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Saturday, September 28, 2019

वो इक मज़दूर लड़की

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वो इक मज़दूर लड़की है
बहुत आसान है मेरे लिए उस को मना लेना

ज़रा आरास्ता (सुसज्जित) हो लूँ
मिरा आईना कहता है
किसी सब से बड़े बुत-साज़ (मूर्तिकार) का शहकार (श्रेष्ट कृति) हूँ गोया
मैं शहरों के तबस्सुम-पाश (मुस्कराते हुए) नज़्ज़ारों का पाला हूँ
मैं पर्वर्दा (पाला हुआ) हूँ बारों क़हवा-ख़ानों की फ़ज़ाओं का
मैं जब शहरों की रंगीं तितलियों को छेड़ लेता हूँ
मैं जब आरास्ता ख़ल्वत-कदों (प्राइवेट बूथ) की मेज़ पर जा कर
शराबों से भी ख़ुश-रंग फूलों को अपना ही लेता हूँ

तो फिर इक गाँव की पाली हुई मासूम सी लड़की
मिरे बस में न आएगी
भला ये कैसे मुमकिन है?
और फिर ऐसे में
जब मैं चाहता हूँ प्यार करता हूँ।

ज़रा बैठो
मैं दरिया के किनारे
धान के खेतों में हो आऊँ
यही मौसम है
जब धरती से हम रोटी उगाते हैं
तुम्हें तकलीफ़ तो होगी
हमारे झोंपड़ों में चारपाई भी नहीं होती
नहीं, मैं रुक गई
तो धान तक पानी न आएगा
हमारे गाँव में
बरसात ही तो एक मौसम है
कि जब हम
साल भर के वास्ते कुछ काम करते हैं

इधर बैठो
पराई लड़कियों को इस तरह देखा नहीं करते
ये लिपस्टिक
ये पाउडर
और ये स्कार्फ़
क्या होगा
मुझे खेतों में मज़दूरी से फ़ुर्सत ही नहीं मिलती
मिरे होंटों पे घंटों बूँद पानी की नहीं पड़ती
मिरे चेहरे मिरे बाज़ू पे लू और धूप रहती है
गले में सिर्फ़ पीतल का ये चंदन हार काफ़ी है
हवा में दिलकशी है
और फ़ज़ा सोना लुटाती है
मुझे उन से अक़ीदत (निष्ठा) है
यही मेरी मताअ' (आभूषण) मेरी नेमत है

बहुत मम्नून (कृतज्ञ) हूँ लेकिन
हुज़ूर आप अपने तोहफ़े
शहर की परियों में ले जाएँ

~ सलाम मछली शहरी


 Sep 28, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, September 22, 2019

उस शख़्स के आने के

 
इक ख़्वाब की आहट से यूँ गूँज उठीं गलियाँ
अम्बर पे खिले तारे बाग़ों में हँसें कलियाँ
सागर की ख़मोशी में इक मौज ने करवट ली
और चाँद झुका उस पर
फिर बाम हुए रौशन
खिड़की के किवाड़ों पर साया सा कोई लर्ज़ा
और तेज़ हुई धड़कन

फिर टूट गई चूड़ी, उजड़ने लगे मंज़र
इक दस्त-ए-हिनाई की दस्तक से खुला दिल में
इक रंग का दरवाज़ा
ख़ुशबू सी अजब महकी
कोयल की तरह कोई बे-नाम तमन्ना सी
फिर दूर कहीं चहकी
फिर दिल की सुराही में इक फूल खिला ताज़ा
जुगनू भी चले आए सुन शाम का आवाज़ा
और भँवरे हँसे मिल कर

हर एक सितारे की आँखों में इशारे हैं
उस शख़्स के आने के
ऐ वक़्त ज़रा थम जा
आसार ये सारे हैं उस शख़्स के आने के

~ अमजद इस्लाम अमजद


 Sep 19, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Thursday, September 19, 2019

सज तो दी महफ़िल तिरी तेरे बग़ैर

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शम-ओ-गुल ने सज तो दी महफ़िल तिरी तेरे बग़ैर
वो रही अपनी जगह जो थी कमी तेरे बग़ैर
*शमा-ओ-गुल =शमा (दीप) और फूल

आमद-ओ-रफ़्त-ए-नफ़स दुश्वार थी तेरे बग़ैर
एक नश्तर सा चुभा जब साँस ली तेरे बग़ैर
*आमद-ओ-रफ़्त-ए-नफ़स=साँस लेना और निकालना

हो गईं थीं सब भली बातें बुरी तेरे बग़ैर
हाँ मगर अच्छी हुई तो शाइरी तेरे बग़ैर

हाए दिल जिस की उमंगें थीं बहारें बाग़ की
वो मिरी जन्नत जहन्नम बन गई तेरे बग़ैर

था बहुत मुमकिन कि बच जाती ग़म-ए-दुनिया से जान
सच तो ये है हम ने कोशिश भी न की तेरे बग़ैर

मुझ को रोने से मिले फ़ुर्सत तो फिर ढूँडूँ उसे
हँस रहा है कौन क़िस्मत का धनी तेरे बग़ैर

जाने वाले जा ख़ुदा हाफ़िज़ मगर ये सोच ले
कुछ से कुछ हो जाएगी दीवानगी तेरे बग़ैर

तेरे दीवाने भी पूजे जाएँगे इक दिन यूँ ही
हो रही है जैसे तेरी बंदगी तेरे बग़ैर

तेरा 'मंज़र' जो कभी था अंदलीब-ए-ख़ुश-नवा
खो गया दुनिया से यूँ चुप साध ली तेरे बग़ैर
*अंदलीब-ए-ख़ुश-नवा=कोयल सी मीठी आवाज़ वाला

~ मंज़र लखनवी

 Sep 19, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, September 18, 2019

नया आसमाँ तलाश करो

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नई ज़मीन नया आसमाँ तलाश करो
जो सत्ह-ए-आब पे हो वो मकाँ तलाश करो
*सत्ह-ए-आब=पानी की सतह पर

नगर में धूप की तेज़ी जलाए देती है
नगर से दूर कोई साएबाँ तलाश करो
*साएबाँ=मंडप

ठिठुर गया है बदन सब का बर्फ़-बारी से
दहकता खोलता आतिश-फ़िशाँ तलाश करो
*आतिश-फिशाँ=आग बरसाने वाला

हर एक लफ़्ज़ के मा'नी बहुत ही उथले हैं
इक ऐसा लफ़्ज़ जो हो बे-कराँ तलाश करो
*बे-कराँ=असीमित

बहुत दिनों से कोई हादिसा नहीं गुज़रा
किसी के ताज़ा लहू का निशाँ तलाश करो

हर एक के राज़ से वाक़िफ़ हो कह रहे हैं सभी
मिरे बदन में कोई दास्ताँ तलाश करो

~ असअ'द बदायुनी


 Sep 18, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, September 15, 2019

मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला


अब क्या बताऊँ मैं तिरे मिलने से क्या मिला
इरफ़ान-ए-ग़म हुआ मुझे अपना पता मिला
*इरफ़ान-ए-ग़म=दुख से आलोकित हो कर

जब दूर तक न कोई फ़क़ीर-आश्ना मिला
तेरा नियाज़-मंद तिरे दर से जा मिला
*फ़क़ीर-आश्ना=भिक्षुक; नियाज़-मंद=ज़रूरत मंद

मंज़िल मिली मुराद मिली मुद्दआ मिला
सब कुछ मुझे मिला जो तिरा नक़्श-ए-पा मिला
*नक़्श-ए-पा=पैरों के निशान

ख़ुद-बीन-ओ-ख़ुद-शनास मिला ख़ुद-नुमा मिला
इंसाँ के भेस में मुझे अक्सर ख़ुदा मिला

सरगश्ता-ए-जमाल की हैरानियाँ न पूछ
हर ज़र्रे के हिजाब में इक आइना मिला

पाया तुझे हुदूद-ए-तअय्युन से मावरा
मंज़िल से कुछ निकल के तिरा रास्ता मिला

क्यूँ ये ख़ुदा के ढूँडने वाले हैं ना-मुराद
गुज़रा मैं जब हुदूद-ए-ख़ुदी से ख़ुदा मिला

ये एक ही तो ने'मत-ए-इंसाँ-नवाज़ थी
दिल मुझ को मिल गया तो ख़ुदाई को क्या मिला

या ज़ख़्म-ए-दिल को छील के सीने से फेंक दे
या ए'तिराफ़ कर कि निशान-ए-वफ़ा मिला

'सीमाब' को शगुफ़्ता न देखा तमाम उम्र
कम-बख़्त जब मिला हमें ग़म-आश्ना मिला

~ सीमाब अकबराबादी


 Sep 15, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, September 14, 2019

करो अपनी भाषा पर प्यार

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करो अपनी भाषा पर प्यार,
जिसके बिना मूक रहते तुम, रुकते सब व्यवहार।

जिसमें पुत्र पिता कहता है, पत्नी प्राणाधार,
और प्रकट करते हो जिसमें तुम निज निखिल विचार,
बढ़ायो बस उसका विस्तार,
करो अपनी भाषा पर प्यार।

भाषा विना व्यर्थ ही जाता ईश्वरीय भी ज्ञान,
सब दानों से बहुत बड़ा है ईश्वर का यह दान,
असंख्यक हैं इसके उपकार,
करो अपनी भाषा पर प्यार।

यही पूर्वजों का देती है तुमको ज्ञान-प्रसाद,
और तुमहारा भी भविष्य को देगी शुभ संवाद,
बनाओ इसे गले का हार,
करो अपनी भाषा पर प्यार।

~ मैथिलीशरण गुप्त

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Sunday, September 8, 2019

अपनी तन्हाई

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घंटियाँ गूँज उठीं गूँज उठीं
गैस बेकार जलाते हो बुझा दो बर्नर
अपनी चीज़ों को उठा कर रक्खो
जाओ घर जाओ लगा दो ये किवाड़
एक नीली सी हसीं रंग की कॉपी ले कर
मैं यहाँ घर को चला आता हूँ
एक सिगरेट को सुलगाता हूँ

वो मिरी आस में बैठी होगी
वो मिरी राह भी तकती होगी
क्यूँ अभी तक नहीं आए आख़िर
सोचते सोचते थक जाएगी
घबराएगी
और जब दूर से देखेगी तो खिल जाएगी
उस के जज़्बात छलक उट्ठेंगे
उस का सीना भी धड़क उट्ठेगा
उस की बाँहों में नया ख़ून सिमट आएगा
उस के माथे पे नई सुब्ह उभरती होगी
उस के होंटों पे नए गीत लरज़ते होंगे
उस की आँखों में नया हुस्न निखर आएगा
एक तर्ग़ीब (उत्तेजना) नज़र आएगी
उस के होंटों के सभी गीत चुरा ही लूँगा

ओह क्या सोच रहा हूँ मुझे कुछ याद नहीं
मैं तसव्वुर में घरौंदे तो बना लेता हूँ
अपनी तन्हाई को पर्दों में छुपा लेता हूँ

~ अख़्तर पयामी


 Sep 8, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, September 6, 2019

अभी तो मैं जवान हूँ


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अभी तो मैं जवान हूँ
जवान हो तो ज़िंदगी की नब्ज़ गुदगुदा तो दो
जवान हो तो वक़्त की सियाहियाँ मिटा तो दो
ये आग लग रही है क्यूँ उसे ज़रा बुझा तो दो

*सियाहियाँ=कालिखें

अभी तो मैं जवान हूँ
जवान हो तो आँधियों से डर रहे हो किस लिए
जवान हो तो बे-कसी से मर रहे हो किस लिए
उरूस-ए-नौ की तरह तुम सँवर रहे हो किस लिए

*बे-कसी=लाचारी; उरूस-ए-नौ=नई दुल्हन

अभी तो मैं जवान हूँ
जवान हो तो शीशा-ओ-शराब ज़िंदगी नहीं
जवान हो तो ज़िंदगी में सिर्फ़ इक हँसी नहीं
फ़लक पे बदलियाँ भी हैं फ़लक पे चाँदनी नहीं

*शीशा-ओ-शराब=शराब और प्याला

अभी तो मैं जवान हूँ
जवान हो तो हो गए हो ज़िंदगी पे बार क्यूँ
जवान हो तो दर ही से पलट गई बहार क्यूँ
दिमाग़ हसरतों का है बना हुआ मज़ार क्यूँ

अभी तो मैं जवान हूँ
जवान हो तो ज़िंदगी से काम ले के बढ़ चलो
जवान हो तो हुर्रियत का नाम ले के बढ़ चलो
दयार-ए-इंक़लाब का पयाम ले के बढ़ चलो

*हुर्रियत=स्वतंत्रता; दयार-ए-इंक़लाब=देश

~ अख़्तर पयामी

 Sep 6, 2019 | e-kavya.blogspot.com
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Sunday, September 1, 2019

ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो

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ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो

दरख़्त हैं तो परिंदे नज़र नहीं आते
वो मुस्तहिक़ हैं वही हक़ से बे-दख़ल लोगो
* मुस्तहिक़=हक़दार

वो घर में मेज़ पे कुहनी टिकाए बैठे हैं
थमी हुई है वहीं उम्र आज-कल लोगो

किसी भी क़ौम की तारीख़ के उजाले में
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नक़ल लोगो

तमाम रात रहा महव-ए-ख़्वाब दीवाना
किसी की नींद में गड़ता रहा ख़लल लोगो

ज़रूर वो भी इसी रास्ते से गुज़रे हैं
हर आदमी मुझे लगता है हम-शकल लोगो

दिखे जो पावँ के ताज़ा निशान सहरा में
तो याद आए हैं तालाब के कँवल लोगो

वे कह रहे हैं ग़ज़ल-गो नहीं रहे शाएर
मैं सुन रहा हूँ हर इक सम्त से ग़ज़ल लोगो

~ दुष्यंत कुमार

 Sep 1, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh