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Saturday, June 14, 2014

पाँव जब भी इधर-उधर रखना

पाँव जब भी इधर-उधर रखना
अपने दिल में ख़ुदा का डर रखना

रास्तों पर कड़ी नज़र रखना
हर क़दम इक नया सफ़र रखना

वक़्त, जाने कब इम्तेहां माँगे
अपने हाथों में कुछ हुनर रखना

मंज़िलों की अगर तमन्ना है
मुश्किलों को भी हमसफ़र रखना

खौफ़, रहज़न का तो बजा, लेकिन
रहनुमा पर भी कुछ नज़र रखना
*रहज़न=लुटेरा; रहनुमा=मार्ग दर्शक

सख्त लम्हों में काम आएँगे
आँसुओं को सँभाल कर रखना

चुप रहा मैं, तो लफ़्ज़ बोलेंगे
बंदिशें मुझ पे, सोच कर रखना

आएँ कितने भी इम्तेहां "दानिश"
अपना किरदार मोतबर रखना
*मोतबर=विश्वसनीय

~ दानिश भारती
  June 14, 2014

इसी में इश्क़ की क़िस्मत

इसी में इश्क़ की क़िस्मत बदल भी सकती थी
जो वक़्त बीत गया मुझ को आज़माने में

~ कैफ़ी आज़मी

मेरी बर्बादी के अफ़्साने

सुनेगा जब ज़माना मेरी बर्बादी के अफ़्साने
तुम्हारा नाम भी आएगा मेरे नाम से पहले

~ नामालूम

Thursday, June 12, 2014

कोयलों ने क्यों पसंद किया


कोयलों ने क्यों पसंद किया
हमारा ही पेड़?
बुलबुलें हर मौसम में
क्यों इसी पर बैठी रहती हैं?
क्यों गौरैया के बच्चे हो रहें है
बेशुमार, इसी पेड़ पर?
क्यों गिलहरी को इस पर से उतरकर
छट पर चक्कर काटना अच्छा लगता है?
क्यों गिरगिट सोया रहता है यहाँ?

शायद इन मुफ्त के किराएदारों को
हमारा घर, पड़ोस अच्छा लगता है
वे देखते होंगे कि दो बूढ़े टिके हैं यहाँ।

आखिर इन दिनों में कोई ख़ासियत तो होगी ही,
जो इतने वर्षों से
कुर्सियाँ डाल कर बैठते रहे हैं पास-पास।

~ ऋतुराज

12/27/2013

शिशिर कणों से लदी हुई

शिशिर कणों से लदी हुई,
कमली के भीगे हैं सब तार,
चलता है पश्चिम का मारुत,
ले कर शीतलता का भार। 

भीग रहा है रजनी का वह,
सुंदर कोमल कवरी-भार,
अरुण किरण सम, कर से छू लो,
खोलो प्रियतम! खोलो द्वार।

धूल लगी है, पद काँटों से
बिंधा हुआ, है दु:ख अपार,
किसी तरह से भूला भटका
आ पहुंचा हूँ तेरे द्वार।

डरो न इतना धूल धूसरित
होगा नहीं तुम्हारा द्वार
धो डाले हैं इनको प्रियवर 
इन आँखों से आँसू ढार

मेरे धूलि लगे पैरों से,
इतना करो न घृणा प्रकाश,
मेरे ऐसे धूल कणों से,
कब तेरे पद को अवकाश!

पैरों ही से लिपटा लिपटा
कर लूँगा निज पद निर्धार,
अब तो छोड़ नहीं सकता हूँ,
पाकर प्राप्य तुम्हारा द्वार।

सुप्रभात मेरा भी होवे,
इस रजनी का दु:ख अपार,
मिट जावे जो तुमको देखूँ,
खोलो प्रियतम! खोलो द्वार।।

~ जय शंकर प्रसाद 
  June 12, 2014

Wednesday, June 11, 2014

जनम-जनम माँगूंगी तुझको

जनम-जनम माँगूंगी तुझको, तू मुझको ठुकराना
मैं माटी में मिल जाऊँगी तू माटी हो जाना
लहर के आगे क्या इक तिनके की औक़ात
सजन, मैं भूल गयी यह बात

~ वसीम बरेलवी
  Jun 11, 2014

तिरछी नज़रों से न देखो

तिरछी नज़रों से न देखो आशिक़-ए-दिलगीर को
कैसे तीर-अंदाज़ हो सीधा तो कर लो तीर को ।

