बहुत ज़रूरी है
और हर खुशी बिना अपनों के साथ के अधूरी है
सो इस लिए आप को विश करता हूँ डियर
नव वर्ष की शुभकामनाएँ हैप्पी न्यू यिअ
र।

∼ सरदार टुक टुक


  Jan 01, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मैं आँधी तूफ़ान लिये हूँ

No automatic alt text available.


जीवन के रेतीले तट पर‚
मैं आँधी तूफ़ान लिये हूँ।

अंतर में गुमनाम पीर है
गहरे तम से भी है गहरी
अपनी आह कहूँ तो किससे
कौन सुने‚ जग निष्ठुर प्रहरी
पी–पीकर भी आग अपरिमित
मैं अपनी मुस्कान लिये हूँ।

आज और कल करते करते
मेरे गीत रहे अनगाये
जब तक अपनी माला गूँथूँ
तब तक सभी फूल मुरझाये
तेरी पूजा की थाली में‚
मैं जलते अरमान लिये हूँ।

चलते–चलते सांझ हो गई।
रही वही मंजिल की दूरी
मृग–तृष्णा भी बांध न पायी
लखन–रेख‚ अपनी मजबूरी
बिछुड़न के सरगम पर झंकृत‚
अमर मिलन के गान लिये हूँ।

पग पग पर पत्थर औ’ कांटे
मेरे पग छलनी कर जाएं
भ्रांत–क्लांत करने को आतुर
क्षण–क्षण इस जग की बाधाएं
तुहिन तुषारी प्रलय काल में
संसृति का सोपान लिये हूं।

~ अजित शुकदेव


  Jan 01, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

विदा की घड़ी है

Image may contain: 1 person, closeup

विदा की घड़ी है
कि ढप ढप ढपा-ढप
बहे जा रहे ढोल के स्वर पवन में,
वधू भी जतन से सजाई हुई सी
लजाई हुई सी,
पराई हुई सी,
खड़ी है सदन में,
कि घूँघट छिपाए हुए चाँद को है
न जग देख पाता
मगर लाज ऐसी, कि पट ओट में भी
पलक उठ न पाते,
हृदय में जिसे कल्पना ने बसाया
नयन देखना चाहते हैं उसी को,
मगर जो सदा भृंग–सी डोलती थी
कि पट–ओट में भी
लजाकर वही दृष्टि भू पर गड़ी है,
विदा की घड़ी है।

विदा की घड़ी है,
सभी गाँव भर की
बड़ी भीड़ की भीड़ आकर जुटी है,
रुँधे कंठ मंगल–भरे गीत गाते
धड़कते हृदय धीर धीरज बँधाते,
कि गृहकाज के खुरदुरे से नरम हाथ
ढक ढक ढपक ढक्क ढोलक बजाते
सहेली सखी घेर कर बैठ जातीं
कभी हैं हँसातीं, कभी हैं रुलातीं
निकट खींच चाची, बुआ, भाभियाँ
अंक में भींच लेतीं,
नये रीति व्यौहार की
तीज–त्यौहार की सीख देतीं,
वयोवृद्ध ममता लुटी जा रही है
न कुछ बोल पाती
किसी की कुँवारी सिसकती हुई
हिचकियों के निकट
मुँह नहीं खोल पाती,
अधर पर वचन सांत्वना के उमड़ते
मगर अश्रु की बाढ़ में डूब जाते,
कि नौका किसी की,
किसी के सहारे
किसी दूसरे ही किनारे मुड़ी है,
लुटी प्राण की गाँठ की संपदा जब
तभी गाँठ जाकर किसी की जुड़ी है,
विदा की घड़ी है।

∼ राजनारायण बिसरिया


  Jan 31, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh