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Saturday, April 30, 2016

रिश्तों ने बाँधा है जब से अनुबंध में



रिश्तों ने बाँधा है जब से अनुबंध में,
रंग नए दिखते हैं, गीतों में छंद में।

शब्द सभी अनुभव के अनुगामी लगते हैं
अनचाहे उन्मन से अधरों पर सजते हैं।
सब कुछ ही कह जाते अपने संबंध में,
रंग नए दिखते हैं गीतों में छंद में।

अंतर के भावों में सागर लहराता है,
सुधियों के बंधन से आकर टकराता है।
धीरज रुक जाता है अपने तटबंध में
रंग नए दिखते गीतों में छंद में।

नयनों में सतरंगे सपनों की डोली है,
साँसों में सरगम की भाषा है बोली है।
जीवन की उर्जा है परिचित-सी गंध में,
रंग नए दिखते हैं गीतों में छंद में।

नेहों की निधियों का संचय कर लेने को,
सुधियों में स्नेहिल-सी बातें भर लेने को।
आतुर मन रहता है इसके प्रबंध में,
रंग नए दिखते हैं गीतों में छंद में।

~ अजय पाठक


  Apr 30, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आप के क़ुर्ब से पहले मुझे

आप के क़ुर्ब से पहले मुझे मालूम ना था
ज़िंदगी इतनी दिल-आवेज़ भी हो सकती है

*क़ुर्ब=ताल्लुक; दिल-आवेज़= मनमोहक

~ शकील अहमद ज़िया

  Apr 29, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

न इंतज़ार की लज़्ज़त न आरज़ू की थकन



न इंतज़ार की लज़्ज़त न आरज़ू की थकन
बुझी हैं दर्द की शमाएँ कि सो गया है बदन
*लज़्ज़त=स्वाद

सुलग रही हैं न जाने किस आँच से आँखें
न आँसुओं की तलब है न रतजगों की जलन
*रतजगों=रात भर जागने

दिले-फ़रेब-ज़दा, दावते-नज़र पे न जा
ये आज के क़दो-गेसू हैं कल के दारो-रसन
*फ़रेब-ज़दा=धोखा खाए हुए; दावते-नज़र=दृष्टि के निमन्त्रण; क़दो-गेसू=क़द और बाल; दारो-रसन=सूली और रस्सी

ग़रीबे-शहर किसी साया-ए-शजर में न बैठ
कि अपनी छाँव में ख़ुद जल रहे हैं सर्वो-समन
*ग़रीबे-शहर=परदेसी; साया-ए-शजर=पेड़ की छांव; सर्वो-समन=पेड़ और फूल

बहारे-क़ुर्ब से पहले उजाड़ देती हैं
जुदाइयों की हवाएँमुहब्बतों के चमन
*बहारे-क़ुर्ब=सामीप्य के वसंत

वो एक रात गुज़र भी गई मगर अब तक
विसाले-यार की लज़्ज़त से टूटता है बदन
*विसाले-यार=प्रेमिका-मिलन; लज़्ज़त=स्वाद

फिर आज शब तिरे क़दमों की चाप के हमराह
सुनाई दी है दिले-नामुराद की धड़कन
*शब=रात; दिले-नामुराद=अभागे दिल

ये ज़ुल्म देख कि तू जान-ए-शाइरी है मगर
मिरी ग़ज़ल पे तिरा नाम भी है जुर्मे-सुख़न
*जुर्मे-सुख़न=बात या शायरी करने का अपराध

हवा-ए-दहर से दिल का चराग़ क्या बुझता
मगर ‘फ़राज़’ सलामत है यार का दामन
*हवा-ए-दहर=ज़माने की हवा

~ अहमद फ़राज़


  Apr 29, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

अगर न ज़ोहरा जबीनों के


अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे

इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे

बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे

~ जिगर मुरादाबादी


  Apr 28, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आपके दिल ने हमें आवाज दी




आपके दिल ने हमें आवाज दी, हम आ गए
हमको ले आई मोहब्बत आपकी, हम आ गए

अपने आने का सबब हम क्या बताए आपको
बैठे बैठे याद आई आपकी, हम आ गए

हम है दिलवाले भला हम पर किसी का जोर क्या
जायेंगे अपनी खुशी, अपनी खुशी हम आ गए

कहिये अब क्या है चरागों की जरुरत आपको
ले के आँखों मे वफ़ा की रौशनी, हम आ गए

~ पयाम सईदी
 

  Apr 27, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

अंतिम निमंत्रण आज है!



अंतिम निमंत्रण आज है!
वरदान पाने के लिए,
निर्माण पाने के लिए,
युग-युग तुम्हारे पास पंछी नीड़ में आता रहा

अंतिम निमंत्रण आज है!
लघु श्वास के दो तार पर,
विश्वास के आधार पर,
जड़ विश्व के चेतन नियम हंस भूल ठुकराता रहा

अंतिम निमंत्रण आज है!
संतोष पलकों से ढुलक,
बहता रहा था शाम तक,
नीरव निशा के शून्य में दृग-सिंधु यह गाता रहा।

~ गोरख नाथ


  Apr 26, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने




इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झाँकूँ उसके पीछे तो रुसवाई ही रुसवाई है

यूँ लगता है सोते-जागते औरों का मोहताज हूँ मैं
आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है

देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है

सब कहते हैं इक जन्नत उतरी है मेरी धरती पर
मैं दिल में सोचूँ शायद कमज़ोर मेरी बीनाई है
*बीनाई=दृष्टि

बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है

आने वाली फ़स्ल से पहले गिर गये नर्ख़ ज़मीरों के
पहला-सा है क़हत न अब वो पहले-सी महँगाई है
*नर्ख़=भाव; ज़मीर=अन्तरात्मा; क़हत=सूखा, कमी

आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चन्द सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है
*दानाई=बुद्धिमत्ता

तोड़ गये पैमाना-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच 'क़तील' कि बस इक यार तेरा हरजाई है
*पैमाना=माप/(मदिरा का) प्याला; वफ़ा=निष्ठा; हरजाई=इधर-उधर प्रेम करने वाला

~ क़तील शिफ़ाई


  Apr 24, 2015|e-kavya.blogspot.com
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सजल जीवन की सिहरती धार पर


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सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ।

यह न मुझसे पूछना, मैं किस दिशा से आ रहा हूँ,
है कहाँ वह चरणरेखा, जो कि धोने जा रहा हूँ,
पत्थरों की चोट जब उर पर लगे,
एक ही 'कल-कल' कहो, तो ले चलूँ।
सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ।

मार्ग में तुमको मिलेंगे वात के प्रतिकूल झोंके,
दृढ़ शिला के खण्ड होंगे दानवों से राह रोके,
यदि प्रपातों के भयानक तुमुल में,
भूल कर भी भय न हो, तो ले चलूँ।
सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ।

हो रहीं धूमिल दिशाएँ, नींद जैसे जागती है,
बादलों की राशि मानो मुँह बनाकर भागती है,
इस बदलती प्रकृति के प्रतिबिम्ब को,
मुस्कुराकर यदि सहो, तो ले चलूँ।
सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ।

मार्ग से परिचय नहीं है, किन्तु परिचित शक्ति तो है,
दूर हो आराध्य चाहे, प्राण में अनुरक्ति तो है,
इन सुनहली इंद्रियों को प्रेम की,
अग्नि से यदि तुम दहो, तो ले चलूँ।
सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ।

वह तरलता है हृदय में, किरण को भी लौ बना दूँ,
झाँक ले यदि एक तारा, तो उसे मैं सौ बना दूँ,
इस तरलता के तरंगित प्राण में -
प्राण बनकर यदि रहो, तो ले चलूँ।
सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ।

~ रामकुमार वर्मा


  Apr 23, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तमाम उम्र की बेदारियां भी

तमाम उम्र की बेदारियां भी सह लेंगे
मिली है छाँव तो बस एक नींद सो लें आज
*बेदारियां=जागना

किसे ख़बर है कि कल ज़िंदगी कहाँ ले जाये
निगाह-ए-यार तिरे साथ ही न हो लें आज
*निगाह-ए-यार=प्रेयसी की नज़र

~ फ़रीद जावेद

  Apr 22, 2015|e-kavya.blogspot.com
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शाम आई तो कोई ख़ुश-बदनी



शाम आई तो कोई ख़ुश - बदनी याद आई
मुझे इक शख़्स की वादा-शिकनी याद आई
*ख़ुश-बदनी=सुंदर बदन वाली; वादा-शिकनी=वादा तोड़ना

मुझे याद आया कि इक दौर था सरगोशी का
आज उसी दौर की इक कम-सुखनी याद आई
*सरगोशी=कान में कहना; कम-सुखनी=कम बोलना

मसनद-ए-नग़्मा से जो रंग-ए-तबस्सुम उभरा
खिलखिलाती हुई इक ग़ुंचा-दहनी याद आई
*मसनद-ए-नग़्मा=गीत की गद्दी; ग़ुंचा-दहनी=प्रेमिका

लब जो याद आये तो बोसों की ख़लिश जाग उठी
फूल महके तो मुझे फिर बे-चमनी याद आई
*बोसों=चुम्बन; ख़लिश=इच्छा; बे-चमनी=चमन का न होना

फिर तसव्वुर में चली आई महकती हुई शब
और सिमटी हुई बे पैरहनी याद आई
*तसव्वुर=सपना; बे पैरहनी=बग़ैर पहनावे के

हाँ कभी दिल से गुज़रता था जुलूस-ए-ख़्वाहिश
आज उसी तरह की इक नारा-ज़नी याद आई
*नारा-ज़नी=नारे बाज़ी

किस्सा-ए-रफ़्ता को दोहरा तो लिया 'अज़्म' मगर
किस मसाफ़त पे तुम्हें बे-वतनी याद आई
*रफ़्ता=चले जाना; मसाफ़त=सफ़र;

~ अज़्म बहज़ाद


  Apr 22, 2015|e-kavya.blogspot.com
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आज किस याद से चमकी

आज किस याद से चमकी तिरी चश्म-ए-पुर-नम
जाने ये किस के मुक़द्दर का सितारा होगा

*चश्म-ए-पुर-नम=आँसुओं से भीगी आँखें

~ सूफ़ी तबस्सुम

  Apr 20, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

उषा में ही क्यों तुम निरुपाय




उषा में ही क्यों तुम निरुपाय,
हार कर थक बैठे चुप हाय?
मुसाफिर चलना ही है तुम्हें, अभी तो रातें बाकी हैं!

देखकर तुम काँटों के ताज,
फूल से हो नाहक नाराज।
जानते तुम इतना भी नहीं-
प्यार को है पीड़ा पर नाज!
उँगलियों की थोड़ी-सी चुभन
बना देती तुमको बेज़ार,
अश्रु मधुऋतु में ही झड़ रहे, अभी बरसातें बाकी हैं
अभी तो रातें बाकी हैं!

बताता है नयनों का नीर,
चुभे हैं कहीं हृदय में तीर।
मगर, क्यों इतने में कह रहे
कि दुनिया सपनों की तस्वीर?
जरा-सा कम्पन पाते ही,
किया तारों ने हाहाकार,
अभी तो मन की वीणा पर, निष्ठुर कुछ घातें बाकी हैं!
अभी तो रातें बाकी हैं।

अगर जाना है तुमको पार
बहुत है तिनके का आधार;
और, मत सोचो मेरे मीत,
कहेगा क्या तट से संसार!
जरा-सी चली मलय की झोंक,
तुम्हारी डगमग डोली नाव
अभी तो कहता है आकाश, प्रलय की रातें बाकी हैं!
बहुत-सी बातें बाकी हैं!

~ श्यामनन्दन किशोर
 

  Apr 20, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जब भी आया है किसी को

जब भी आया है किसी को
भूल जाने का ख़याल,
यक-ब-यक आवाज़ आई
लीजिए हम आ गए।

~ शमीम जयपुरी

  Apr 18, 2015|e-kavya.blogspot.com
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इक रात में सौ बार जला




इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ
मुफ़लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ
*मुफ़लिस= ग़रीब

जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ

कंदील समझ कर कोई सर काट न ले जाए
ताजिर हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ
*कंदील=फानूस; ताजिर=व्यापारी

वो आईना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ

दुनिया का कोई हादसा ख़ाली नहीं मुझसे
मैं ख़ाक हूँ, मैं आग हूँ, पानी हूँ, हवा हूँ

मिल जाऊँगा दरिया में तो हो जाऊँगा दरिया
सिर्फ़ इसलिए क़तरा हूँ कि मैं दरिया से जुदा हूँ

हर दौर ने बख़्शी मुझे मेराजे मौहब्बत
नेज़े पे चढ़ा हूँ कभी सूलह पे चढ़ा हूँ
*मेराज=(स्वर्ग ले जाने वाली) सीढ़ी; नेज़े=भाले; सूलह=सूली

दुनिया से निराली है 'नज़ीर' अपनी कहानी
अंगारों से बच निकला हूँ फूलों से जला हूँ

‍~ नज़ीर बनारसी


  Apr 18, 2015|e-kavya.blogspot.com
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किसी के स्पर्शों से मेरी



किसी के स्पर्शों से मेरी
देह सब पाटल-पाटल है ।

प्राण में जली प्रणय की लौ
काम्य कौमार्य कपूर हुआ,
आरती श्वास, रोम अक्षत
लाज का स्वर सिन्दूर हुआ,
प्यार की पूजा के पल में
समर्पित तन-तुलसीदल है ।

प्रणय-पुष्पों की गंध लिए
साँस के सार्थवाह निकले,
गीत गंधर्वी आत्मा से
पूर्ण करके विवाह निकले,
वृत्ति अब जैसे वंशी है,
मर्म अब जैसे मादल है ।

देह की शिरा-शिरा गोपी
गूँजता मन-वृन्दावन है,
मग्न है महारास में सब
ब्रह्मसुख पाने का क्षण है ।
हृदय के श्याम व्यथाकुल हैं,
प्रीति की राधा विह्वल है ।

किसी के स्पर्शों से मेरी
देह सब पाटल-पाटल है ।

*पाटल=गुलाबी या धूमिल लाल रंग; सार्थवाह=व्यापारी; वृत्ति=मन:स्थिति; मादल=एक बाजा

~ चंद्रसेन विराट


  Apr 17, 2015|e-kavya.blogspot.com
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दीवाना बनाना है तो



दीवाना बनाना है तो, दीवाना बना दे
वरना कहीं तक़दीर, तमाशा न बना दे

ए देखनेवालों मुझे हंस हंस के न देखो
तुम को भी मोहब्बत कहीं मुझ सा न बना दे

मैं ढूँढ रहा हूँ मेरी वो शम्मा कहाँ है
जो बज़म की हर चीज़ को परवाना बना दे
*बज़म=महफ़िल

आख़िर कोई सूरत भी तो हो खाना-ए-दिल की
काबा नहीं बनता है, तो बुत-खाना बना दे
*खाना-ए-दिल=दिल का घर

'बहज़ाद' हर एक जाम पे एक सजदा-ए-मस्ती
हर ज़र्रे को संग-ए-दर-ए-जानां न बना दे
*सजदा=प्रार्थना; संग-ए-दर-ए-जानां= महबूब के दरवाज़े का पत्थर

~ बहज़ाद लखनवी


  Apr 16, 2015|e-kavya.blogspot.com
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रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उसको स्वर्ग, धीर!
पर, फिरा हमें गांडीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर!
कह दे शंकर से,आज करें
वे प्रलय नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
हर-हर-बम का फिर महोच्चार!

~ 'दिनकर'


  Apr 15, 2015|e-kavya.blogspot.com
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हमने तूफां अपना, खुद चुना है



हमने तूफां अपना, खुद चुना है
साहिल न हो, पतवार न हो, तो क्या।

हम ही तूफां हैं साहिल हैं,
पतवार हम हैं।
यह क्या कम है कि,
मौजे रवां हम हैं
तूफां हम हैं पतवार हम हैं।

वर्ष दो वर्ष, जिन्दगी एक नये मोड़ पर
घूम जाती है
वो कैसे लोग हैं कि सीधी सड़क पर
चले जा रहें हैं
हमने हर मोड़ पर
एक नया तर्न्नुम पाया -
संगीत जिन्दगी का
गाते चले।

तुम दूर चले जाओगे, तो क्या
तुम याद आओगे, तो क्या
तुम भूल जाओगे, तो क्या
जिन्दगी यही याद, भूल, आसरा है

नये रिश्तों में, तूफां मे चलो नहीं
किसी नाव को तूफां में ठेलो नहीं
कोई तूफां कोई रिश्ते
बहती रेत में नहीं उठते बनते

ऐसे तूफां के सपने संजोओ नहीं
जिसकी इक लहर का दूसरी से
कोई रिश्ता न हो

न जाने कितने संग ओ साथी
के बाद
एकाकी जीवन पाया है।
एक समय था कि
साथ छॊड़ जाते थे हम
अब है कि नये साथ खोजते हैं।

हमने सोचा था कि जीवन एकाकी है
न जाने कब किसने
नये साथ की आहट दी है।

यह आहट सुनों नहीं
इस साथ में भटको नहीं
साथ अपने एकाकीपन का
संगीत अपनी रुह का
गाते चलो निभाते चलो।

इकतारे को औरों की हवा से
न छेड़ो
इसका संगीत नायाब है
अनमोल है
इसे नये रिश्तों से, न जोड़ो।

~ रणजीत कुमार मुरारका


  Apr 15, 2015|e-kavya.blogspot.com
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मैं तो इक अश्के-नदामत के सिवा

मैं तो इक अश्के-नदामत के सिवा कुछ भी नहीं
तुम अगर चाहो तो पलकों पे बिठा लो मुझको

*अश्के-नदामत=पश्चाताप का आंसू

‍~ मोमिन

  Apr 14, 2015|e-kavya.blogspot.com
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बैठ जाता हूँ जहाँ छाँव घनी होती है




बैठ जाता हूँ जहाँ छाँव घनी होती है
हाए क्या चीज़ ग़रीब-उल-वतनी होती है
*ग़रीब-उल-वतनी=देश से बाहर रहना

दिन को इक नूर बरसता है मिरी तुर्बत पर
रात को चादर-ए-महताब तनी होती है
*नूर=प्रकाश; तुर्बत=मकबरा; महताब=चांद(नी)

रूत बदलते ही बदल जाती है नीयत मेरी
जब बहार आती है तौबा-शिकनी होती है

ग़ैर के बस में तुम्हें सुन के ये कह उठता हूँ
ऐसी तक़दीर भी अल्लाह ग़नी होती है
*ग़नी=समृद्ध

न बढ़े बात अगर खुल के करें वो बातें
बाइस-ए-तूल-ए-सुख़न कम-सुख़नी होती है
*ज़्यादा बोलने का नतीज़ा; कम-सुख़नी=कम बातचीत

लुट गया वो तिरे कूचे में धरा जिस ने क़दम
इस तरह की भी कहीं राह-ज़नी होती है
*कूचा=गली; राह-ज़नी=लूट लेना

हुस्न वालों को ज़िद आ जाए ख़ुदा ये न करे
कर गुज़रते हैं जो कुछ जी में ठनी होती है

हिज्र में ज़हर है साग़र का लगाना मुँह से
मय की जो बूँद है हीरे की कनी होती है
*हिज्र=जुदाई; कनी=कणिका

मय-कशों को न कभी फ़िक्र-ए-कम-ओ-बेश रही
ऐसे लोगों की तबीअत भी ग़नी होती है
*फ़िक्र-ए-कम-ओ-बेश=कम या ज़्यादा होने की चिंता

हूक उठती है अगर ज़ब्त-ए-फ़ुगाँ करता हूँ
साँस रूकती है तो बरछी की अनी होती है
*ज़ब्त-ए-फ़ुगाँ=दर्द की बर्दाईश; अनी=नोक

अक्स की उन पर नज़र आईने पर उन की निगाह
दो कमाँ-दारों में नावक-फ़गनी होती है
*कमाँ-दारों=बिना किसी कमी के; नावक-फ़गनी=(छोटे छोटे) तीर चलाना

पी लो दो घूँट कि साकी की रहे बात ‘हफीज़’
साफ़ इंकार में ख़ातिर-शिकनी होती है
*ख़ातिर-शिकनी=मेज़बान की बेइज्जती

‍ ~ हफीज़ जौनपुरी



  Apr 13, 2015|e-kavya.blogspot.com
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चलो अच्छा हुआ काम आ गई

चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वरना ज़माने-भर को समझाने हम कहाँ जाते
क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते

~ क़तील शिफ़ाई

  Apr 12, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Monday, April 11, 2016

गुलशन की फ़क़त फूलों से नहीं

गुलशन की फ़क़त फूलों से नहीं कांटों से भी ज़ीनत होती है
जीने के लिये इस दुनिया में ग़म की भी ज़रूरत होती है
जो आकर रुके दामन पे 'सबा' वो अश्क नहीं है पानी है
जो आंसू न छलके आँखों से उस अश्क की कीमत होती है

~ सबा अफ़ग़ानी

  Apr 11, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

रूप का दर्पण लिये तुम



रूप का दर्पण लिये तुम सामने जो आ खड़ी हो,
लग रहा है चांद का प्रतिबिम्ब दर्पण पर पड़ा है।

किस चितेरे ने अदा से सुभग यह मूरत गढ़ी है
देख जिसको उर्वशी ने प्यार की गीता पढ़ी है
कौन चितवन चांदनी का चोर कर घर यों गया है
कौन इसमे इंद्रधनुषी रंग सारे भर गया है।
रचा शायद जनकपुर में स्वयंवर फिर जानकी का
रहा शिव धनुष अब फिर कसौटी पर चढ़ा है

प्यार की गज़लें थीं ग़ालिब ने लिखी शायद तुम्हीं पर
खींच लाया कौन तुम सा चांद नभ से इस ज़मीं पर
और किन शिल्पीकारों ने रंग अधरों पर उतारा
चांदनी की पालकी से कौन करता है इशारा
पहन कर नीले वसन यों आ रही स्वप्नों की मलिका
लग रहा प्रणयी कहीं अभिसार करने को खड़ा है

कौन बेसुध कर रहा है दर्द के नग़मे सुना कर
राधिका के हाथ में यों प्यार की मुरली थमा कर
आज मन की बात कोई हीर, रांझा से कहेगा
लग रहा है आज की ये रात भी उजली रहेगी
जा रही नैहर से पुरवा आज प्रीतम के नगर को,
लग रहा शायद इसी से हर तरफ पहरा कड़ा है।

~ दुलीचन्द 'शशि'



  Apr 11, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

रफ्ता रफ्ता वो मेरे हस्ती का



रफ्ता रफ्ता वो मेरे हस्ती का सामां हो गये
पहले जां, फिर जानेजां, फिर जानेजाना हो गये

दिन-ब-दिन बढती गईं इस हुस्न की रानाइयां,
पहले गुल, फिर गुल-बदन, फिर गुल-बदामां हो गए
*रानाइयां:सौन्दर्य; गुल=फूल; बदामा=प्रलय मचाने वाली

आप तो नज़दीक से नज़दीक-तर आते गए,
पहले दिल, फिर दिलरुबा, फिर दिल के मेहमां हो गए

प्यार जब हद से बढ़ा सारे तकल्लुफ मिट गए,
आप से, फिर तुम हुए, फिर तू का खुनवाँ हो गए
*तकल्लुफ=औपचारिकता

~ ‍तस्लीम फाज़ली



  Apr 10, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

ख़ुदा करे कि मुहब्बत में

ख़ुदा करे कि मुहब्बत में वो मुकाम आये,
किसी का नाम लूँ लब पे तुम्हारा नाम आये.

~ तस्लीम फाज़ली


  Apr 09, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

चांद मद्धम है, आसमां चुप है



चांद मद्धम है, आसमां चुप है।
नींद की गोद में जहां चुप है।

दूर वादी पे दूधिया बादल
झुक के पर्वत को प्यार करते हैं।
दिल में नाकाम हसरतें लेकर,
हम तेरा इन्तज़ार करते हैं।

इन बहारों के साये में आ जा
फिर मोहब्बत जवां रहे न रहे।
ज़िन्दगी तेरे नामुरादों पर
कल तलक मेहरबां रहे न रहे।

रोज की तरह आज भी तारे
सुबह की ग़र्द में न सो जायें।
आ तेरे ग़म में जागती आंखें
कम से कम एक रात सो जायें।

चांद मद्धम है, आसमां चुप है।
नींद की गोद में जहां चुप है।

~ साहिर लुधियानवी
 
  Apr 09, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

 

वो जो मुंसिफ़ है तो क्या

वो जो मुंसिफ़ है तो क्या कुछ भी सज़ा दे देगा
हम भी रखते हैं ज़ुबाँ, पहले ख़ता पूछेंगे

~ राहत इंदौरी

  Apr 08, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Friday, April 8, 2016

होंठ पर पाबन्दियाँ हैं



होंठ पर पाबन्दियाँ हैं
गुनगुनाने की।

निर्जनों में जब पपीहा
पी बुलाता है।
तब तुम्हारा स्वर अचानक
उभर आता है।
अधर पर पाबन्दियाँ हैं
गीत गाने की।

चाँदनी का पर्वतों पर
खेलना रुकना
शीश सागर में झुका कर
रूप को लखना।
दर्पणों को मनाही
छबियाँ सजाने की।

ओस में भीगी नहाई
दूब सी पलकें,
श्रृंग से श्यामल मचलती
धार सी अलकें।
शिल्प पर पाबन्दियाँ
आकार पाने की।

केतकी सँग पवन के
ठहरे हुए वे क्षण,
देखते आकाश को
भुजपाश में, लोचन।
बिजलियों को है मनाही
मुस्कुराने की।

हवन करता मंत्र सा
पढ़ता बदन चन्दन,
यज्ञ की उठती शिखा सा
दग्ध पावन मन।
प्राण पर पाबन्दियाँ
समिधा चढाने की।

~ बालकृष्ण मिश्र


  Apr 08, 2015|e-kavya.blogspot.com
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न उदास हो न मलाल कर

न उदास हो न मलाल कर किसी बात का न ख़याल कर
कई साल बाद मिले हैं हम तेरे नाम आज की शाम है

~ बशीर बद्र


  Apr 07, 2015|e-kavya.blogspot.com
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किस क़दर सर्द है यह रात



किस क़दर सर्द है यह रात, अंधेरे ने कहा
मेरे दुशमन तो हज़ारों हैं - कोई तो बोले

चांद की क़ाश भी तहलील हुई शाम के साथ
और सितारे तो संभलने भी न पाए थे अभी
*क़ाश=टुकडा(फांक); तहलील=घुलना

कि घटा आई, उमड़ते हुए गेसू खोले
वह जो आई थी तो टूटके बरसी होती

मगर एक बूंद भी टपकी न मेरे दामन पर
सिर्फ़ यख़-बस्ता हवाओं के नुकीले झोंके
*यख़-बस्ता=बहुत ठंढी

मेरे सीने में उतरते रहे, खंजर बनकर
खोई आवाज़ नहीं- कोई भी आवाज़ नहीं

चार जानिब से सिमटता हुआ सन्नाटा है
मैंनें किस कर्ब से इस शब का सफ़र काटा है
*जानिब=ओर; कर्ब=दुख; शब=रात

दुशमनों! तुमको मेरे जब्रे-मुसलसल की कसम
मेरे दिल पर कोई घाव ही लगाकर देखो
*जब्रे-मुसलसल=निरंतर अत्याचार

वह अदावत ही सही, तुमसे मगर रब्त तो है
मेरे सीने पे अलाव ही लगाकर देखो
*अदावत=दुश्मनी; रब्त=लगाव

~ अहमद नदीम क़ासमी


  Apr 06, 2015|e-kavya.blogspot.com
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मधुर मधुर मेरे दीपक जल

मधुर मधुर मेरे दीपक जल,
युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर।

मिट मिट कर हर सांस लिख रही, शत शत मिलन-विरह लेखा,
निज को खो कर निमिष आँकते - अनदेखे चरणों की रेखा,
पल भर का यह स्वप्न तुम्हारी युग युग की पहचान बन गया,
पथ मेरा निर्वाण बन गया ।

~ महादेवी वर्मा


  Apr 05, 2015|e-kavya.blogspot.com
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तुम्हारे नयनों की बरसात।




तुम्हारे नयनों की बरसात।
रिम-झिम, पल-छिन, बरस रही जो,
बे-मौसम दिन-रात।

उठती आकुल आह धुआँ बन,
घिरता प्राणों का गगन-आंगन।
प्रिय की सुधि बन चमकी बिजली
सिहरे पुलकिन गात।

जीवन का सिर कितना पंकिल,
जिसमें चुपके से जाता खिल,
करुणा-सा शुचि, दुख-सा सुन्दर
यौवन का जल-जात!
*पंकिल=कीचड़ से युक्त; शुचि=शुद्ध; जल-जात=जो जल में मे उपजा हो यहां तात्पर्य कमल से है

तिमिर विरह का विकल शून्य क्षण।
क्रन्दन, जैसे नभ का गर्जन।
दो उसाँस से चलती रह-रह
थर-थर कम्पित वात।
*वात=हवा

~ श्यामनन्दन किशोर


  Apr 04, 2015|e-kavya.blogspot.com
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बहुत दिनों तक उम्मीदों से

बहुत दिनों तक उम्मीदों से ताका तुम्हें जलधर
मगर क्या बात है ऎसी, कहीं गरजे कहीं बरसे
कहीं तो शोख सागर से, मचलते भूल मर्यादा
कहीं कोई अभागिन चातकी दो बूँद को तरसे

~ श्यामनन्दन किशोर

  Apr 03, 2015|e-kavya.blogspot.com
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आज हमने एक दुनिया बेची




आज हमने एक दुनिया बेची
और एक दीन ख़रीद लिया
हमने कुफ़्र की बात की

*कुफ़्र=इस्लाम धर्म की मान्यताओं के विरुद्ध कोई आचरण

सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली

आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली

यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे

~ अमृता प्रीतम
 

  Apr 03, 2015|e-kavya.blogspot.com
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भांप ही लेंगे इशारा

भांप ही लेंगे, इशारा जो सरे-महफ़िल किया
ताड़ने वाले, क़यामत की नज़र रखते हैं।

~ लाल माधवराम जौहर


  Apr 02, 2015|e-kavya.blogspot.com
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जाम चलने लगे दिल मचलने लगे


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ज़िन्दगी जीने को दी, जी मैंने,
क़िस्मत में लिखा था पी, तो पी मैंने।
मैं न पीता तो तेरा लिखा गलत हो जाता
तेरे लिखे को निभाया, क्या ख़ता की मैंने

जाम चलने लगे दिल मचलने लगे चेहरे चेहरे पे रंगे-शराब आ गया
बात कुछ भी न थी बात इतनी हुई आज महफ़िल में वो बेनकाब आ गया

दिलकशी क्या कहें नाज़ुकी क्या कहें ताज़गी क्या कहें ज़िंदगी क्या कहें
हाथ में हाथ उसका वो ऐसे लगा जैसे हाथों में कोई गुलाब आ गया

हुस्न वाले तेरी बात रखनी पड़ी आ गयी इम्तिहाँ की वो आख़िर घडी
पूछ ले पूछ ले आइना ही तो है, देख ले आज तेरा जवाब आ गया

नाम अपना कहीं पर लिखा तो नहीं बस इसी बात का आज कर ले यक़ीं
आओ राही ज़रा पूछ कर देख ले अपने दिल की वो खोले किताब आ गया

~ सईद राही


  Apr 01, 2015|e-kavya.blogspot.com
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छिटक रही है चाँदनी




छिटक रही है चाँदनी, मदमाती उन्मादिनी
कलगी-मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले
पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलाँगती-
सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती!

*कलगी-मौर=(लम्बी घास पर निकले) फूलों से तात्पर्य; कास=लम्बी घास; शशों=खरगोशों; बाँक=टेढापन

कुहरा झीना और महीन, झर-झर पड़े अकासनीम
उजली-लालिम मालती गंध के डोरे डालती,
मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की-
तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुईं चकोर की!

*अकासनीम=नीम पर पनपने वाली एक तरह की बेल; मालती=एक प्रकार की लता, जिसमें सफेद रंग के सुगंधित फूल लगते हैं; बाट=राह; अगोरते=अपलक देखते

‍ ~ अज्ञेय
  Mar 31, 2015|e-kavya.blogspot.com
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बहुत प्यारे बन्धनों को आज



बहुत प्यारे बन्धनों को आज झटका लग रहा है,
टूट जायेंगे कि मुझ को आज खटका लग रहा है,
आज आशाएं कभी भी चूर होने जा रही हैं,
और कलियां बिन खिले कुछ चूर होने जा रही हैं,

बिना इच्छा, मन बिना,
आज हर बंधन बिना,
इस दिशा से उस दिशा तक छूटने का सुख!
टूटने का सुख।

शरद का बादल कि जैसे उड़ चले रसहीन कोई,
किसी को आशा नहीं जिससे कि सो यशहीन कोई,
नील नभ में सिर्फ उड़ कर बिखर जाना भाग जिसका,
अस्त होने के क्षणों में है कि हाय सुहाग जिस का,

बिना पानी, बिना वाणी,
है विरस जिसकी कहानी,
सूर्य कर से किन्तु किस्मत फूटने का सुख!
टूटने का सुख।

फूल श्लथ-बंधन हुआ, पीला पड़ा, टपका कि टूटा,
तीर चढ़ कर चाप पर, सीधा हुआ खिंच कर कि छूटा,
ये किसी निश्चित नियम, क्रम कि सरासर सीढ़ियां हैं,
पाँव रख कर बढ़ रही जिस पर कि अपनी पीढियां हैं,

बिना सीढ़ी के चढ़ेंगे तीर के जैसे बढ़ेंगे,
इसलिए इन सीढ़ियों के फूटने का सुख!
टूटने का सुख।

*श्लथ=शिथिल

∼ भवानीप्रसाद मिश्र


  Mar 30, 2015|e-kavya.blogspot.com
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एक आहट अभी दरवाज़े पे लहराई थी



एक आहट अभी दरवाज़े पे लहराई थी
एक सरगोशी अभी कानों से टकराई थी
एक ख़ुशबू ने अभी जिस्म को सहलाया था
एक साया अभी कमरे में मेरे आया था
और फिर नींद की दीवार के गिरने की सदा
और फिर चारों तरफ तेज़ हवा...!!

‍ ~ शहरयार


   Mar 29, 2015|e-kavya.blogspot.com
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रेगिस्तानी आँखों में भी हैं



रेगिस्तानी आँखों में भी हैं तस्वीरें पानी की
क्या-क्या पेश करूँ बतलाओ और नज़ीरें पानी की
* नज़ीरें=मिसालें

मिटने से भी मिट न सकेंगी चंद लकीरें पानी की
पत्थर पर मौजूद रहेंगी कुछ तहरीरें पानी की
*तहरीरें=लिखावट

ख़्वाबों को कतरा-कतरा हो जाना है, बह जाना है
पानी-पानी हो जाती हैं सब ताबीरें पानी कीं
*ताबीरें=व्यक्तीकरण, अर्थ लगाना

तैरना आता है लेकिन मैं डूब रहा हूँ दरिया में
पानी की ये लहरें हैं या हैं जंज़ीरें पानी की

दिल टूटा तो ख़ून बहेगा आँखों से आँसू की जगह
आँखों को ज़ख़्मी कर देती हैं शमशीरें पानी की
*शमशीर=तलवार

जाम हुए रौशन यूँ जैसे रौशन होते जाएँ चराग़
रंग-बिरंगी हमनें देखी हैं तासीरें पानी की
*तासीर=प्रभाव, छाप

धुंधला-धुंधला हो जाता है मंज़र जो भी हो गुलशन
आँखों में जब जश्न मनाती हैं तस्वीरें पानी की
*मंज़र=दृष्य

~ गोविन्द गुलशन


   Mar 25, 2015|e-kavya.blogspot.com
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मेरे उसके बीच का रिश्ता

मेरे उसके बीच का रिश्ता इक मजबूर ज़रूरत है
मैं सूखे ज़ज़्बों का ईंधन वो माचिस की तीली सी

देखूं कैसी फसल उगाता है मौसम तन्हाई का
दर्द के बीज की नस्ल है ऊँची, दिल की मिटटी गीली सी

मुझको बाँट के रख देती है धूप-छाँव के खेमों में
कुछ बेग़ैरत सी मसरूफ़ी, कुछ फुर्सत शर्मीली सी

*बेगैरत=निर्लज्ज; मसरूफ़ी=व्यस्तता

~ खुर्शीद अकबर


   Mar 24, 2015|e-kavya.blogspot.com
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रंग भरी राग भरी राग सूं भरी री



रंग भरी राग भरी राग सूं भरी री।
होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरी, री।।
उडत गुलाल लाल बादला रो रंग लाल।
पिचकाँ उडावां रंग रंग री झरी, री।।
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरा दासी गिरधर नागर, चेरी चरण धरी री।।

हे सखि मैंने अपने प्रियतम कृष्ण के साथ रंग से भरी, प्रेम के रंगों से सराबोर होली खेली। होली पर इतना गुलाल उडा कि जिसके कारण बादलों का रंग भी लाल हो गया। रंगों से भरी पिचकारियों से रंग-रंग की धारायें बह चलीं। मीरा कहती हैं कि अपने प्रिय से होली खेलने के लिये मैं ने मटकी में चोवा, चन्दन, अरगजा, केसर आदि भरकर रखे हुये हैं। मीरा कहती हैं कि मैं तो उन्हीं गिरधर नागर की दासी हूँ और उन्हीं के चरणों में मेरा सर्वस्व समर्पित है।

~ मीरा बाई


   Mar 23, 2015|e-kavya.blogspot.com
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जो नख्ल पुरसमर हैं

जो नख्ल पुरसमर हैं वो सर उठा सकते नहीं,
सरकश हैं वो दरख़्त, जिस पर समर नहीं।

*नख्ल=वृक्ष, पेड़, रेगिस्तान में हरा भरा पानी वाला इलाका; पुरसमर=फलों से लदे हुए; सरकश=सर उठाए हुए, उद्दंड; समर=फल

~‍ 'नामालूम'

   Mar 22, 2015|e-kavya.blogspot.com
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फूल-सी हो फूलवाली।



फूल-सी हो फूलवाली।
किस सुमन की सांस तुमने
आज अनजाने चुरा ली!

जब प्रभा की रेख दिनकर ने
गगन के बीच खींची।
तब तुम्हीं ने भर मधुर
मुस्कान कलियां सरस सींची,
किंतु दो दिन के सुमन से,
कौन-सी यह प्रीति पाली?
फूल-सी हो फूलवाली।

प्रिय तुम्हारे रूप में
सुख के छिपे संकेत क्यों हैं?
और चितवन में उलझते,
प्रश्न सब समवेत क्यों हैं?
मैं करूं स्वागत तुम्हारा,
भूलकर जग की प्रणाली।
फूल-सी हो फूलवाली।

तुम सजीली हो, सजाती
हो सुहासिनि, ये लताएं
क्यों न कोकिल कण्ठ
मधु ॠतु में, तुम्हारे गीत गाएं!
जब कि मैंने यह छटा,
अपने हृदय के बीच पा ली!
फूल सी हो फूलवाली।

‍ ~ रामकुमार वर्मा


  Mar 22, 2015|e-kavya.blogspot.com
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जीस्त भी इक हसीना से कम नहीं

जीस्त भी इक हसीना से कम नहीं यारों,
प्यार है उससे तो फिर नाज़ उठाते जाइए।

*जीस्त=ज़िन्दगी, जीवन

~ वज़ीर अफसर

  Mar 21, 2015|e-kavya.blogspot.com
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आईना देख अपना सा मुँह

आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था

‍~ ग़ालिब

  Mar 20, 2015|e-kavya.blogspot.com
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नसीब आजमाने के दिन आ रहे हैं


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नसीब आजमाने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं

जो दिल से कहा है, जो दिल से सुना है
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं

अभी से दिल-ओ-जाँ सर-ए-राह रख दी
कि लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं

टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं

सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं

चलो फ़ैज़ फिर से कहीं दिल लगायें
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं.

‍~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


  Mar 19, 2015|e-kavya.blogspot.com
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गिरे हैं जब भी अश्क उनकी आंखों से



गिरे हैं जब भी अश्क उनकी आंखों से कभी
बिखरे हैं अंजुम टूटे हुए आसमां से कई
और कभी जब मौज में वह आके मुस्कराए हैं
एक साथ खिल गए गुल जैसे गुलसितां में कई
*अंजुम=तारे; मौज=आनंद

उनकी अंगड़ाई जैसे हो कौस-ए-कज़ा का उभार
बात करने का सलीका जैसे निकले सुराही से शराब
गुनगुनाना उनका ऐसे जैसे दूर सहरा में कहीं
चांदनी रात में धीरे से बजाता है कोई रबाब
*कौस-ए-कज़ा=इंद्र-धनुष; सहरा=रेगिस्तान; रबाब=अफगानी वाद्य यंत्र

चमक तेरी मुहब्बत की मुझे दरकार नहीं
मेरे जज़्बात की तुम मुझको और सज़ा न दो
करना ही है तो करम इतना ही फ़रमाईए
दूर से ही देख लो मुझको और बस मुस्करा दो

मैं वीराने में, इक सज़र हूं तनहा
सूखी चन्द शाख़ों के सिवा कुछ भी नहीं
ज़माने की आंधी से जब गिर जाऊं मैं
मातम को आ जाना मट्टी के सिवा कुछ भी नहीं
*सज़र=वृक्ष

~ कृष्ण बेताब


  Mar 18, 2015|e-kavya.blogspot.com
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तूने देखा है कभी एक नज़र

तूने देखा है कभी एक नज़र शाम के बाद
कितने चुपचाप से लगते हैं शज़र शाम के बाद
तू है सूरज तुझे मालूम कहाँ रात का दुख
तू किसी रोज़ मेरे घर में उतर शाम के बाद

*शज़र=पेड

~ इजाज़ ज़ैदी

  Mar 17, 2015|e-kavya.blogspot.com
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