*दिलगीर=उदास, दुःखी

~ 'वज़ीर' लखनवी

   Jan 1, 2014

एक पुराना मौसम लौटा


एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हों तनहाई भी

यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं
कितनी सौंधी लगती है तब माज़ी की रुसवाई भी

दो दो शक़्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में
मेरे साथ चला आया है आपका इक सौदाई भी

ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी है
उन की बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी

~ 'गुलज़ार'

   Jan 2, 2014

फ़िज़ा में दूर तक मरहबा


फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख़्वाब के साथ

बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ

~ शहरयार

1/5/2014

वो गुलशन हो कि वीराना

वो गुलशन हो कि वीराना, महफिल हो कि तन्हाई
मुझे हर इक जगह तेरी कमी महसूस होती है।

~ रश्मि सानन


1/6/2014

हज़ारों ऐब हैं मुझ में

हज़ारों ऐब हैं मुझ में, हज़ारों मुझ से अच्छे हैं
मगर इक शख़्स है नादां, मुझे अनमोल कहता है।

~ 'उन्नावी'


1/6/2014

प्यार मुझसे जो किया

प्यार मुझसे जो किया तुमने तो क्या पाओगी
मेरे हालात की आंधी में बिखर जाओगी ।

~ जावेद अख़्तर


1/7/2014

दर्द का मौसम

दर्द का मौसम, ग़मों की शाम उतरी है यहाँ
बिन तुम्हारे जहाँ तन्हा, जाएँ भी तो अब कहाँ ।

~ प्रमिला सिंह


1/8/2014

कबहुँ आप हँसे



कबहुँ आप हँसे,
कबहुँ नैन हँसे,
कबहुँ नैन के बीच,
हँसे कजरा।

कबहुँ टिकुली सजै,
कबहुँ बेनी सजै,
कबहुँ बेनी के बीच,
सजै गजरा।

कबहुँ चहक उठै,
कबहुँ महक उठै,
लगै खेलत जैसे,
बिजुरी औ बदरा।

कबहुँ कसम धरें,
कबहुँ कसम धरावै,
कबहूँ रूठें तौ,
कहुं लागै न जियरा ।

उन्है निहार निहार,
हम निढाल भएन,
अब केहि विधि,
प्यार जताऊं सबरा ।

~ अमित श्रीवास्तव


1/10/2014

परख फज़ा की






परख फज़ा की, हवा का जिसे हिसाब भी है
वो शख्स साहिबे फन भी है, कामयाब भी है

जो रूप आप को अच्छा लगे वो अपना लें
हमारी शख्सियत कांटा भी है ,गुलाब भी है

हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहीं
हमारे जिस्म में गंगा भी है ,चनाब भी है

हमारा दौर अँधेरों का दौर है ,लेकिन
हमारे दौर की मुट्ठी में आफताब भी है

किसी ग़रीब की रोटी पे अपना नाम न लिख
किसी ग़रीब की रोटी में इन्क़लाब भी है

मेरा सवाल कोई आम सा सवाल नहीं
मेरा सवाल तेरी बात का जवाब भी है

इसी ज़मीन पे हैं आख़री क़दम अपने
इसी ज़मीन में बोया हुआ शबाब भी है 




~ कँवल ज़िआई

1/13/2014

कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में


कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में
फिर ख़्वाब अगर हो जाओ तो क्या

कोई रंग तो दो मेरे चेहरे को
फिर ज़ख़्म अगर महकाओ तो क्या

इक आईना था सो टूट गया
अब ख़ुद से अगर शरमाओ तो क्या

मैं तन्हा था मैं तन्हा हूँ
तुम आओ तो क्या न आओ तो क्या

जब हम ही न महके तो साहब
तुम बाद-ए-सबा कहलाओ तो क्या

जब देखने वाला कोई नहीं
बुझ जाओ तो क्या जल जाओ तो क्या

~
उबैदुल्लाह अलीम

1/17/2014

कीचड़-कालिख से सने हाथ


 
कीचड़-कालिख से सने हाथ
इनको चूमो
सौ कामिनियों के लोल कपोलों से बढ़कर
जिसने चूमा दुनिया को अन्न खिलाया है
आतप-वर्षा-पाले से सदा बचाया है।

श्रम-सीकर से लथपथ चेहरे
इनको चूमो
गंगा-जमुना की लोल-लहरियों से बढ़कर
माँ-बहनों की लज्जा जिनके बल पर रक्षित
बुन चीर द्रौपदी का हर बार बढाया है।

कुश-कंटक से क्षत-विक्षत पग
इनको चूमो
जो लक्ष्मी-ललित क्षीर-सिंधु के
चर्चित चरणों से बढ़कर
जिनका अपराजित शौर्य
धवल हिम-शिखरों पर महिमा-मण्डित
मानवता का वर्चस्व सौरमण्डल स्पंदित कर आया है।

~ शिवमंगल सिंह 'सुमन'

1/18/2014

यही आरज़ू थी दिल की

 

यही आरज़ू थी दिल की कि क़रीब यार होता
और हज़ार जाँ से क़ुरबाँ मैं हज़ार बार होता

न सही अगर नहीं था बुत-ए-बेवफ़ा पे क़ाबू
यही बस था मेरे बस में दिल-ए-बेक़रार होता

जो पिलाना था पिलाता कोई ऐसी मय ऐ साक़ी
जिसे पी के ताब महशर न मैं होशियार होता

हर एक आफ़तों का करता मैं ख़ुशी से ख़ैर-मक़दम
मैं अलम को भूल जाता जो तू ग़मगुसार होता

तुझे लुत्फ़-ए-दीद मिलता मुझे लुत्फ़-ए-मर्ग क़ातिल
मैं हमेशा मरता रहता कोई ऐसा वार करता

~ जद्दन बाई


1/25/2014

क्या हिंद का ज़िन्दाँ काँप रहा है


 

क्या हिंद का ज़िन्दाँ काँप रहा है,
गूँज रहीं हैं तक्बीरें,
उकताए हैं शायद कुछ कैदी,
और तोड़ रहे हैं,जंजीरें ।

दीवारों के नीचे आ आ कर
क्यों जमा हुए हैं ज़िन्दानी,
सीनों में तलातुम बिजली का,
आंखों में चमकती शमशीरें।

क्या उनको ख़बर थी होठों पर,
जो मोहर लगाया करते थे,
इक रोज़ इसी खामोशी से ,
तप्केंगी दहकती तक़रीरें।

सम्हलो के ज़िन्दाँ गूँज उठा,
झपटो के वो कैदी छूट गए,
उठ्ठो के वो बैठी दीवारें,
दौडो के वो टूटी जंजीरें।

~ जोश मलीहाबादी


1/26/2014

लिपट लिपट के वा के

लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखि साजन? ना सखि जाड़ा!

~ अमीर ख़ुसरो


1/28/2014

अंग्रेज़ महिमा

मरी बुलाऊँ, देस उजाडूँ, महँगा करके अन्न।
सबके ऊपर टिकट लगाऊँ धन है मुझको धन्न।।

*टिकट=टैक्स (कर)

~ भारतेंदु हरिश्चंद्र

   Jan 29, 2014

तुम हक़ीक़त-ए-इश्क़ हों

तुम हक़ीक़त-ए-इश्क़ हों, या फ़रेब मेरी आँखों का
न दिल से निकलते हो न मेरी ज़िन्दगी में आते हो !

~ नामालूम


1/29/2014

ये मोजेज़ा भी मुहब्बत कभी


ये मोजेज़ा भी मुहब्बत कभी दिखाये मुझे
के सँग तुझपे गिरे और ज़ख्म आये मुझे
*मोजेज़ा=चमत्कार; सँग=पत्थर

वो मेहरबाँ है तो इक़रार क्यूँ नहीं करता
वो बद-गुमाँ है तो सौ बार आज़माये मुझे
*इक़रार=हामी; बदगुमाँ=शक में पड़ना

वो मेरा दोस्त है सारे जहाँन को मालूम
दग़ा करे वो किसी से तो शर्म आये मुझे
*जहाँन=दुनिया; दग़ा=धोखा

मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ ‘क़तील’
ग़मे हयात से कह दो ख़रीद लाये मुझे
*ज़ात=ख़ुद; ग़मे हयात=ज़िंदगी के दु:ख

~ क़तील शिफ़ाई

1/30/2014 

अभी न जाओ प्राण

 

अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है,

अभी बरुनियों के कुञ्जों मैं छितरी छाया,
पलक-पात पर थिरक रही रजनी की माया,
श्यामल यमुना सी पुतली के कालीदह में,
अभी रहा फुफकार नाग बौखल बौराया,
अभी प्राण-बंसीबट में बज रही बंसुरिया,
अधरों के तट पर चुम्बन का रास शेष है।
अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है।

अभी स्पर्श से सेज सिहर उठती है, क्षण-क्षण,
गल-माला के फूल-फूल में पुलकित कम्पन,
खिसक-खिसक जाता उरोज से अभी लाज-पट,
अंग-अंग में अभी अनंग-तरंगित-कर्षण,
केलि-भवन के तरुण दीप की रूप-शिखा पर,
अभी शलभ के जलने का उल्लास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,

अगरु-गंध में मत्त कक्ष का कोना-कोना,
सजग द्वार पर निशि-प्रहरी सुकुमार सलोना,
अभी खोलने से कुनमुन करते गृह के पट
देखो साबित अभी विरह का चन्द्र -खिलौना,
रजत चांदनी के खुमार में अंकित अंजित-
आँगन की आँखों में नीलाकाश शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,

अभी लहर तट के आलिंगन में है सोई,
अलिनी नील कमल के गन्ध गर्भ में खोई,
पवन पेड़ की बाँहों पर मूर्छित सा गुमसुम,
अभी तारकों से मदिरा ढुलकाता कोई,
एक नशा-सा व्याप्त सकल भू के कण-कण पर,
अभी सृष्टि में एक अतृप्ति-विलास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,

अभी मृत्यु-सी शांति पड़े सूने पथ सारे,
अभी न उषा ने खोले प्राची के द्वारे,
अभी मौन तरु-नीड़, सुप्त पनघट, नौकातट,
अभी चांदनी के न जगे सपने निंदियारे,
अभी दूर है प्रात, रात के प्रणय-पत्र में-
बहुत सुनाने सुनने को इतिहास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,

~ गोपाल दास 'नीरज'


   Jan 13, 2011 | e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

मेरी-तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं


मेरी-तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं
जो मेरे-तेरे तन-बदन में लाख दिल फ़िग़ार हैं
जो मेरी-तेरी उँगलियों की बेहिसी से सब क़लम नज़ार हैं !
*फ़िग़ार=घायल; बेहिसी=बेपरवाही; नज़ार=दुर्बल

जो मेरे-तेरे शहर की हर इक गली में
मेरे-तेरे नक़्श-ए-पा के बे-निशाँ मज़ार हैं
जो मेरी-तेरी रात के सितारे ज़ख़्म ज़ख़्म हैं
जो मेरी-तेरी सुबह के गुलाब चाक चाक हैं !
*नक़्श-ए-पा=पैरों के निशान; चाक=फटे हुये

ये ज़ख़्म सारे बे-दवा ये चाक सारे बे-रफ़ू
किसी पे राख चाँद की किसी पे ओस का लहू !

ये हैं भी या नहीं बता
ये है कि महज़ जाल है
मेरे तुम्हारे अंकबूत-ए-वहम का बुना हुआ !
*अंकबूत=मकड़ी

जो है तो इसका क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें
बता, बता, बता, बता !

~ फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'

2/1/2014 

जो कहा हमने कि प्यार आता है

जो कहा हमने कि प्यार आता है हम को तुम पर
हंस कर कहने लगे और आपको आता ही क्या है !

~ अकबर 'इलाहाबादी'


2/4/2014

इक शख़्स की चाहत का

इक शख़्स की चाहत का, अरमान रहा अक्सर
जो जान कर भी सब कुछ, अंजान रहा अक्सर
यह प्यार मोहब्बत का, क्या खेल है रब जाने
जिस ने की वफा उसका, नुकसान रहा अक्सर

आता है वो नींदों में, रहता भी वो ख़्वाबों में
मुझ पर ये बड़ा उसका, अहसान रहा अक्सर

~ 'उन्नावी'


2/10/2014

ओ पखेरू लौट के आना


ओ पखेरू लौट के आना
आ कर तुम मुझे बताना
उड़ चले क्यों नीड़ कर सूने
क्या पाया, क्या खोया तूने
बीच सफ़र में क्या क्या बीता
नैनों में कौन स्वप्न है जीता
कैसी है उस पार की रातें
करना मुझसे जीत हार की बातें

एक हूँ मैं कितने खूटें हैं
स्वप्न मेरे सब टूटे हैं
आँख क्षितिज टटोल रही है
हर गांठ बंधन की बोल रही है
तुम नज़र मेरी बन जाना
आ कर तुम मुझे बताना
सौम्य कोई उस पार की क्रीड़ा
स्थिरता से भिन्न अन्य कोई पीड़ा
जिससे दो-चार हुये तुम
कैसे उस पार हुये तुम ।

तेरी राह तकेंगी अँखियाँ
डाल डाल और सब पत्तियाँ
कोटर पेड़ का बहुत छोटा है
जाने वाला फिर कब लौटा है
मस्त हो पूरा कर उस उड़ान को
भूल न जाना पर उस थकान को
जब भी करना कहीं बसेरा
तनिक ध्यान कर लेना मेरा ।

यादों के ढेर पर मैं हूँ ज़िंदा
उड़ चला देखो एक और परिंदा ।

~ मोहिंदर कुमार

2/15/2014 

दीवार क्या गिरी मेरे

दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की
लोगों ने मेरे सेहन में रस्ते बना लिए।

~ सिब्ते अली शमीम


2/15/2014

किसी तपते सफ़र को भीगती


किसी तपते सफ़र को भीगती सी शाम दे जाऊं
किसी आधी -अधूरी बात को अंजाम दे जाऊं

मेरी तस्वीर भी रख ले वो अपनी शामो- सुबहों मे
किसी अपने को घर बैठे, ज़रा सा काम दे जाऊं

बहुत मुमकिन है वो शायद अभी तक रास्ता देखे
किसी रहगीर के हाथों उसे पैग़ाम दे जाऊं

समंदर के किनारे हमने अक्सर प्यास देखी है
किसी के सूखे होंठों को खुशी का जाम दे जाऊं

रहा हो ग़म कोई भी पर सदा हंसती रहीं आंखें
मैं उसकी इस हुनरमंदी पे कुछ ईनाम दे जाऊं

न खो जाये कहीं कल वो यहाँ अपनी ही गलियों में
गली के मोड़ पर अपना कहीं भी नाम दे जाऊं

~ प्रवीण पंडित


2/16/2014

चेहरे पर चँचल लट उलझी


चेहरे पर चँचल लट उलझी, आँखों मे सपन सुहाने हैं
ये वही पुरानी राहें हैं, ये दिन भी वही पुराने हैं
कुछ तुम भूली कुछ मै भूला मंज़िल फिर से आसान हुई
हम मिले अचानक जैसे फिर पहली पहली पहचान हुई
आँखों ने पुनः पढी आँखें, न शिकवे हैं न ताने हैं
चेहरे पर चँचल लट उलझी, आँखों मे सपन सुहाने हैं

तुमने शाने पर सिर रखकर, जब देखा फिर से एक बार
जुड गया पुरानी वीणा का, जो टूट गया था तार
फिर वही साज़ धडकन वाला फिर वही मिलन के गाने हैं
चेहरे पर चँचल लट उलझी, आँखों मे सपन सुहाने हैं

आओ हम दोनो की सांसों का एक वही आधार रहे
सपने, उम्मीदें, प्यास मिटे, बस प्यार रहे बस प्यार रहे
बस प्यार अमर है दुनिया मे सब रिश्ते आने-जाने हैं
चेहरे पर चँचल लट उलझी, आँखों मे सपन सुहाने हैं

~ कुमार विश्वास
 
2/17/2014

तुम ऐसे खो गए हो

तुम ऐसे खो गए हो जैसे विवाह के दिन
खो जाए सजते-सजते कंगन नई दुल्हन का

~ कुँअर 'बेचैन'


2/19/2014

तुमको ख़बर नहीं है

तुमको ख़बर नहीं है मगर इक मासूम को,
बरबाद कर दिया तेरे दो दिन के प्यार ने।

~ साहिर लुधियानवी


2/20/2014

ऐसी जवानी को

जवानी को बचा सकते तो हैं हर दाग़ से वाइज़
मगर ऐसी जवानी को जवानी कौन कहता है

~ नामालूम


2/21/2014

आहों में असर है के नहीं

मेरी आहों में असर है के नहीं देख तो लूँ
उसको कुछ मेरी ख़बर है के नहीं देख तो लूँ

~ अब्दुल हमीद 'होश'

एक पुराना मौसम लौटा

एक पुराना मौसम लौटा, याद भरी पुरवाई भी
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हो, तनहाई भी

~ गुलज़ार


2/27/2014

रिश्तों की गर्मी


यूँ ही जाने -अनजाने
महसूस होता है
रिश्तों की गर्मी
शीत की तरह
जम गई है ...
न जाने कहाँ गई
वह मिल बैठ कर
खाने की बातें
वह सोंधी सी
तेरे-मेरे ....
घर की सब्ज़ी
रोटी की महक सी
मीठी मुस्कान ....

अब तो रिश्ते भी
शादी में सजे
बुफे सिस्टम से
सजे-सजाये दिखते हैं
प्यार के दो मीठे बोल भी
जमी आइस क्रीम की तरह
धीरे से असर करते हैं
कहने वाले कहते हैं
कि घट रही धीरे-धीरे
अब हर जगह की दूरी
पर क्या आपको नही लगता
कि दिलो के फासले अब
और महंगे ..
और बढ़ते जा रहे हैं?

~ रंजना भाटिया


उम्र की इस उदधि के उस पा



उम्र की इस उदधि के उस पार लहराता जो आँचल,
रोज सपनों में सिमट कर प्रिय लजाती है जो काजल,
दामिनी सी दमकती है दंत - पंक्ति जो तुम्हारी,
जल-तरंगों सी छमकती छ्म-छमाछम-छम जो पायल।

उर्वशी सी देह-यष्टि जो बसी मानस-पटल पर,
कल्पना के ये मणिक उस मूर्ति में मढ़ता रहा हूँ।

अप्रतिम वह देह-सौष्ठव, अप्रतिम तन की तरलता।
काँपती लौ में हो जैसे अर्चना का दीप बलता।
मत्त, मद, गजगामिनी सी गति तुम्हारी मदिर मोहक.
बादलों के बीच जैसे पूर्णिमा का चाँद चलता।

चेतना के चित्र-पट पर भंगिमा तेरी सजाकर,
हर कुँआरी लोच में प्रिय, रंग मैं भरता रहा हूँ।

गीत तो हमने लिखे हैं ज्योति के नीवि अमा में।
इसलिये कि पढ़ सको तुम विरह यह उनकी विभा में।
हैं तो साजो-सोज कितने, कंठ पर अवरुद्ध सा है,
क्या सुनाऊँ गीत जब तुम ही नहीं हो इस सभा में।

जहाँ पन्नों में गुलाबों को छुपा तुमने रखा था,
प्रणय के वे बंद पन्ने, रात-दिन पढ़ता रहा हूँ।

~ सुरेन्द्रनाथ तिवारी

ज़रा सा क़तरा

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन ड़रता है

~ वसीम बरेलवी

किस सुधि - वसन्त का सुमन तीर


किस सुधि - वसन्त का सुमन तीर ,
कर गया मुग्ध मानस अधीर ?

वेदना गगन से रजत ओस,
चू - चू भरती मन - कंज - कोष,
अलि - सी मंडराती विरह -पीर |

मंजरित नवल मृदु देह डाल,
खिल - खिल उठता नव पुलक - जाल,
मधु कन सा छलका नयन -नीर |

अधरों से झरता स्मित पराग,
प्राणों में गूंजा नेह - राग,
सुख का बहता मलयज समीर |

धुल -धुल जाता यह हिम - दुराव
गा -गा उठते चिर मूक - भाव,
अलि सिहर - सिहर उठता शरीर |

~ महादेवी वर्मा

हर मक़ाम पर सौदा करेंगे

अब तुमसे हर मक़ाम पर सौदा करेंगे लोग,
तुमने ज़मीर बेचकर अच्छा नहीं किया ।

~ नामालूम

जिंदगी अब की मेरा नाम

जिंदगी अब की मेरा नाम न शामिल करना
गर ये तय है कि यही खेल दुबारा होगा

~ वसी शाह

मैं जानता हूँ

मैं जानता हूँ।
और रात का एक एक तारा ,
जानता है दर्द तुम्हारा....
स्वप्नों की दुनिया में,
जब सारा जहाँ होता है गुम,
बैचैन होता है तब बाहर आने के लिए
तुम्हारा दर्द ,
तुम्हारी झील सी आंखों से।

एक 'नदी' उमंगों से छलकती हुई सी,
भरी खुशियों से और
बांटती पल हँसी के । सबको
तब एक दिन
घोला जहर 'किसी' ने,
मर गयी मछलियाँ सारी
ग्रहण लगा खुशियों को
अब
नदी बहती है मगर
है नमकीन आन्सुयों सी बस,
मैं जानता हूँ।

वो प्रेम गीत,
जो लिखे थे कभी महकदार शैली में
आज सड़ांध मारते हैं।
तुम्हारा विश्वास
जो अब चोटिल हो चुका है
'अमृत' पान से,
उसे
जरुरत है सच्चाई के मरहम की,
मेरे रहस्यों की साथी
बस इतना समझ लो,
ये दर्द बड़ा ऊबड़ खाबड़ है,
बिल्कुल जिन्दगी जैसा;
और जिन्दगी
नदी के बहाव की तरह सीधी सपाट नही
पहाड़ी रास्ते की तरह
टेढ़ी मेढ़ी और
दुश्वार होती है।

~ दिनेश आदित्य

किसलिए कीजे बज़्म-आराई


किसलिए कीजे बज़्म-आराई
पुर-सुकूँ हो गई है तऩ्हाई
*बज़्म-आराई=महफ़िल सजाना; पुर-सुकूँ=शांति-पूर्वक

फ़िर् ख़मोशी ने साज़ छेड़ा है
फ़िर ख़यालात ने ली अंगड़ाई

यूँ सुकूँ-आशना हुए लम्हे
बूँद में जैसे आए गहराई
*सुकूँ-आशना=शांत

इक से इक वाक़िआ हुआ लेकिन
न गई तेरे ग़म की यकताई
*वाक़िआ=घटना; यकताई=अनोखापन

कोई शिकवा न ग़म, न कोई याद
बैठे-बैठे बस आँख भर आई

ढलकी शानों से हर यकीं की क़बा
ज़िन्दगी ले रही है अंगड़ाई
*शानों=कन्धों; यकीं की क़बा=विश्वास का वस्त्र

~ जावेद अख़्तर


सब चाहते हैं मंज़िलें

सब चाहते हैं मंज़िलें पाना, चले बगैर
जन्नत भी सबको चाहिए लेकिन मरे बगैर

~ राजेश रेड्डी

उम्र के खेल में

उम्र के खेल में इक तरफा है ये रस्सा-कशी
इक सिरा मुझको दिया होता तो इक बात भी थी

~ गुलज़ार

दरिया की हवा तेज़ थी

दरिया की हवा तेज़ थी, कश्ती थी पुरानी
रोका तो बहुत दिल ने मगर एक न मानी

मैं भीगती आँखों से उसे कैसे हटाऊ
मुश्किल है बहुत अब्र में दीवार उठानी
*अब्र=घटा

निकला था तुझे ढूंढ़ने इक हिज्र का तारा
फिर उसके ताआकुब में गयी सारी जवानी
*हिज्र=जुदाई; ताआकुब=पीछा

कहने को नई बात हो तो फिर से सुनाएं
सौ बार ज़माने ने सुनी है ये कहानी

किस तरह मुझे होता गुमा तर्के-वफ़ा का
आवाज़ में ठहराव था, लहजे में रवानी
*गुमा=अंदाज़

अब मैं उसे कातिल कहूँ 'अमज़द' कि मसीहा
क्या ज़ख्मे-हुनर छोड़ गया अपनी निशानी

~ अमज़द इस्लाम अमज़द
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  Submitted by: Ashok Singh 

Tuesday, June 10, 2014

कश्ती भी न बदली

कश्ती भी न बदली, दरिया भी न बदला,
हम डूबने वालो का जज्बा भी न बदला,
है शौक ए सफ़र कुछ यूं कि इक उम्र से,
मंजिल भी न पाई, औ' रस्ता भी न बदला

~ नामालूम

आँखों में कुछ नमी सी है

आँखों में कुछ नमी सी है माज़ी की यादगार
गुज़रा था इस मक़ाम से इक कारवां कभी

*माज़ी=अतीत; मक़ाम=जगह

~ इक़बाल

साक़ी मुझे शराब की

साक़ी मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद
मुझ को तेरी निगाह का इल्ज़ाम चाहिए

~ अब्दुल हमीद 'अदम'

सावन की पुरवइया ग़ायब

सावन की पुरवइया ग़ायब
पोखर, ताल-तलइया ग़ायब

कट गए सारे पेड़ गाँव के
कोयल औ' गोरइया ग़ायब

कच्चे घर तो पक्के बन गए
हर घर से अँगनइया ग़ायब

सोहर, कजरी, फगुआ भूले
बिरहा, नाच-नचइया ग़ायब

नोट निकलते ए टी एम से
पैसा, आना, पइया ग़ायब

दरवाज़े पर कार खड़ी है
बैल-भैंस और गइया ग़ायब

सुबह हुई तो चाय की चुस्की
चना-चबेना, लइया ग़ायब

भाभी देख रही हैं रस्ता
शहर गए थे, भइया ग़ायब

~ देवमणि पांडेय
 


जलाते चलो ये दिए स्नेह भर-भर


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जलाते चलो ये दिए स्नेह भर-भर
कभी तो धरा का अँधेरा मिटेगा!

जला दीप पहला तुम्हीं ने तिमिर की
चुनौती प्रथम बार स्वीकार की थी।
तिमिर की सरित पार करने, तुम्हीं ने
बना दीप की नाव तैयार की थी।

बहाते चलो नाव तुम वह निरंतर
कभी तो तिमिर का किनारा मिलेगा।

युगो से तुम्ही ने तिमिर की शिला पर
दिए अनगिनत है निरंतर जलाये
समय साक्षी है कि जलते हुए दीप
अनगिन तुम्हारे, पवन ने बुझाए

मगर बुझ स्वयं ज्योति जो दे गये वे
उसी से तिमिर को उजाला मिलेगा।

दिए और तूफ़ान की यह कहानी
चली आ रही और चलती रहेगी
जली जो प्रथम बार लौ उस दिए की
जली स्वर्ण सी है, और जलती रहेगी।

रहेगा धरा पर दिया एक भी यदि 
कभी तो निशा को सवेरा मिलेगा


~ द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी  
  April 1, 2014

  
   

समझौते स्वीकार हैं सारे


समझौते स्वीकार हैं सारे, एक दफ़ा आवेदन तो कर
मैं तो सारा बदल गया, तू रत्ती भर परिवर्तन तो कर

चल तू बतला धीरे-धीरे चलूँ, या बिल्कुल रुकना होगा
ऐसा कर तू निश्चित कर ले, मुझको कितना झुकना होगा
मेरा विश्लेषण कर ले, पर ख़ुद का भी मूल्यांकन तो कर

सच ये है तेरे तरकश में शक्तिशाली तर्क बहुत हैं
लेकिन पगली स्वाभिमान और अभिमान में फ़र्क़ बहुत हैं
ग़लती चाहे जिसकी भी है, अब कोई संशोधन कर ले

उनको चल मैं काट रहा हूँ, जो पीड़ा सींची है मैंने
मैं ख़ुद बाहर आ जाता हूँ, जो रेखा खींची है मैंने
तू भी अपनी हठ रेखा का, थोड़ा-सा उल्लंघन तो कर

मेरी पलकें ख़ारी हैं तो छुप-छुप कर तू भी रोती है
ये भी सच है झुक जाने में पीड़ा तो काफ़ी होती है
अच्छा झुक मत, पर झुकने का थोड़ा-सा प्रदर्शन तो कर

~ कुमार पंकज

दया करो हे दयालु नेता



तुम्हीं हो भाषण, तुम्हीं हो ताली
दया करो हे दयालु नेता
तुम्हीं हो बैंगन, तुम्हीं हो थाली
दया करो हे दयालु नेता

तुम्हीं पुलिस हो, तुम्हीं हो डाकू
तुम्हीं हो ख़ंजर, तुम्हीं हो चाकू
तुम्हीं हो गोली, तुम्हीं दुनाली
दया करो हे दयालु नेता

तुम्हीं हो इंजन, तुम्हीं हो गाड़ी
तुम्हीं अगाड़ी, तुम्हीं पिछाड़ी
तुम्हीं हो ‘बोगी’ की ‘बर्थ’ खाली
दया करो हे दयालु नेता

तुम्हीं हो चम्मच, तुम्हीं हो चीनी
तुम्हीं ने होठों से चाय छीनी
पिला दो हमको ज़हर की प्याली
दया करो हे दयालु नेता

तुम्हीं ललितपुर, तुम्हीं हो झाँसी
तुम्हीं हो पलवल, तुम्हीं हो हाँसी
तुम्हीं हो कुल्लू, तुम्हीं मनाली
दया करो हे दयालु नेता

तुम्हीं बाढ़ हो, तुम्हीं हो सूखा
तुम्हीं हो हलधर, तुम्हीं बिजूका
तुम्हीं हो ट्रैक्टर, तुम्हीं हो ट्राली
दया करो हे दयालु नेता

तुम्हीं दल-बदलुओं के हो बप्पा
तुम्हीं भजन हो तुम्हीं हो टप्पा
सकल भजन-मण्डली बुला ली
दया करो हे दयालु नेता

पिटे तो तुम हो, उदास हम हैं
तुम्हारी दाढ़ी के दास हम हैं
कभी रखा ली, कभी मुंड़ा ली
दया करो हे दयालु नेता

~ अल्हड़ बीकानेरी

ऐसा नहीं कि प्यार न हो

तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता

~ शहरयार

गुनहगारों में शामिल हैं

गुनहगारों में शामिल हैं, गुनाहों से नहीं वाक़िफ़,
सज़ा को जानते हैं हम, ख़ुदा जाने ख़ता क्या है?

~ चकबस्त

ठंडे पानी से नहलाती

ठंडे पानी से नहलाती
ठंडा चंदन उन्हें लगाती
उनका भोग हमें दे जाती
तब भी कभी ना बोले हैं
माँ के ठाकुर जी भोले हैं!

~ महादेवी वर्मा