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Sunday, March 29, 2020

ये समुंदर है किनारे ही किनारे

 
ये समुंदर है किनारे ही किनारे जाओ
इश्क़ हर शख़्स के बस का नहीं प्यारे जाओ

यूँ तो मक़्तल में तमाशाई बहुत आते हैं
आओ उस वक़्त कि जिस वक़्त पुकारे जाओ
*मक़्तल=वध-स्थल

दिल की बाज़ी लगे फिर जान की बाज़ी लग जाए
इश्क़ में हार के बैठो नहीं हारे जाओ

काम बन जाए अगर ज़ुल्फ़-ए-जुनूँ बन जाए
इस लिए इस को सँवारो कि सँवारे जाओ
*ज़ुल्फ़-ए-जुनूँ=ज़ुल्फ़, जिन पर आसक्ति है

कोई रस्ता कोई मंज़िल इसे दुश्वार नहीं
जिस जगह चाहो मोहब्बत के सहारे जाओ

हम तो मिट्टी से उगाएँगे मोहब्बत के गुलाब
तुम अगर तोड़ने जाते हो सितारे जाओ

डूबना होगा अगर डूबना तक़दीर में है
चाहे कश्ती पे रहो चाहे किनारे जाओ

तुम ही सोचो भला ये शौक़ कोई शौक़ हुआ
आज ऊँचाई पे बैठो कल उतारे जाओ

मौत से खेल के करते हो मोहब्बत 'आजिज़'
मुझ को डर है कहीं बे-मौत न मारे जाओ

~ कलीम आजिज़

Mar 29, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Sunday, March 22, 2020

हम



बिछी हुई है बिसात कब से
ज़माना शातिर है और हम
इस बिसात के ज़िश्त-ओ-ख़ूब-ख़ानों (कुरूप या सुघड़ दड़बों) में
दस्त-ए-नादीदा (अदृश्य हाथ) के इशारों पे चल रहे हैं
बिछी हुई है बिसात अज़ल (अनादि काल) से
बिछी हुई है बिसात जिस की न इब्तिदा है न इंतिहा है
बिसात (खेल की बाज़ी) ऐसा ख़ला (शून्य) है जो वुसअत-ए-तसव्वुर (कल्पना से) मावरा (परे) है
करिश्मा-ए-काएनात (सृष्टि का चमत्कार) क्या है
बिसात पर आते जाते मोहरों का सिलसिला है
बिसात साकित (चुप) है वक़्त-ए-मुतलक़ (सर्वोच्च)

बिसात बे-जुम्बिश (अचल) और बे-हिस (असंवेदन) है
अपने मोहरों से ला-तअल्लुक़ (सम्बंध) है
उस को इस से ग़रज़ नहीं है
कि कौन जीता है
और किस ने शिकस्त खाई
वजूद (अस्तित्व) हादिस (नया) वजूद मोहरे

बिसात-ए-साकित (बिसात/खेल बिछाने का कपड़ा) की वुस'अतों (क्षणों) में
ज़मीन अहल-ए-ज़मीन (धरती-वासी) अफ़्लाक (आसमान) अहल-ए-अफ़्लाक
अपनी अपनी मुअ'य्यना (पूर्व-निर्धारित) साअ'तों (समय) में ऐसे गुज़र रहे हैं
कि जैसे आँखों से ख़्वाब गुज़रें
बिसात पर जो भी है
वो होने की मोहलतों में असीर (बंदी)
पैहम (पहनावा) बदल रहा है
वजूद वो हिद्दत-ए-रवाँ (बहती हुई ऊर्जा) है
जो नित-नई हैअतों (रूपों) में बाक़ी है
और उस को फ़ना (विनाश) नहीं

जहाँ पहाड़ों के आसमाँ-बोस (गगन-चुम्बी) सिलसिले हैं
वहाँ कभी बहर (समुद्र) मौजज़न (प्रवाहित) थे
जहाँ बयाबाँ में रेत उड़ती है
बाद-ए-मस्मूम (विषैली हवा) गूँजती है
वहाँ कभी सब्ज़ा-ज़ार-ओ-गुल-गश्त (हरे भरे बाग़ में टहलने) का समाँ था
बुलंद-ओ-बाला (ऊँचे और बेहतर) हक़ीर-ओ-हेच (छोटे और छुद्र)
इस शिकस्त-ओ-ता'मीर (विनाश और सृजन) के तसलसुल (बहाव) में बह रहे हैं
शिकस्त-ओ-ता'मीर (विनाश और सृजन) के तसलसुल (बहाव) में तू है मैं हूँ

हम ऐसे मोहरे
जिन्हें इरादे दिए गए हैं
ये जन (अवाम) की तौफ़ीक़ (सामर्थ्य) पर हदें हैं
जिन्हें तमन्ना के रंग दिखला दिए गए हैं
मगर वसीलों (साधनों) पर क़दग़नें (प्रतिबंध)हैं
जिन्हें मोहब्बत के ढंग सिखला दिए गए हैं
प दस्त-ओ-पा (हाथ और पैर) में सलासिल-ए-नौ (नई जंज़ीरें) बनो
तो गर्दन में तौक़ (साँकल) पहना दिए गए हैं

जो है जो अब तक हुआ है जो हो रहा है
उस से किसे मफ़र है
कोई जो चाहे
कि अहद-ए-रफ़्ता (गुज़रे दिन) से एक पल फिर से लौट आए
कहा हुआ लफ़्ज़ अन-कहा हो सके
तो इस आरज़ू का हासिल वो जानता है
बहुत सही इख़्तियार-ओ-इम्काँ (नियंत्रण – सम्भावनाएँ)
बर्ग-ओ-ख़स (ख़स की पत्ती) की ताब-ओ-मजाल (ताक़त और हिम्मत) क्या है
नुमू-ए-ग़ुंचा (कली के उदय होने) में उस का अपना कमाल क्या है
तिरी निगाहों में तेरा ग़म कोह (पर्वत) से गिराँ-तर (ऊँचा) है
तू समझता है
तेरे सीने के सुर्ख़ लावे से
शहर-ओ-क़र्या (शहर – गाँव) पिघल रहे हैं
ख़िज़ाँ ज़मिस्ताँ (शीत ऋतु) तिरी उदासी के आइने हैं
तू मुश्तइ'ल (उत्तेजित) हो तो ज़लज़लों से ज़मीन काँपे
तुझे गुमाँ है
कि गुल खिले हैं तिरे तबस्सुम की पैरवी में
ये फूल को इख़्तियार कब था
कि कौन सी शाख़ पर खिले
कौन कुंज में मुस्कुराए
और किन फ़ज़ाओं में ख़ुशबुएँ बिखेरे
नहीफ़ (कोमल) शो'ला जमाल (सुंदरता) कोंपल
जो दस्त-ए-नाज़ुक (नर्म हाथों) की नर्म पोरों से धीरे धीरे
दरीचा-ए-शाख़ (शाख़ से दरार) खोल कर
सुब्ह की सफ़ेदी में झाँकती है
ये सोचती है
कि बाग़ सारा उसी के दम से महक रहा है
उसी के परतव (प्रतिबिम्ब) से गोशा गोशा (कोना कोना) दमक रहा है
उसी के दीदार में मगन
ख़ुशबुओं से बोझल हवाओं में
शोख़ तितलियाँ रक़्स (नृत्य) कर रही हैं

वो बे-ख़बर है
कि शातिर-ए-वक़्त (बेहद चालक वक़्त) की नज़र में
कोई इकाई
शजर (इंसान) हजर (वस्तु) हो कि ज़ी-नफ़्स (जीवित) हो
निज़ाम-ए-कुल (पूरे तंत्र) से अलग नहीं है
वो ये नहीं जानती कि हस्ती के कार-ख़ाने में
उस का होना न होना बे-नाम हादिसा है
और उस के हिस्से का कुल असासा (सम्पत्ति)
वो चंद लम्हे वो चंद साँसें हैं
जिन में वो ख़्वाब देखती है
सलीक़ा-ए-ज़ात (अपनी रीति) से चमन को सँवारने का
बहार-ए-जाँ (जीवन के वसंत) को निखारने का

~ ज़िया जालंधरी


Mar 22, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Saturday, March 21, 2020

आता है याद मुझ को गुज़रा हुआ ज़माना

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आता है याद मुझ को गुज़रा हुआ ज़माना 
वो बाग़ की बहारें वो सब का चहचहाना
आज़ादियाँ कहाँ वो अब अपने घोंसले की
अपनी ख़ुशी से आना अपनी ख़ुशी से जाना
लगती है चोट दिल पर आता है याद जिस दम
शबनम के आँसुओं पर कलियों का मुस्कुराना
वो प्यारी प्यारी सूरत वो कामनी सी मूरत
आबाद जिस के दम से था मेरा आशियाना
आती नहीं सदाएँ उस की मिरे क़फ़स में
होती मिरी रिहाई ऐ काश मेरे बस में

क्या बद-नसीब हूँ मैं घर को तरस रहा हूँ
साथी तो हैं वतन में मैं क़ैद में पड़ा हूँ
आई बहार कलियाँ फूलों की हंस रही हैं
मैं इस अँधेरे घर में क़िस्मत को रो रहा हूँ
इस क़ैद का इलाही दुखड़ा किसे सुनाऊँ
डर है यहीं क़फ़स में मैं ग़म से मर न जाऊँ

जब से चमन छुटा है ये हाल हो गया है
दिल ग़म को खा रहा है ग़म दिल को खा रहा है
गाना इसे समझ कर ख़ुश हों न सुनने वाले
दुखते हुए दिलों की फ़रियाद ये सदा है
आज़ाद मुझ को कर दे ओ क़ैद करने वाले
मैं बे-ज़बाँ हूँ क़ैदी तू छोड़ कर दुआ ले!

‍~ अल्लामा इक़बाल

Mar 21, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Sunday, March 15, 2020

क्या हाल कहें उस मौसम का


क्या हाल कहें उस मौसम का
जब जिंस-ए-जवानी सस्ती थी
जिस फूल को चूमो खुलता था
जिस शय को देखो हँसती थी
जीना सच्चा जीना था
हस्ती ऐन हस्ती थी
अफ़्साना जादू अफ़्सूँ था
ग़फ़लत नींदें मस्ती थी
उन बीते दिनों की बात है ये
जब दिल की बस्ती बस्ती थी

*जिंस-ए-जवानी=जवानी जैसी; अफ़्सूँ=जादुई; ग़फ़लत=असावधानी, बेपरवाही

ग़फ़लत नींदें हस्ती थी
आँखें क्या पैमाने थे
हर रोज़ जवानी बिकती थी
हर शाम-ओ-सहर बैआ'ने थे
हर ख़ार में इक बुत-ख़ाना था
हर फूल में सौ मय-ख़ाने थे
काली काली ज़ुल्फ़ें थीं
गोरे गोरे शाने थे
उन बीते दिनों की बात है ये
जब दिल की बस्ती बस्ती थी

*बैआ'ने=बयाना

गोरे गोरे शाने थे
हल्की-फुल्की बाँहें थीं
हर-गाम पे ख़ल्वत-ख़ाने थे
हर मोड़ पे इशरत-गाहें थीं
तुग़्यान ख़ुशी के आँसू थे
तकमील-ए-तरब की आहें थीं
इश्वे चुहलें ग़म्ज़े थे
पल्तीं ख़ुशियाँ चाहीं थीं
उन बीते दिनों की बात है ये
जब दिल की बस्ती बस्ती थी

*ख़ल्वत=निजी, गुप्त; इशरत-गाह=मज़े करने की जगह; तकमील-ए-तरब=उन्माद की चीखें; इश्वे=शोख़; ग़म्ज़े=शरारती इशारे

~ जोश मलीहाबादी


Mar 15, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Saturday, March 14, 2020

दास्ताँ वस्ल की इक बात से


दास्ताँ वस्ल की इक बात से आगे न बढ़ी
आप की शिकवा-शिकायत से आगे न बढ़ी

लाख रोती रही जलती रही अफ़्सोस मगर
ज़िंदगी शम्अ' की इक रात से आगे न बढ़ी

तू जफ़ा-केश रहा और में वफ़ा-कोश रहा
बात तेरी भी मिरी बात से आगे न बढ़ी
*जफ़ा-केश=जो वफ़ा में कच्चा हो; वफ़ा-कोश=प्रेम निर्वाह की कोशिश

यूँ तो आग़ाज़-ए-मोहब्बत में बड़े दा'वे थे
दोस्ती पहली मुलाक़ात से आगे न बढ़ी
*आग़ाज़-ए-मोहब्बत=प्रेम की शुरुआत

मिल गए जब वही शिकवे वही क़िस्से 'असअद'
ये ख़ुराफ़ात ख़ुराफ़ात से आगे न बढ़ी

~ असअ'द बदायुनी


Mar 14, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Friday, March 13, 2020

अब सितारों में जवानी नहीं

 
अब सितारों में जवानी नहीं रक़्साँ कोई
चाँद के नूर में नग़्मात के सैलाब नहीं
दिल में बाक़ी नहीं उमडा हुआ तूफ़ाँ कोई
रूह अब हुस्न उचक लेने को बेताब नहीं

*रक़्साँ=नृत्य; सैलाब=बाढ़

अब फ़रोज़ाँ सी नहीं क़ौस-ए-क़ुज़ह की राहें
इन्ही राहों से उफ़ुक़ पार से घूम आते थे
मुंतज़िर अब नहीं फ़ितरत की गुलाबी बाहें
हम जिन्हें जा के शफ़क़-ज़ार से चूम आते थे

*फ़रोज़ाँ=रौशनी से भरी; क़ौस-ए-क़ुज़ह=इंद्रधनुष; उफ़ुक़=क्षितिज; मुंतज़िर=इंतज़ार; शफ़क़-ज़ार=उषा वर्ण

अब घटाओं में नहीं हौसले रिंदाना से
अब फ़ज़ाओं में हैं वलवले दीवाना से
रूह एहसास की तल्ख़ी से बुझी जाती है
ऐसे माहौल के ज़िंदाँ से रिहा कर मुझ को
वही पहले से हसीं ख़्वाब अता कर मुझ को

*रिंदाना=मतवालों; वलवले=ललक; ज़िंदाँ=जेल; अता=प्रदान

~ नज़ीर मिर्ज़ा बर्लास

Mar 13, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

तुम अपने रँग में रँग लो तो


तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

अंबर ने ओढ़ी है तन पर
चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में
सरसों पीली-पीली,
सिंदूरी मंजरियों से है
अंबा शीश सजाए,
रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।

~ हरिवंशराय बच्चन


Mar 09, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Monday, March 9, 2020

यह मिट्टी की चतुराई है

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यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,
आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो,
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को।

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,
आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो।

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,
जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो।

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो।

~ हरिवंशराय बच्चन
 
Mar 09, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Sunday, March 1, 2020

बीत चला यह जीवन सब

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बीत चला यह जीवन सब
प्रिय, न दो विश्वास अभिनव
मिल सको तो अब मिलो, अगले जनम की बात छोड़ो।

भ्रान्त मन, भीगे नयन
बिखरे सुमन, यह सान्ध्य-बेला
शून्य में होता विलय
यह वन्दना का स्वर अकेला
फूल से यह गन्ध, देखो
कह चली, `सम्बंध, देखो
टूटकर जुड़ते नहीं फिर, मोह-भ्रम की बात छोड़ो।

यह कुहासे का कफ़न
यह जागता सोता अँधेरा
प्राण तरू पर स्वप्न के
अभिशप्त विहगों का बसेरा
यूँ न देखो प्रिय इधर तुम,
एक ज्योँ तस्वीर गुमसुम,
अनवरत, अन्धी प्रतीक्षा, के नियम की बात छोड़ो।

यह दिये की काँपती लौ,
और यह पागल पतँगा
दूर नभ के वक्ष पर
सहमी हुई आकाश गंगा
एक सी सबकी कथा है,
एक ही सबकी व्यथा है,
हैं सभी असहाय, मेरी या स्वयम् की बात छोड़ो।

हर घड़ी, हर एक पल है,
पीर, दामनगीर कोई
शीश उठते ही खनकती
पाँव में जंज़ीर कोई
आज स्वर की शक्ति बन्दी,
साध की अभिव्यक्ति बन्दी,
थक गये मन-प्राण तक, मेरे अहम की बात छोड़ो।

~ किशन सरोज

Mar 01, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh