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Friday, January 31, 2020

बसंत

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लाल लाल टेसू फूलि रहे हैं बिलास संग,
स्याम रंग मयी मानो मसि में मिलाए हैं।
तहाँ मधु-काज आइ बैठे मधुकर पुंज,
मलय पवन उपवन - बन धाए हैं।
‘सेनापति’ माधव महीना में पलाश तरु,
देखि देखि भाव कविता के मन आये हैं।
आधे अंग सुलगि सुलगि रहे, आधे मानो
विरही धन काम क्वैला परचाये हैं।

--

धरयौ है रसाल मोर सरस सिरच रुचि,
उँचे सब कुल मिले गलत न अंत है।
सुचि है अवनि बारि भयौ लाज होम तहाँ,
भौंरे देखि होत अलि आनंद अनंत है।
नीकी अगवानी होत सुख जन वासों सब,
सजी तेल ताई चैंन मैंन भयंत है।
सेनापति धुनि द्विज साखा उच्चतर देखौ,
बनौ दुलहिन बनी दुलह बसंत है।

~ सेनापति

 Jan 31, 2020 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, January 29, 2020

फिर भी बहार आएगी

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रोज़-ओ-शब
हल्क़ा-ए-आफ़ात हैं
हर लहज़ा जवाँ
सिलसिला वक़्त की गर्दिश का यहाँ
सब हैं पाबंदी-ए-औक़ात-ए-ज़माना में मगन
जान-ओ-तन फ़हम-ओ-ख़िरद होश-ओ-गुमाँ
तुम ही तन्हा नहीं इस सैल-ए-रवाँ में मजबूर
मैं भी जीती हूँ यहाँ ख़ुद से गुरेज़ाँ हो कर

*रोज़-ओ-शब=दिन और रात; हल्क़ा-ए-आफ़ात=विषम चक्र; पाबंदी-ए-औक़ात-ए-ज़माना=समय और युग की नियमितता; फ़हम-ओ-ख़िरद=समझ और बुद्धि; सैल-ए-रवाँ=निरंतर बहाव

फिर भी इक लम्हे की फ़ुर्सत जो मयस्सर आए
दिल वहीं चुपके से धड़कन को जगा देता है
तार-रातों में बिखरती हैं रुपहली किरनें
चाँदनी पिछली मुलाक़ातों के आईने में
रोज़-ए-आइंदा से मिलती है गले

*मयस्सर=प्राप्त; रोज़-ए-आइंदा=आने वाले दिन

कहती है
अन-कही बातों की ख़ुश्बू से मोअ'त्तर रखना
अपनी आवाज़ अभी
ज़िंदगी कितनी ही बे-मेहर सहमी
फिर भी बहार आएगी
आँखों में बसाए रखना मेरे अंदाज़ अभी

*मोअत्तर=ख़ुशबू से भरा हुआ; बे-मेहर=प्रेम विहीन

~ माह तलअत ज़ाहिदी


 Jan 29, 2020 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

Sunday, January 26, 2020

छब्बीस जनवरी है

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गुलशन में रुत नई है
हर सम्त बे-ख़ुदी है
हर गुल पे ताज़गी है
मसरूर ज़िंदगी है
सरचश्मा-ए-ख़ुशी है
छब्बीस जनवरी है

*सिम्त=तरफ; मसरूर=आनंदित; सरचश्मा-ए-ख़ुशी=ख़ुशियों की बहार

हर सू ख़ुशी है छाई
सब ने मुराद पाई
फिर जनवरी ये आई
यौम-ए-सुरूर लाई
साअ'त मुराद की है
छब्बीस जनवरी है

*हर सू=चारों तरफ; यौम=दिन; सा’अत=क्षण

आँखों में रंग-ए-नौ है
बातिल से जंग-ए-नौ है
साज़ और चंग-ए-नौ है
हर दर पे संग-ए-नौ है
पुर-कैफ़ ज़िंदगी है
छब्बीस जनवरी है

*रंग-ए-नौ=नया रंग; बातिल=बुराई; पुर-कैफ़=उन्माद से भरपूर

मैं गुनगुना रहा हूँ
मस्ती में गा रहा हूँ
ख़ुशियाँ मना रहा हूँ
आलम पे छा रहा हूँ
दिल महव-ए-बे-ख़ुदी है
छब्बीस जनवरी है

*महव-ए-बे-ख़ुदी=ख़ुद को भूला हुआ

हिन्दोस्तान ख़ुश है
हर पासबान ख़ुश है
हर नौ-जवान ख़ुश है
सारा जहान ख़ुश है
एक जोश-ए-सरमदी है
छब्बीस जनवरी है

*पासबान=रक्षक; जोश-ए-सरमदी=उल्लास

~ कँवल डिबाइवी

 Jan 26, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, January 25, 2020

जो चाँद पर गया है.. आदमी

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जो चाँद पर गया है सो है वो भी आदमी
जो गप उड़ा रहा है सो है वो भी आदमी
जो हँस हँसा रहा है सो है वो भी आदमी
जो जी जला रहा है सो है वो भी आदमी
हैं आदमी के सारे ज़माने में रंग-रूप
हैं आदमी ही चाँदनी और आदमी ही धूप

है आदमी हज़ारों का और एक पाई का
आधा है अपनी माँ का तो आधा है दाई का
पेशा भी आदमी ने सँभाला गदाई का
दावा भी आदमी ने किया है ख़ुदाई का
गोरा भी आदमी है तो काला भी आदमी
बुज़दिल भी आदमी है जियाला भी आदमी

*गदाई=भीख माँगने का काम; जियाला=बहादुर

जब आदमी के दिल को चुराता है आदमी
सीने से अपने उस को लगाता है आदमी
और इस तरह से उम्र बढ़ाता है आदमी
मुश्किल से इस जहान से जाता है आदमी
जाता कहाँ है ख़ुद वो पकड़वाया जाता है
यानी फ़रिश्ता भेज के बुलवाया जाता है

डाला है आदमी ने हर इक आदमी पे जाल
'है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल'
निकला तमाम उम्र की कोशिश का ये मआल
आया था रोता पीटता जाता है ख़स्ता-हाल
इस पर ये हाल है कि अकड़ता है आदमी
ग़ैरों से और अपनों से लड़ता है आदमी

*मशहर-क़यामत; मआल=नतीज़ा

ये आदमी लड़ाई को वियतनाम में गया
वो कोरिया गया कभी आसाम में गया
वो तिल-अबीब ओ क़ाहिरा ओ शाम में गया
ये आदमी ही मुत्तहिद-अक़्वाम में गया
फिर आदमी को अम्न सिखाता है आदमी
भैंसों के आगे बीन बजाता है आदमी

*मुत्तहिद-अक़्वाम=युनाइटेड नेशन्स

इबलीस को फ़रेब सिखाता रहा है वो
और शोबदे हज़ार दिखाता रहा है वो
आलम को उँगलियों पे नचाता रहा है वो
हम को जज़ा सज़ा से डराता रहा है वो
दोज़ख़ से वाज़ कह के बचाता है आदमी
पर ख़ुद कभी कभी वहीं जाता है आदमी

*इबलीस=शैतान; शोबदे=तरक़ीबें; जज़ा=बदला; वाज़=सलाह

है आदमी जो करता है सब सीना-ज़ोरियाँ
करता है लूटने के लिए नफ़अ-ख़ोरियाँ
भरता है इस बहाने से अपनी तिजोरियां
दुश्मन को बेच खाता है गंदुम की बोरियाँ
चीज़ों की क़ीमतों को बढ़ाता है आदमी
और गाहकों को ख़ून रुलाता है आदमी

~ सय्यद मोहम्मद जाफ़री


 Jan 25, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Friday, January 24, 2020

बड़ी लम्बी कहानी है



बड़ी लम्बी कहानी है सुनोगे?

सहर की आँख खुलने भी न पाई थी
मिरे तरकश ने लाखों तीर बरसाए शुआओं के
किसी ने आफ़्ताबाना हर इक ज़र्रे को चमकाया
किसी ने माहताबी चादरें हर सम्त फैलाईं
कोई जुगनू की सूरत झिलमिलाया
इन्हीं बिखरे हुए तीरों के ज़ेर-ए-साया
मैं चलता रहा
हर मोड़ पे कोई न कोई वाक़िआ
कोई न कोई हादसा

*शुआओं=किरणों; ज़ेर-ए-साया=साये के नीचे; वाक़िआ=घटना

मेरे उजाले को लिपट कर चाट कर
दीमक-ज़दा करता रहा लेकिन
सफ़र की धुन सलामत
जुम्बिश-ए-पा आगे बढ़ती ही रही
कोह-ए-गिराँ पिसते रहे
सागर की लहरें दम-ब-ख़ुद होती रहीं
मैं बढ़ते बढ़ते सरहद-ए-इमरोज़ तक आ पहुँचा

*जुम्बिश-ए-पा=पैरों की हरकत; कोह-ए-गिराँ=बड़े पर्वत; सरहद-ए-इमरोज़=आज की हद

ये माना दूर है मंज़िल
ये माना आबला-पा हूँ
ग़ुबार-ए-गर्दिश-ए-अय्याम में लिपटा हुआ
लेकिन अभी फैला हुआ है सिलसिला मेरे उजालों का
अभी तरकश में लाखों तीर बाक़ी हैं
अभी मेरी कहानी ख़त्म को पहुँची नहीं है
ये बड़ी लम्बी कहानी है
*आबला-पा=पाँव में छाले; दिन=बहुत दिन

~ अज़ीज़ तमन्नाई


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Sunday, January 19, 2020

तुम्हारे नाम तुम्हारे निशाँ से

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तुम्हारे नाम तुम्हारे निशाँ से बे-सरोकार
तुम्हारी याद के मौसम गुज़रते जाते हैं
बस एक मन्ज़र-ए-बे-हिज्र-ओ-विसाल है जिस में
हम अपने आप ही कुछ रंग भरते जाते हैं

*जुदाई और मिलन से परे

न वो नशात-ए-तसव्वुर कि लो तुम आ ही गए
न ज़ख़्म-ए-दिल की है सोज़िश कोई जो सहनी हो
न कोई वा'दा-ओ-पैमाँ की शाम है न सहर
न शौक़ की है कोई दास्ताँ जो कहनी हो

*नशात-ए-तसव्वुर=काल्पिनकता का आनंद; सोज़िश=जलन

नहीं जो महमिल-ए-लैला-ए-आरज़ू सर-ए-राह
तो अब फ़ज़ा में फ़ज़ा के सिवा कुछ और नहीं
नहीं जो मौज-ए-सबा में कोई शमीम-ए-पयाम
तो अब सबा में सबा के सिवा कुछ और नहीं

*महमिल-ए-लैला-ए-आरज़ू=ऊँट पर बैठी हुई लैला; सर-ए-राह=रास्ते पर

उतार दे जो किनारे पे हम को कश्ती-ए-वहम
तो गिर्द-ओ-पेश को गिर्दाब ही समझते हैं
तुम्हारे रंग महकते हैं ख़्वाब में जब भी
तो ख़्वाब में भी उन्हें ख़्वाब ही समझते हैं

न कोई ज़ख़्म न मरहम कि ज़िंदगी अपनी
गुज़र रही है हर एहसास को गँवाने में
मगर ये ज़ख़्म ये मरहम भी कम नहीं शायद
कि हम हैं एक ज़मीं पर और इक ज़माने में

~ जौन एलिया


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Saturday, January 18, 2020

नारी एक कला है

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कुशल तूलिका वाले कवि की नारी एक कला है।

फूलों से भी अधिक सुकोमल
नरम अधिक नवनी से,
प्रतिपल पिछल-पिछल उठने वाली
अति इन्दु मनी से,
नवल शक्ति भरने वाली वह कभी नहीं अबला है।

तनया-प्रिया-जननि के
अवगुण्ठन में रहने वाली,
सत्यं शिवम् सुन्दरम् सी
जीवन में बहने वाली,
विरह मिलन की धूप-छाँह में पलती शकुन्तला है।

है आधार-शिला सुन्दरता की
मधु प्रकृति-परी सी,
शुभ संसृति का बीज लिये,
मनु की उस तरुण-तरी सी,
तिमिरावृत्त जीवन के श्यामल पट पर चंद्र्कला है।

करुणा की प्रतिमा वियोग की
मूर्ति-मधुर-अलबेली
निज में ही परिपूर्ण प्रेममय
जग आधार अकेली,
सारी संसृति टिकी हुई ऐसी सुन्दर अचला है।

अमृत-सिन्धु ,अमृतमयी
जग की कल्याणी वाणी।
अब भी चम-चम चमक रही हैं
तेरी चरण निशानी,
तेरे ही प्रकाश से जगमग दीप जला है।

नारी एक कला है॥

~ केदारनाथ पाण्डेय

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Friday, January 17, 2020

हम उन को छीन कर लाए हैं

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हम उन को छीन कर लाए हैं कितने दावेदारों से
शफ़क़ से चाँदनी-रातों से फूलों से सितारों से
शफ़क़= सवेरे या शाम की लालिमा

हमारे ज़ख़्म-ए-दिल दाग़-ए-जिगर कुछ मिलते-जुलते हैं
गुलों से गुल-रुख़ों से महवशों से माह-पारों से
*गुल-रुख़ों=बहुत सुंदर; महवशों=चंद्रमुखी; माह-पारों=चाँद सी सूरत

ज़माने में कभी भी क़िस्मतें बदला नहीं करतीं
उमीदों से भरोसों से दिलासों से सहारों से

सुने कोई तो अब भी रौशनी आवाज़ देती है
गुफाओं से पहाड़ों से बयाबानों से ग़ारों से
*ग़ारों=गुफ़ाओं

बराबर एक प्यासी रूह की आवाज़ आती है
कुओं से पन-घटों से नद्दियों से आबशारों से
*आबशारों=झरनों

कभी पत्थर के दिल ऐ 'कैफ़' पिघले हैं न पिघलेंगे
मुनाजातों से फ़रियादों से चीख़ों से पुकारों से
*मुनाजातों=प्रार्थना

~ कैफ़ भोपाली

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Sunday, January 12, 2020

एक रक़्क़ासा थी



एक रक़्क़ासा थी किस किस से इशारे करती
आँखें पथराई अदाओं में तवाज़ुन न रहा
डगमगाई तो सब अतराफ़ से आवाज़ आई
फ़न के इस औज पे इक तेरे सिवा कौन गया

*रक़्क़ासा=नर्तकी; तवाजुन=संतुलन; फ़न=कला; औज=ऊँचाई

फ़र्श-ए-मरमर पे गिरी गिर के उठी उठ के झुकी
ख़ुश्क होंटों पे ज़बाँ फेर के पानी माँगा
ओक उठाई तो तमाशाई सँभल कर बोले
रक़्स का ये भी इक अंदाज़ है अल्लाह अल्लाह

*ओक=अंजुरी; रक़्स=नृत्य

हाथ फैले ही रहे सिल गई होंटों से ज़बाँ
एक रक़्क़ास किसी सम्त से नागाह बढ़ा!
पर्दा सरका तो मअन फ़न के पुजारी गरजे
रक़्स क्यूँ ख़त्म हुआ? वक़्त अभी बाक़ी था

*रक़्क़ास=नर्तकी; नागाह=अचानक; मअन=बहुत तेज़ी से

~ अहमद नदीम क़ासमी


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Saturday, January 11, 2020

हँसती आँखें हँसता चेहरा



हँसती आँखें हँसता चेहरा इक मजबूर बहाना है
चाँद में सच-मुच नूर कहाँ है चाँद तो इक वीराना है

नाज़ परस्तिश बन जाएगा सब्र ज़रा ऐ शोरिश-ए-दिल
उल्फ़त की दीवाना-गरी से हुस्न अभी बेगाना है
*नाज़=गर्व(सुंदरता का); परस्तिश=पूजा’; शोरिश-ए-दिल=बेचैनी

मुझ को तन्हा छोड़ने वाले तू न कहीं तन्हा रह जाए
जिस पर तुझ को नाज़ है उतना उस का नाम ज़माना है

तुम से मुझ को शिकवा क्यूँ हो आख़िर बासी फूलों को
कौन गले का हार बनाए कौन ऐसा दीवाना है

एक नज़र में दुनिया भर से एक नज़र में कुछ भी नहीं
चाहत में अंदाज़ नज़र ही चाहत का पैमाना है

ख़ुद तुम ने आग़ाज़ किया था जिस का एक तबस्सुम से
महरूमी के आँसू बन कर ख़त्म पे वो अफ़्साना है
*महरूमी=नाउम्मीदी

यूँ है उस की बज़्म-ए-तरब में इक दिल ग़म-दीदा जैसे
चारों जानिब रंग-महल हैं बीच में इक वीराना है
*बज़्म-ए-तरब=ख़ुशी की महफ़िल; ग़म-दीदा=शोक संतप्त

‍~ 
अंदलीब शादानी

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Friday, January 10, 2020

हिंदी के चेहरे पर चाँदी की चमक है

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कहने को जनता की कितनी मुँहबोली है
सुख-दुख में शामिल है सबकी हमजोली है
कामकाज में लेकिन रत्‍ती-भर धमक है
हिंदी के चेहरे पर चाँदी की चमक है.

ऊँचे आदर्शों के सपनों में खोई है
किये रतजगे कितनी रात नहीं सोई है
आजादी की खातिर बलिदानी वीरों की
यादों में यह कितनी घुट-घुट कर रोई है.
यों तो यह भोली है, युग की रणभेरी है
लेकिन अंग्रेजी की, भृत्या है, चेरी है
हाथों में संविधान फिर भी है तुच्‍छ मान
आंखों में लेकिन पटरानी-सी ललक है
हिंदी के चेहरे पर चाँदी की चमक है.

कितने ईनाम और कितने प्रोत्‍साहन हैं
फिर भी मुखमंडल पर कोरे आश्‍वासन हैं.
जेबों में सोने के सिक्‍कों की आमद है
फाइल पर हिंदी की सिर्फ हिनहिनाहट है.
बैठक में चर्चा है दो जो भी देना है.
महामहिम के हाथो पुरस्‍कार लेना है.
कितना कुछ निष्‍प्रभ है, समारोह लकदक है
शील्‍ड लिये हाथों में क्‍या शाही लचक है!
हिंदी के चेहरे पर चांदी की चमक है.

इत्रों के फाहे हैं, टाई की चकमक है
हिंदी की देहरी पर हिंग्‍लिश की दस्‍तक है.
ऊँची दूकानों के फीके पकवान हैं
बॉस मगर हिंदी के परम ज्ञानवान हैं.
शाल औ दुशाला है पान औ मसाला है.
उबा रहे भाषण हैं यही कार्यशाला है.
हिंदी की बिंदी की होती चिंदी-चिंदी
गायब होता इसके चेहरे का नमक है.
हिंदी के चेहरे पर चॉंदी की चमक है.

हिंदी के तकनीकी शब्‍द बहुत भारी हैं
शब्‍दकोश भी जैसे बिल्‍कुल सरकारी हैं.
भाषा यह रंजन की और मनोरंजन की
इस भाषा में दिखते कितने व्‍यापारी हैं.
बेशक इस भाषा का ऑंचल मटमैला है
राष्‍ट्रप्रेम का केवल शुद्ध झाग फैला है.
दाग़ धुलें कैसे इस दाग़दार चेहरे के
नकली मुस्कानें हैं, बेमानी ठसक है.
हिंदी के चेहरे पर चांदी की चमक है.

हिंदी की सेवा है, हिंदी अधिकारी हैं
खाते सब मेवा हैं, गाते दरबारी हैं
एक दिवस हिंदी का, एक शाम हिंदी की
बाकी दिन कुर्सी पर अंग्रेजी प्‍यारी है.
कैसा यह स्‍वाभिमान अपना भारत महान !
हिंदी अपने ही घर दीन-हीन,मलिन-म्‍लान

पांवों के नीचे है इसके दलदल ज़मीन
नित प्रति बुझती जाती सत्‍ता की हनक है.
हिंदी के चेहरे पर चॉंदी की चमक है.

~ ओम निश्‍चल

 Jan 10, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, January 8, 2020

न जाने रूठ के बैठा है

न जाने रूठ के बैठा है दिल का चैन कहाँ
मिले तो उस को हमारा कोई सलाम कहे
~ कलीम आजिज़

 Jan 08, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Saturday, January 4, 2020

इस नाज़ इस अंदाज़ से तुम


इस नाज़ इस अंदाज़ से तुम हाए चलो हो
रोज़ एक ग़ज़ल हम से कहलवाए चलो हो

रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो

दीवाना-ए-गुल क़ैदी-ए-ज़ंजीर हैं और तुम
क्या ठाट से गुलशन की हवा खाए चलो हो

मय में कोई ख़ामी है न साग़र में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चलो हो

हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सब से कहलवाए चलो हो

ज़ुल्फ़ों की तो फ़ितरत ही है लेकिन मिरे प्यारे
ज़ुल्फ़ों से ज़ियादा तुम्हीं बल खाए चलो हो

वो शोख़ सितमगर तो सितम ढाए चले है
तुम हो कि 'कलीम' अपनी ग़ज़ल गाए चलो हो

~ कलीम आजिज़


 Jan 04, 2020 | e-kavya.blogspot.com
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Wednesday, January 1, 2020

नया साल

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2020 - नये साल की मुबारक बाद - नूतन वर्षाभिनंदन

दुआएँ और दुआओं से भरी
बे-अंत तहरीरें*
मुझे हर साल के इन आख़िरी
लम्हों में मिलती हैं

मेरे अहबाब* के नामों में
अक्सर दर्ज होता है
ख़ुदा महफ़ूज़* रक्खे
साल भर मुझ को बलाओं से
मुझे अब ज़हर में लिपटी हवाएँ
छू के न गुज़रें
मुझे मौजूद और आने वाले
साल के लम्हे
मुबारक दर मुबारक हों

यही तहरीर मैं अहबाब को
वापस लुटाता हूँ
यही जज़्बात मेरे दोस्तों
के नाम होते हैं
मगर फिर वक़्त के हाथों

न जाने क्या गुज़रती है
कि जो भी तीर आता है
उसी जानिब से आता है
जहाँ से इत्र में डूबा हुआ
पैग़ाम आया था
जहाँ से साल भर
महफ़ूज़ रहने का
हसीं मलफ़ूफ़
मेरे नाम आया था

*तहरीर=लिखावटें; अहबाब=मित्र-गण; महफ़ूज़=सुरक्षित; मलफ़ूफ़=लिफ़ाफ़े में बंद खत

‍~ इक़बाल नाज़िर


 Jan 01, 2020 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh