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Saturday, May 6, 2017

तुम अंडर-ग्रेजुएट हो सुन्दर

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तुम अंडर-ग्रेजुएट हो सुन्दर
मैं भी हूँ बी. ए. पास प्रिये,
तुम बीबी हो जाओ 'ला-फुल'
मैं हो जाऊँ पति ख़ास प्रिये।

मैं नित्य दिखाऊँगा सिनेमा
होगा तुमको उल्लास प्रिये,
घर मेरा जब अच्छा न लगे
होटल में करना वास प्रिये।

'सर्विस' न मिलेगी जब कोई
तब 'ला' की है एक आस प्रिये,
उसमें भी 'सकसेस' हो न अगर
रखना मत दिल में त्रास प्रिये।

बनिया का उपवन एक बड़ा
है मेरे घर के पास प्रिये,
फिर सांझ सबेरे रोज वहाँ
हम तुम छीलेंगे घास प्रिये।

मैं ताज तुम्हें पहनाऊँगा
खुद बांधूगा चपरास प्रिये,
तुम मालिक हो जाओ मेरी
मैं हो जाऊँगा दास प्रिये।

मैं मानूँगा कहना सारा
रखो मेरा विश्वास प्रिये,
अपने कर में रखना हरदम
तुम मेरे मुख की रास प्रिये।

यह तनमयता की वेला है
दिनकर कर रहा प्रवास प्रिये,
आओ हम-तुम मिलकर पीलें
'जानी-वाकर' का ग्लास प्रिये।

अब भागो मुझसे दूर नहीं
आ जाओ मेरे पास प्रिये,
अपने को तुम समझो गाँधी
मुझको हरिजन रैदास प्रिये।

(श्री भगवतीचरण वर्मा के 'प्रेम संगीत' की पैरोडी)

~ बेढब बनारसी


  May 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तन हुए शहर के

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तन हुए शहर के
पर‚ मन जंगल के हुए।
शीश कटी देह लिये
हम इस कोलाहल में
घूमते रहे लेकर
विष–घट छलके हुए।

छोड़ दीं स्वयं हमने सूरज की उंगलियां
आयातित अंधकार के पीछे दौड़कर।
देकर अंतिम प्रणाम धरती की गोद को
हम जिया किए केवल खाली आकाश पर।
ठंडे सैलाब में बहीं बसंत–पीढ़ियां‚
पांव कहीं टिके नहीं
इतने हलके हुए।

लूट लिये वे मेले घबराकर ऊब ने
कड़वाहट ने मीठी घड़ियां सब मांग लीं।
मिटे हुए हस्ताक्षर भी आदिम गंध के
बुझी हुई शामें कुछ नजरों ने टांग लीं।
हाथों में दूध का कटोरा
चंदन–छड़ी –
वे सारे सोन प्रहार
रिसते जल के हुए।

कहां गये बड़ी बुआ वाले वे आरते
कहां गये गेरू–काढ़े वे सतिये द्वार के
कहां गये थापे वे जीजी के हाथों के
कहां गये चिकने पत्ते बन्दनवार के
टूटे वे सेतु जो रचे कभी अतीत ने
मंगल त्योहार–वार
बीते कल के हुए।

∼ सोम ठाकुर


  May 5, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

स्वजन दीखता न विश्व में अब

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स्वजन दीखता न विश्व में अब,
न बात मन में समाय कोई।
पड़ी अकेली विकल रो रही,
न दुःख में है सहाय कोई।।

पलट गए दिन स्नेह वाले,
नहीं नशा, अब रही न गर्मी ।
न नींद सुख की, न रंगरलियाँ,
न सेज उजला बिछाए सोई ।।

बनी न कुछ इस चपल चित्त की,
बिखर गया झूठ गर्व जो।
था असीम चिन्ता चिता बनी है,
विटप कँटीले लगाए रोई ।।

क्षणिक वेदना अनन्त सुख बस,
समझ लिया शून्य में बसेरा ।
पवन पकड़कर पता बताने
न लौट आया न जाए कोई।।

~ जयशंकर प्रसाद


  May 4, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

दर्द दिया है, अश्रु स्नेह है

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दर्द दिया है, अश्रु स्नेह है, बाती बैरिन श्वास है,
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !

मैं ज्वाला का ज्योति-काव्य
चिनगारी जिसकी भाषा,
किसी निठुर की एक फूँक का
हूँ बस खेल-तमाशा
पग-तल लेटी निशा, भाल पर
बैठी ऊषा गोरी,
एक जलन से बाँध रखी है
साँझ-सुबह की डोरी
सोये चाँद-सितारे, भू-नभ, दिशि-दिशि स्वप्न-मगन है
पी-पीकर निज आग जग रही केवल मेरी प्यास है !
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !!

विश्व न हो पथ - भ्रष्ट इसलिए
तन - मन आग लगाई,
प्रेम न पकड़े बाँह शलभ की
खुद ही चिता जलाई
रोम-रोम से यज्ञ रचाया
आहुति दी जीवन की,
फिर भी जब मैं बुझा
न कोई आँख बरसने आई
किसे दिखाऊँ दहन-दाह, किस अंचल में सो जाऊँ
पास बहुत है पतझर मुझसे, दूर बहुत मधुमास है !
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !!

यह शलभों का प्यार, किसी
के नयनों की यह छाया,
केवल तब तक है, जब तक
बस एक न झोंका आया
बुझते ही यह लौ, चुकते ही
यह सनेह, यह बाती
सृष्टि मुझे भूलेगी जैसे
तुमने मुझे भुलाया
बुझे दिये का मोल नहीं कुछ क्यों मिट्टी के घर में?
सोच-सोच रो रहा गगन, औ' धरती पडी उदास है!
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !!

सीनाज़ोरी हवा कर रही
है नाराज़ अंधेरा,
इतना तो जल चुका मगर
है अब भी दूर सवेरा
तिल-तिल घुलती देह, रिस
रहा बूँद-बूँद जीवन-घट,
कुछ क्षण के ही लिए और है
अपना रैन - बसेरा
यद्यपि हूँ लाचार सभी विधि निठुर नियति के आगे
फिर भी दुनिया को सूरज दे जाने की अभिलाष है !
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !!

मुझे लगा है शाप, न जब तक
रात प्रात बन जाये,
तब तक द्वार-द्वार मेरी लौ
दीपक - राग सुनाये
जब तक खुलती नहीं बाग़ की
पलकें फूलों वाली
तब तक पात-पात पर मेरी
किरन सितार बजाये
आये-जाये साँस कि चाहे रोये-गाये पीड़ा
मैं जागूँगा जब तक आती धूप न सबके पास है !
जल-जलकर बुझ जाऊँ, मेरा बस इतना इतिहास है !!

~ गोपालदास नीरज


  May 3, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

फ़क़त निगाह से

फ़क़त निगाह से
होता है फ़ैसला दिल का,
न हो निगाह में शोख़ी
तो दिलबरी क्या है

~ अल्लामा इक़बाल

  May 2, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने


बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

ताते जल नहा, पहन श्वेत वसन आई
खुले लॉन बैठ गई दमकती लुनाई
सूरज खरगोश धवल गोद उछल आया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

नभ के उद्यान­ छत्र ­तले मेघ टीला
पड़ा हरा फूल कढ़ा मेजपोश पीला
वृक्ष खुली पुस्तक हर पृष्ठ फड़फड़ाया
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

पैरों में मखमल की जूती­ सी क्यारी
मेघ ऊन का गोला बुनती सुकुमारी–
डोलती सलाई, हिलता जल लहराया
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

बोली कुछ नहीं, एक कुरसी की खाली
हाथ बढ़ा छज्जे की छाया सरका ली
बाहं छुड़ा भागा, गिर बर्फ हुई छाया
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

∼ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


  May 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

चाँद के साथ कई दर्द पुराने


चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले,
कितने ग़म थे जो तेरे ग़म के बहाने निकले।

हिज्र कि चोट अजब संग-शिकन होती है,
दिल की बेफ़ैज़ ज़मीनों से ख़ज़ाने निकले।
*हिज्र=जुदाई; बेफ़ैज़=बंजर

उम्र गुज़री है शब-ए-तार में आँखें मलते,
किस उफ़क़ से मेरा ख़ुर्शीद ना जाने निकले।
*शब-ए-तार=अंधेरी रात; उफ़क़=आसमान; ख़ुर्शीद=सूरज

कू-ए-क़ातिल में चले जैसे शहीदों का जुलूस,
ख़्वाब यूँ भीगती आँखों को सजाने निकले।
क़ू=गली

दिल ने इक ईंट से तामीर किया ताज महल,
तू ने इक बात कही लाख फ़साने निकले।
*तामीर=बनाया

मैंने 'अमजद' उसे बेवास्ता देखा ही नहीं,
वो तो ख़ुश्बू में भी आहट के बहाने निकले।
*बेवास्ता=बिना वज़ह

~ अमजद इस्लाम अमजद


  Apr 30, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मैं कितनी सदियों से

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मैं कितनी सदियों से तक रहा हूँ
ये काएनात और इस की वुसअत (वुसअत=विस्तार, फैलाव)
तमाम हैरत तमाम हैरत
ये क्या तमाशा ये क्या समाँ है
ये क्या अयाँ है ये क्या निहाँ है (अयाँ=स्पष्ट; निहाँ=छुपा हुआ)
अथाह साग़र है इक ख़ला का
न जाने कब से न जाने कब तक
कहाँ तलक है
हमारी नज़रों की इंतिहा है
जिसे समझते हैं हम फ़लक है

ये रात का छलनी छलनी सा काला आसमाँ है
कि जिस में जुगनू की शक्ल में
बे-शुमार सूरज पिघल रहे हैं
शहाब-ए-साक़िब है (शहाब-ए-साक़िब=चमकते सितारे)
या हमेशा की ठंडी काली फ़ज़ाओं में
जैसे आग के तीर चल रहे हैं
करोड़-हा नूरी बरसों के फ़ासलों में फैली (नूरी=प्रकाशित; ख़ला=स्पेस)
ये कहकशाएँ (आकाश गंगा)
ख़ला घेरे हैं
या ख़लाओं की क़ैद में है
ये कौन किस को लिए चला है
हर एक लम्हा
करोड़ों मीलों की जो मसाफ़त है
इन को आख़िर कहाँ है जाना
अगर है इन का कहीं कोई आख़िरी ठिकाना
तो वो कहाँ है

जहाँ कहीं है
सवाल ये है
वहाँ से आगे कोई ज़मीं है
कोई फ़लक है
अगर नहीं है
तो ये नहीं कितनी दूर तक है

मैं कितनी सदियों से तक रहा हूँ
ये काएनात और इस की वुसअत
तमाम हैरत तमाम हैरत
सितारे जिन की सफ़ीर किरनें
करोड़ों बरसों से राह में है
ज़मीं से मिलने की चाह में है
कभी तो आ के करेंगी ये मेरी आँखें रौशन
कभी तो आएगी मेरे हाथों में रौशनी का एक ऐसा दामन
कि जिस को थामे मैं जा के देखूँगा इन ख़लाओं के
फैले आँगन
कभी तो मुझ को ये काएनात अपने राज़ खुल के
सुना ही देगी
ये अपना आग़ाज़ अपना अंजाम
मुझ को इक दिन बता ही देगी

अगर कोई वाइज़ अपने मिम्बर से
नख़वत-आमेज़ लहज़े में ये कहे
कि तुम तो कभी समझ ही नहीं सकोगे
कि इस क़दर है ये बात गहरी
तो कोई पूछे
जो मैं न समझा
तो कौन समझाएगा
और जिस को कभी न कोई समझ सके
ऐसी बात तो फिर फ़ुज़ूल ठहरी

~ जावेद अख़्तर


  Apr 29, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हो जवानी में आर पीने से

हो जवानी में आर पीने से
मौत अच्छी है ऐसे जीने से,
मयकशों, एहतिरामे-साक़ी में
जामो-मीना धरो क़रीने से।

कोई मौसम हो कोई साक़ी हो,
हमको मतलब फक़त है पीने से,
मेरी तौबा ने टूट कर ये कहा,
ज़िंदगानी बढ़ेगी पीने से।

क्यों न हो शौक़े-जाम सावन में
मय को निसबत है इस महीने से।

*आर=शर्म; एहतिरामे-साक़ी में=साक़ी के सम्मान में; जामो-मीना=प्याला और सुराही; फक़त=केवल; निसबत=सम्बंध

~ अर्श मल्सियानी

  Apr 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

दाग़ दुनिया ने दिए

दाग़ दुनिया ने दिए ज़ख़्म ज़माने से मिले,
हम को तोहफ़े ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले।

~ कैफ़ भोपाली


  Apr 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

वह कैसी थी, अब न बता पाऊंगा

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वह कैसी थी,
अब न बता पाऊंगा
वह जैसी थी।
प्रथम प्रणय की आँखों से था उसको देखा,
यौवन उदय, प्रणय की थी वह प्रथम सुनहली रेखा।

ऊषा का अवगुंठन पहने,
क्या जाने खग पिक के कहने,
मौन मुकुल सी, मृदु अंगो में,
मधुऋतु बंदी कर लाई थी!
स्वप्नों का सौंदर्य, कल्पना का माधुर्य
हृदय में भर, आई थी।
वह कैसी थी,
वह न कथा गाऊंगा
वह जैसी थी।

क्या है प्रणय? एक दिन बोली, उसका वास कहाँ है
इस समाज में? देह मोह का,
देह डोह का त्रास कहाँ है?
देह नहीं है परिधि प्रणय की,
प्रणय दिव्य है, मुक्ति हृदय की
यह अनहोनी रीति,
देह वेदी हो प्राणो के परिणय की।

बंध कर दृद्य मुक्त होते है,
बंध कर देह यातना सहती,
नारी के प्राणों में ममता
बहती रहती, बहती रहती।
नारी का तन माँ का तन है,
जाती वृद्धि के लिए विनिर्मित,
पुरुष प्रणय अधिकार प्रणय है,
सुख विलास के हित उत्कंठित।

तुम हो स्वप्न लोक के वासी,
तुम को केवल प्रेम चाहिए,
प्रेम तुम्हें देती मैं अबला,
मुझको घर की क्षेम चाहिए।
हृदय तुम्हें देती हूँ प्रियतम
देह नहीं दे सकती,
जिसे देह दूंगी अब निश्चित
स्नेह नहीं दे सकती।

अतः विदा दो मन के साथी,
तुम नभ के मैं भू की वासी,
नारी तन है, तन है, तन है,
हे मन प्राणो के अभिलाषी।
नारी देह शिखा है जो
नभ देहो के नव दीप संजोती,
जीवन कैसे देही होता
जो नारीमय देह न होती।

तुम हो सपनो के दृष्टा तुम
प्रेम ज्ञान औ सत्य प्रकाशी,
नारी है सौंदर्य प्राण,
नारी है रूप सृजन की प्यासी।

तुम जग की सोचो मैं घर की,
तुम अपने प्रभु, मैं निज दासी,
लज्जा पर न तुम्हें आती,
वन सकते नहीं प्रेम सन्यासी।
विदा! विदा!
शायद मिल जाएँ यदा कदा।

मैं बोला तुम जाओ,
प्रसन्न मन जाओ मेरा आशी,
उसके नयनों में आंसू थे,
अधरों पर निश्छल हंसी।
वह क्या समझ सकी थी, उस पर
क्यों रीझ था यह आत्मतुर
स्वप्न लोक का वासी?

मैं मौन रहा,
फिर स्वतः कहा,
बहती जाओ, बहती जाओ,
बहती जीवन धारा में,
शायद कभी लौट आओ तुम,
प्राण, बन सका अगर सर्वहारा मैं।

∼ सुमित्रानंदन पंत


  Apr 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

नदी के पार से मुझको बुलाओ

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नदी के पार से मुझको बुलाओ मत!
हमारे बीच में विस्तार है जल का
कि तुम गहराइयों को भूल जाओ मत!

कि तुम हो एक तट पर एक पर मैं हूं
बहुत हैरान दूरी देख कर मैं हूं‚
निगाहें हैं तुम्हारी पास तक आतीं
कि बाहें हैं स्वयं मेरी फड़क जातीं!
गगन में ऊंघती तारों भरी महफिल
न रुकती है‚ नदी की धार है चंचल
न आहों से मुझे तुम पास ला सकतीं
न बाहों में नदी को चीरने का बल!

कि रेशम–सी मिलन की डोर टूटी है
निगाहों में मुझे अब तुम झुलाओ मत।
नदी के पार से मुझको बुलाओ मत!!

नदी है यह समय की जो मचलती है
चिरंतन है नदी‚ धारा बदलती है
नदी है तो किनारे भी अलग होंगे
मिलेंगे भी अगर हम–तुम‚ विलग होंगे
मनुज निज में सदा से ही इकाई है
मिलन की बात झूठों नें बनाई है
तटों के बीच में दूरी रहेगी ही
कभी जल नें घटाई है बढ़ाई है!

मिलन है कांच से कच्चा कि अब इस पर
रतन से लोचनों को तुम रुलाओ मत!
नदी के पार से मुझको बुलाओ मत!!

मिलन मिथ्या कि मिलनातुर हृदय सच है
हृदय सच है‚ हृदय–तल का प्रणय सच है
प्रणय के सामने दूरी नहीं कुछ भी
प्रणय कब देखता सुनता कहीं कुछ भी।
चमन में बज रही है फूल की पायल
सुरभि के स्वर पवन को कर रहे चंचल‚
किरण्–कलियां गगन से फेंकती कोई
किसी का हिल रहा लहरों–भरा अंचल!

हृदय की भावना है मप दूरी की
मुझे अपने हृदय से तुम भुलाओ मत!
नदी के पार से मुझको बुलाओ मत!!

प्रणय का लो तुम्हें बदला चुकाता हूं
सितारों को गवाही में बुलाता हूं
जगत करता नदी में दीप अर्पित है।
लहर पर तो हृदय–दीपक विसर्जित है।
अगर तुम तक बहा ले जाए जल का क्रम
इसे निज चम्पई कर में उठा कर तुम‚
रची मंहदी न जिसकी देख मैं पाया
उसी कोमल हथेली में छुपा लो तुम!

हवा आए‚ बुझा जाए न कोई भय
यही काफी है कि अंचल से बुझाओ मत!
नदी के पार से मुझको बुलाओ मत!!

~ राजनारायण बिसरिया


  Apr 26, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार

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हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह
*मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार=गली और बाज़ार की चीज़

इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है कि एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह
*कू-ए-तिश्नगी=प्यास की सड़क; दौलत-ए-बेदार=अचानक आयी दौलत

वो तो कहीं है और मगर दिल के आस-पास
फिरती है कोई शय निगह-ए-यार की तरह

सीधी है राह-ए-शौक़ पे यूँ ही कहीं कहीं
ख़म हो गई है गेसू-ए-दिलदार की तरह
*ख़म=घुमावदार; गेसू-ए-दिलदार=प्रेयसी की ज़ुल्फें

बे-तेशा-ए-नज़र न चलो राह-ए-रफ़्तगाँ
हर नक़्श-ए-पा बुलंद है दीवार की तरह
*तेशा = कुल्हाड़ी; रफ्तगां = गुज़रे हुए लोग

अब जा के कुछ खुला हुनर-ए-नाख़ून-ए-जुनूँ
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह

'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह

~ मजरूह सुल्तानपुरी


  Apr 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

सागर के उर पर नाच नाच...

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सागर के उर पर नाच नाच, करती हैं लहरें मधुर गान।

जगती के मन को खींच खींच
निज छवि के रस से सींच सींच
जल कन्यांएं भोली अजान
सागर के उर पर नाच नाच, करती हैं लहरें मधुर गान।

प्रातः समीर से हो अधीर
छू कर पल पल उल्लसित तीर
कुसुमावली सी पुलकित महान
सागर के उर पर नाच नाच, करती हैं लहरें मधुर गान।

संध्या से पा कर रुचिर रंग
करती सी शत सुर चाप भंग
हिलती नव तरु दल के समान
सागर के उर पर नाच नाच, करती हैं लहरें मधुर गान।

करतल गत उस नभ की विभूति
पा कर शशि से सुषमानुभूति
तारावलि सी मृदु दीप्तिमान
सागर के उर पर नाच नाच, करती हैं लहरें मधुर गान।

तन पर शोभित नीला दुकूल
है छिपे हृदय में भाव फूल
आकर्षित करती हुई ध्यान
सागर के उर पर नाच नाच, करती हैं लहरें मधुर गान।

हैं कभी मुदित, हैं कभी खिन्न,
हैं कभी मिली, हैं कभी भिन्न,
हैं एक सूत्र से बंधे प्राण,
सागर के उर पर नाच नाच, करती हैं लहरें मधुर गान।

∼ ठाकुर गोपाल शरण सिंह


  Apr 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh