Disable Copy Text

Wednesday, June 28, 2017

कभी जब याद आ जाते



कभी जब याद आ जाते

नयन को घेर लेते घन,
स्वयं में रह न पाता मन
लहर से मूक अधरों पर
व्यथा बनती मधुर सिहरन ।

न दुःख मिलता, न सुख मिलता
न जाने प्रान क्या पाते,
कभी जब याद आ जाते।

तुम्हारा प्यार बन सावन,
बरसता याद के रसकन
कि पाकर मोतियों का धन
उमड़ पड़ते नयन निर्धन ।

विरह की घाटियों में भी
मिलन के मेघ मंडराते,
कभी जब याद आ जाते।

झुका-सा प्रान का अम्बर,
स्वयं ही सिन्धु बन-बनकर
ह्रदय की रिक्तता भरता
उठा शत कल्पना जलधर ।

ह्रदय-सर रिक्त रह जाता
नयन घट किन्तु भर आते,
कभी जब याद आ जाते ।

‍~ नामवर सिंह


  Jun 8, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, June 21, 2017

कभी मु़ड़ के फिर इसी राह पर


कभी मु़ड़ के फिर इसी राह पर न तो आए तुम न तो आए हम
कभी फ़ासलों को समेट कर न तो आए तुम न तो आए हम

जो तुम्हें है अपनी अना पसंद तो मुझे भी शर्त का पास है
ये ज़िदों के सिलसिले तोड़ कर न तो आए तुम न तो आए हम

इन्हीं चाहतों में बँधे हुए अभी तुम भी हो अभी हम भी हैं
है कशिश दिलों में बहुत मगर न तो आए तुम न तो आए हम

शब-ए-वस्ल भी शब-ए-हिज्र है शब-ए-हिज्र अब तो है मुस्तक़िल
यही सोचने में हुई सहर न तो आए तुम न तो आए हम

वो झरोके पर्दों में बंद हैं वो तमाम गलियाँ उदास हैं
कभी ख़्वाब में सर-ए-रह-गुज़र न तो आए तुम न तो आए हम

इसी शहर की इसी राह पर थे हमारे घर भी क़रीब तर
यूँही घूमते रहे उम्र भर न तो आए तुम न तो आए हम

कभी इत्तिफ़ाक़ से मिल गए किसी शहर के किसी मोड़ पर
तो ये कह उठेगी नज़र नज़र क्यूँ न आए तुम क्यूँ न आए हम

~ इन्दिरा वर्मा


  Jun 7, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh



जिन के गुनाह मेरी नज़र से निहाँ नहीं

Image may contain: 1 person

जिन के गुनाह मेरी नज़र से निहाँ नहीं 
रहते हैं मुझ से दिल में ख़फ़ा किस क़दर वो लोग 
*निहाँ=छिपे हुये

मंज़िल जिन्हें अज़ीज़ न रह-रव जिन्हें अज़ीज़ 
कहलाते हैं हमारे यहाँ राहबर वो लोग
*रह-रव=रास्ता; राहबर=रास्ता दिखाने वाले

अंजाम-ए-कारवाँ था इसी बात से अयाँ
मंज़िल थी जिन की और बने हम-सफ़र वो लोग
*अयाँ=प्रत्यक्ष

अपना समझ सकें न जिन्हें ग़ैर कह सकें
मिलते हैं हर क़दम पे सर-ए-रह-गुज़र वो लोग
*सर-ए-रह-गुज़र=राह में

तेरा कलाम सुन के जो ख़ामोश हैं 'नज़ीर'
उन का गिला न कह कि हैं अहल-ए-नज़र वो लोग
*अहल-ए-नज़र=दूर दृष्टि वाले

‍~ नज़ीर सिद्दीक़ी


  Jun 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो

Image may contain: 1 person, standing


मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो
मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे
न जाने मुझे क्यों यकीं हो चला है
मेरी याद को तुम मिटा ना सकोगे

मेरी याद होगी जिधर जाओगे तुम
कभी नग़मा बन के, कभी बन के आंसू
तड़पता मुझे हर तरफ़ पाओगे तुम
शमा जो जलायी मेरी वफ़ा ने
बुझाना भी चाहो बुझा ना सकोगे

कभी नाम बातों में आया जो मेरा
तो बेचैन हो-हो के दिल थाम लोगे
निगाहों में छायेगा ग़म का अँधेरा
किसी ने जो पूछा सबब आंसुओं का
बताना भी चाहो बता ना सकोगे

मेरे दिल की धड़कन बनी है जो शोला
सुलगते हैं अरमाँ, यूँ बन-बन के आँसू
कभी तो तुम्हें भी ये अहसास होगा
मगर हम ना होंगे, तेरी ज़िन्दगी में
बुलाना भी चाहो, बुला ना सकोगे

‍~‍ मसरूर अनवर

  Jun 5, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी

Image may contain: 1 person, motorcycle, plant and outdoor

सुनो ! सुनो !
यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी
जो मेरे गाँव को जाती थी।

नीम की निबोलियाँ उछालती,
आम के टिकोरे झोरती,
महुआ, इमली और जामुन बीनती
जो तेरी इस पक्की सड़क पर घरघराती
मोटरों और ट्रकों को अँगूठा दिखाती थी,
उलझे धूल भरे केश खोले
तेज धार सरपत की कतारों के बीच
घूमती थी, कतराती थी, खिलखिलाती थी।
टीलों पर चढ़ती थी
नदियों में उतरती थी
झाऊ की पट्टियों में खो जाती थी,
खेतों को काटती थी
पुरवे बाँटती थी
हरी–धकी अमराई में सो जाती थी।

सुनो ! सुनो !
यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी
जो मेरे गाँव को जाती थी।

गुदना गुदाए, स्वस्थ मांसल पिंडलियाँ थिरकाती
ढोल, मादल, बाँसुरी पर नाचती थी,
पलक झुका गीले केश फैलाए,
रामायण की कथा बाँचती थी,
ठाकुरद्वारे में कीर्तन करती थी,
आरती–सी दिपती थी
चंदन–सी जुड़ती थी
प्रसाद–सी मिलती थी
चरणामृत–सी व्याकुल होंठों से लगकर
रग–रग में व्याप जाती थी।

सुनो ! सुनो !
यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी
जो मेरे गाँव को जाती थी।
अब वह कहाँ गयी।

किसी ने कहा उसे पक्की सड़क में बदल दो?
उसकी छाती बेलौस कर दो
स्याह कर दो यह नैसर्गिक छटा
विदेशी तारकोल से।
किसी ने कहा कि उसके हृदय पर
चोर बाज़ार का सामान ले जाने वाले
भारी भारी ट्रक चलें,
उसके मस्तिष्क में
चमचमाती मोटरों, स्कूटरों की भाग दौड़ हो
किसने कहा
कि वह पाकेटमार–सी मिले
दुर्घटना–सी याद रहे
तीखे विष–सी
ओठों से लगते ही रग–रग में फैल जाए।

सुनो ! सुनो !
यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी
जो मेरे गाँव को जाती थी।
आह! वह कहाँ गयी।

∼ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


  Jun 4, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हम उस को भूल बैठे हैं

Image may contain: one or more people, sky, ocean, twilight, cloud, outdoor, water and nature

हम उस को भूल बैठे हैं अँधेरे हम पे तारी हैं
मगर उस के करम के सिलसिले दुनिया पे जारी हैं
*तारी=छाये हुये

करें ये सैर कारों में कि उड़ लें ये जहाज़ों में 
फ़रिश्ता मौत का कहता है ये मेरी सवारी हैं

न उन के क़ौल ही सच्चे न उन के तोल ही सच्चे
ये कैसे देश के ताजिर हैं कैसे ब्योपारी हैं
*ताज़िर=धंधे वाले

हमारी मुफ़्लिसी आवारगी पे तुम को हैरत क्यूँ
हमारे पास जो कुछ है वो सौग़ातें तुम्हारी हैं
*मुफ़्लिसी=गरीबी

नसब के ख़ून के रिश्ते हों या पीने पिलाने के
कलाई पर बंधे धागे के रिश्ते सब पे भारी हैं
*नसब=नस्ल

ये अपनी बेबसी है या कि अपनी बे-हिसी यारो
है अपना हाथ उन के सामने जो ख़ुद भिकारी हैं
*बे-हिसी=बेपरवाही

हमें भी देख ले दुनिया की रौनक़ देखने वाले
तिरी आँखों में जो आँखें हैं वो आँखें हमारी हैं

अज़ीज़-ए-ना-तवाँ के सामने कोहसार-ए-ग़म हल्का
मगर एहसान के तिनके अज़ल से उन पे भारी हैं
*ना-तवाँ=कमज़ोर; कोहसार=पर्वत; अज़ल=आदिकाल

~ अज़ीज़ अन्सारी

  Jun 3, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

माटी का पलंग मिला

No automatic alt text available.

माटी का पलंग मिला राख का बिछौना।
जिंदगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना।

एक ही दुकान में सजे हैं सब खिलौने।
खोटे–खरे, भले–बुरे, सांवरे सलोने।
कुछ दिन तक दिखे सभी सुंदर चमकीले।
उड़े रंग, तिरे अंग, हो गये घिनौने।
जैसे–जैसे बड़ा हुआ होता गया बौना।
जिंदगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना।

मौन को अधर मिले अधरों को वाणी।
प्राणों को पीर मिली पीर की कहानी।
मूठ बांध आये चले ले खुली हथेली।
पांव को डगर मिली वह भी आनी जानी।
मन को मिला है यायावर मृग–छौना।
जिंदगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना।

शोर भरी भोर मिली बावरी दुपहरी।
सांझ थी सयानी किंतु गूंगी और बहरी।
एक रात लाई बड़ी दूर का संदेशा।
फैसला सुनाके ख़त्म हो गई कचहरी।
औढ़ने को मिला वही दूधिया उढ़ौना।
जिंदगी मिली कि जैसे कांच का खिलौना।

~ आत्म प्रकाश शुक्ल


  Jun 2, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, June 20, 2017

किसने आज नदी के तट पर

किसने आज नदी के तट पर यौवन पुष्प बिखेरे हैं
सारा जंगल महक उठा है, संदल-संदल चौतरफा

बौराए मौसम के जुगनू दहक रहे हैं पलकों पर
अमराई में छनक उठी है, पायल पायल चौतरफा

नफ़रत बोने वालो सोचो, कैसी फ़सलें काटोगे
झुलस गए हैं माँ-बहनों के, आँचल आँचल चौतरफा

मनोज अबोध

  Jun 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

सोने के दिल मिट्टी के घर

Image may contain: 1 person, tree, sky, plant, outdoor and nature

सोने के दिल मिट्टी के घर पीछे छोड़ आए हैं 
वो गलियाँ वो शहर के मंज़र पीछे छोड़ आए हैं 

अपने आईनों को हम ने रोग लगा रक्खा है 
क्या क्या चेहरे हम शीशागर पीछे छोड़ आए हैं 

तुम अपने दरिया का रोना रोने आ जाते हो
हम तो अपने सात समुंदर पीछे छोड़ आए हैं

देखो हम ने अपनी जानों पर क्या ज़ुल्म किया है
फूल सा चेहरा चाँद सा पैकर पीछे छोड़ आए हैं

हम भी क्या पागल थे अपने प्यार की सारी पूँजी
उस की इक इक याद बचा कर पीछे छोड़ आए हैं

मंज़िल से अब दूर निकल आए हैं 'क़ैस' तो ख़ुश हैं
हम-साए के कुत्ते का डर पीछे छोड़ आए हैं

~ सईद क़ैस


  Jun 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तुम्हें मधुमास की सौगंध है


Image may contain: plant, flower, tree, outdoor and nature

तुम्हें मधुमास की सौगंध है,
दो दिन ठहर जाओ!

अभी ही तो लदी ही आम की डाली,
अभी ही तो बही है गंध मतवाली;
अभी ही तो उठी है तान पंचम की,
लगी अलि के अधर से फूल की प्याली;
दिये कर लाल जिसने गाल कलियों के –
तुम्हें उस हास की सौगंध है,
दो दिन ठहर जाओ!

हृदय में हो रही अनजान–सी धड़कन,
रगों में बह रही रंगीन–सी तड़पन;
न जाने किस लिये है खो गई सुधबुध,
न जाने किस नशे में झूमता है मन;
छलकती है उनींदे लोचनों से जो –
तुम्हें उस प्यार की सौगंध है,
दो दिन ठहर जाओ!

ठहर जाओ न उभरा प्यार ठुकराओ,
न मेरे प्राण का उपहार ठुकराओ!
उधर देखो लता तरु से लिपटती है,
न यह बढ़ता हुआ भुजहार ठुकराओ!
तुम्हे है आन धरती और सागर की
तुम्हें आकाश की सौगंध है,
दो दिन ठहर जाओ!

तुम्हें मधुमास की सौगंध है,
दो दिन ठहर जाओ!

∼ रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’


  May 31, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

भरे जंगल के बीचो बीच,

Image may contain: 2 people, people standing, horse and outdoor

भरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

जहां दिन भर महुआ पर झूल,
रात को चू पड़ते हैं फूल,
बांस के झुरमुट में चुपचाप,
जहां सोये नदियों के कूल।

हरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

विहंग मृग का ही जहां निवास,
जहां अपने धरती आकाश,
प्रकृति का हो हर कोई दास,
न हो पर इसका कुछ आभास।

खरे जंगल के के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

∼ पंडित नरेंद्र शर्मा


  May 29, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

एक चिरैया बोले, हौले आँगन

Image may contain: 1 person, standing, plant, tree, outdoor and nature

एक चिरैया बोले, हौले आँगन डोले,
मन ऐसा अकुलाया, रह रह ध्यान तुम्हारा आया।

चन्दन धूप लिपा दरवाज़ा, चौक पूरी अँगनाई,
बड़े सवेरे कोयल कुहुकी, गूंज उठी शहनाई,
भोर किरण क्या फूटी, मेरी निंदिया टूटी
मन ऐसा अकुलाया, रह रह ध्यान तुम्हारा आया।

झर झर पात जहर रहे मन के, एकदम सूना सूना,
कह तो देती मन ही पर, दुःख हो जाता है दूना,
एक नज़र क्या अटकी, जाने कब तक भटकी,
मन ऐसा घबराया, रह रह ध्यान तुम्हारा आया।

सांझ घिरी बदली पावस की, कुछ उजली कुछ काली,
टप टप बूँद गिरे आँचल में, रात मोतियों वाली,
कैसा घिरा अँधेरा, सब घर आँगन घेरा,
मन ऐसा भटकाया, रह रह ध्यान तुम्हारा आया।

तन सागर तट बैठा, मन का पंथी विरह गाये,
गूंजे कोई गीत की मुझको, एक लहर छु जाये,
मेरा तन मन पार्स जीवन मधुर बरसे,
मन ऐसा भर आया, रह रह ध्यान तुम्हारा आया।

यह जाड़ो की धुप हिरनिया, खेतों खेतों डोले,
यह उजलाई हंसी चाँद की, नैनो नैनों डोले,
यह संदेश हरकारा, अब तक रहा कुंवारा,
तुमको नही पठाया, रहा रह ध्यान तुम्हारा आया।

चंदा की बारात सजी है, तारों की दीवाली,
एक बहुरिया नभ से उतरी, सोने रूपए वाली,
कैसा जाड़ो फेरा, मन भी हुआ अनेरा,
पर न कहीं कुछ पाया, रह रह ध्यान तुम्हारा आया।

फूली है फुलवारी जैसे, महके केसर प्यारी,
यह बयार दक्खिन से आई, ले अँखियाँ मतवारी,
यह फूलो का डोला, उस पर यह अनबोला,
रास न मुझको आया, रह रह ध्यान तुम्हारा आया।

∼ डॉ. वीरबाला भावसार


  May 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

एक आशा जगाती रही भोर तक,

Image may contain: 1 person, outdoor

एक आशा जगाती रही भोर तक,
चाँदनी मुस्कुराती रही भोर तक।
माधुरी-सी महकती रही यामिनी,
और मन को जलाती रही भोर तक।

आगमन की प्रतीक्षा किए रात भर,
चौंकते ही रहे बात ही बात पर,
भावना की लहर ने बहाया वहीं
डूबते ही रहे घात-प्रतिघात पर,
शब्द उन्मन अधर से निकलते रहे,
वेदनायें सताती रहीं भोर तक।

प्रेम की पूर्णता के हवन के लिए,
अनकहे नेह के दो वचन के लिए,
प्राण करता रहा है जतन पे जतन,
वेग उद्वेग ही के शमन के लिए,
एक तिनके-सा मन कंपकंपाता रहा,
प्रीत उसको बहाती रही भोर तक।

धूप-सी उम्र चढ़ती उतरती रही,
ज़िंदगी में कई रंग भरती रही,
और निष्फल हुई हार कर कामना
एक अंधे डगर से गुज़रती रही
जो हृदय में सुलगती रही आँच-सी
वो तृषा ही जलाती रही भोर तक।

~ अजय पाठक


  May 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

काग़ज़ की नाव क्या हुई

Image may contain: 1 person, outdoor

काग़ज़ की नाव क्या हुई दरिया किधर गया 
बचपन को जो मिला था वो लम्हा किधर गया 

मादूम सब हुईं वो तजस्सुस की बिजलियाँ 
हैरत में डाल दे वो तमाशा किधर गया 
*मादूम=गायब; तजस्सुस=ढूंढ ढांढ

फिर यूँ हुआ कि लोग मशीनों में ढल गए
वो दोस्त लब पे ले के दिलासा किधर गया

क्या दश्त-ए-जाँ की सोख़्ता-हाली कहें इसे
चाहत में चाँद छूने का जज़्बा किधर गया
* दश्त-ए-जाँ=ज़िंदगी का रेगिस्तान; सोख़्ता-हाली=(पानी या जीवन) सोख लेने की हालत

तारीकियाँ हैं साथ मिरे और सफ़र मुदाम
कल तक था हम-क़दम जो फ़रिश्ता किधर गया
*मुदाम=लालसा, हमेशा

जो रहनुमा थे मेरे कहाँ हैं वो नक़्श-ए-पा
मंज़िल पे छोड़ता था जो रस्ता किधर गया
*नक़्श-ए-पा=पाँव के निशान

~ जावेद नदीम


  May 26, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

दूर होती जा रही है कल्पना

Image may contain: outdoor

दूर होती जा रही है कल्पना
पास आती जा रही है ज़िंदगी
चाँद तो आकाश में है तैरता
स्वप्न के मृगजाल में है घेरता
उठ रहा तूफान सागर में यहाँ
डगमगाती जा रही है ज़िंदगी

साथ में लेकर प्रलय की चाँदनी
चीखते हो तुम कला की रागिनी
दे रहा धरना यहाँ संघर्ष है
तिलमिलाती जा रही है ज़िंदगी

स्वप्न से मेरा कभी संबंध था
बात यह बीती कि जब मैं मंद था
आज तो गतिमय‚ मुझे कटुसत्य के
पास लाती जा रही है ज़िंदगी

तुम अँधेरे को उजाला मानते
होलिका को दीपमाला मानते
पर यहाँ नवयुग सवेरा हो रहा
जगमगाती जा रही है ज़िंदगी

आज आशा ही नहीं‚ विश्वास भी
आज धरती ही नहीं‚ आकाश भी
छेड़ते संगीत नव निर्माण का
गुनगुनाती जा रही है ज़िंदगी

भ्रम नहीं यह टूटती जंजीर है
और ही भूगोल की तस्वीर है
रेशमी अन्याय की अर्थी लिये
मुस्कुराती जा रही है ज़िंदगी

चक्रव्यूही पर्वतों के गाँव में
दूर काले बादलों की छाँव में
बीहड़ों में मौत को ललकारती
पथ बनाती जा रही है ज़िंदगी

दूर होती जा रही है कल्पना
पास आती जा रही है ज़िंदगी

∼ वीरेंद्र मिश्र


  May 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जिधर तुम जा रहीं थीं


जिधर तुम जा रहीं थीं
उस तरफ मुझको न जाना था
बनाया साथ पाने के लिये
झूठा बहाना था
न कुछ सोचा विचारा था
कि क्या कहना–कहाना था
मुझे तो बस अकेले
साथ में चलना–चलाना था!

रुकीं दो पल चले दोनों
सभी कुछ तो सुहाना था
मगर बतिया नहीं पाए
कि चुप्पी का ज़माना था!

बहुत धीमे कहा कुछ था
कि जब मुड़ना–मुड़ाना था
इशारा था कि मुझको
इम्तिहां में बैठ जाना था

मगर मैंने शुरू से ही
करूँगा शोध ठाना था
अभी से नौकरी मुझको
अभी पढ़ना–पढाना था!

न तुम ज्यादा सयानी थीं
न मैं ज्यादा सयाना था
डरे कमज़ोर बच्चे थे
न कुछ होना–हुवाना था!

बड़ी बेकार कोुशश थी
नया पौधा लगाना था
उगा करता रहा यह खुद
अभी यह सच अजाना था!

~ राजनारायण बिसारिया


  May 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

चिड़ियाँ रे,

Image may contain: 1 person, closeup

चिड़ियाँ रे,
चिड़ियाँ होने का अर्थ फाड़ दो
मछली रे मछली होने का अर्थ काट दो
लड़की चिंदी चिंदी कर दो - 
लड़की होने के अर्थ को

बकुल के फूल, बकुल के फूल होने के अर्थ को
अपने से थोड़ा अलग करो,
और कमल के फूल की रूप छवियों में
नाभियों अपने लिए जगह माँगो,

पृथ्वी के नीचे फैली जड़ों,
पेड़ों के बिंब में अपने प्रति होने वाले
अन्याय के खिलाफ रख दो माँग पत्र
पत्तियों! उठो और कहो
कि फूल के बनाने में तुम भी शामिल हो

सभ्यताओं के तत्वों सब मिलकर
सभ्यताओं का अर्थ ही बदल डालो,
रागों में पूरबी राग,
अपने लिए शास्त्रीय संगीत में जगह माँगो

और फूट नोटो, तुमसे मैं कहते कहते थक गया,
कि उठो और धीरे धीरे पहुँच जाओ
लेखों के बीच मे।

~ बद्री नारायण


  May 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम



उल्फ़त का जब किसी ने लिया नाम रो पड़े 
अपनी वफ़ा का सोच के अंजाम रो पड़े 

हर शाम ये सवाल मोहब्बत से क्या मिला 
हर शाम ये जवाब कि हर शाम रो पड़े 

राह-ए-वफ़ा में हम को ख़ुशी की तलाश थी
दो गाम ही चले थे कि हर गाम रो पड़े
*गाम=क़दम

रोना नसीब में है तो औरों से क्या गिला
अपने ही सर लिया कोई इल्ज़ाम रो पड़े

~ सुदर्शन फ़ाकिर


  May 21, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Tuesday, June 13, 2017

हम हैं सर-ता-बा-पा तमन्ना

Image may contain: one or more people and outdoor

हम हैं सर-ता-बा-पा तमन्ना 
कैसी उम्मीद क्या तमन्ना 
*सर-ता-बा-पा=सर से पाँव तक

हो कितनी ही ख़ुश-गवार फिर भी 
है दिल के लिए बला तमन्ना
*बला=मुसीबत

देते हो पयाम-ए-आरज़ू तुम
जब तर्क मैं कर चुका तमन्ना
*पयाम= संदेश; तर्क=त्याग

दुनिया को फ़रेब दे रही है
जल्वा है सराब का तमन्ना
*सराब=मरीचिका

अपनी मंज़िल पे हम न पहुँचे
जब तक रही रहनुमा तमन्ना
*रहनुमा=राह दिखाने वाली

उलझा रहा आरज़ू में ग़ाफ़िल
क्यूँ ख़ुद ही न बन गया तमन्ना

आवाज़ तो दो किसे पुकारूँ
तुम हो मिरे दिल में या तमन्ना

~ सीमाब अकबराबादी


  May 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

उन्मद यौवन से उभर


उन्मद यौवन से उभर
घटा सी नव असाढ़ की सुन्दर,
अति श्याम वरण,
श्लथ, मंद चरण,
इठलाती आती ग्राम युवति
वह गजगति
सर्प डगर पर!

सरकाती-पट,
खिसकाती-लट, -
शरमाती झट
वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट!
हँसती खलखल
अबला चंचल
ज्यों फूट पड़ा हो स्रोत सरल
भर फेनोज्वल दशनों से अधरों के तट!

वह मग में रुक,
मानो कुछ झुक,
आँचल सँभालती, फेर नयन मुख,
पा प्रिय पद की आहट;
आ ग्राम युवक,
प्रेमी याचक,
जब उसे ताकता है इकटक,
उल्लसित,
चकित,
वह लेती मूँद पलक पट।

पनघट पर
मोहित नारी नर!-
जब जल से भर
भारी गागर
खींचती उबहनी वह, बरबस
चोली से उभर उभर कसमस
खिंचते सँग युग रस भरे कलश;-
जल छलकाती,
रस बरसाती,
बल खाती वह घर को जाती,
सिर पर घट
उर पर धर पट!

कानों में गुड़हल
खोंस,-धवल
या कुँई, कनेर, लोध पाटल;
वह हरसिंगार से कच सँवार,
मृदु मौलसिरी के गूँथ हार,
गउओं सँग करती वन विहार,
पिक चातक के सँग दे पुकार,-
वह कुंद, काँस से,
अमलतास से,
आम्र मौर, सहजन, पलाश से,
निर्जन में सज ऋतु सिंगार।

तन पर यौवन सुषमाशाली,
मुख पर श्रमकण, रवि की लाली,
सिर पर धर स्वर्ण शस्य डाली,
वह मेड़ों पर आती जाती,
उरु मटकाती,
कटि लचकाती,
चिर वर्षातप हिम की पाली
धनि श्याम वरण,
अति क्षिप्र चरण,
अधरों से धरे पकी बाली।

रे दो दिन का
उसका यौवन!
सपना छिन का
रहता न स्मरण!
दुःखों से पिस,
दुर्दिन में घिस,
जर्जर हो जाता उसका तन!
ढह जाता असमय यौवन धन!
बह जाता तट का तिनका
जो लहरों से हँस-खेला कुछ क्षण!!

~ सुमित्रानंदन पंत

  May 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बन भोले क्यों भोले

Image may contain: one or more people

बन भोले क्यों भोले भाले कहलावें,
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।
क्या अब न हमें है आन बान से नाता,
क्या कभी नहीं है चोट कलेजा खाता।
क्या लहू आँख में उतर नहीं है आता,
क्या खून हमारा खौल नहीं है पाता।
क्यों पिटें लुटें मर मिटें ठोकरें खावें,
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।

पड़ गया हमारे लहू पर क्यों पाला,
क्यों चला रसातल गया हौसला आला।
है पड़ा हमें क्यों सूर बीर का ठाला,
क्यों गया सूरमापन का निकल दिवाला।
सोचें समझें सँभलें उमंग में आवें,
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।

छिन गये अछूतों के क्यों दिन दिन छीजें,
क्यों बेवों से बेहाथ हुए कर मीजें।
क्यों पास पास वालों का कर न पसीजें,
क्यों गाल आँसुओं से अपनों के भीजें।
उठ पड़ें अड़ें अकड़ें बच मान बचावें,
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।

क्यों तरह दिये हम जायँ बेतरह लूटे,
हीरा हो कर बन जायँ कनी क्यों फूटे।
कोई पत्थर क्यों काँच की तरह टूटे,
क्यों हम न कूट दें उसे हमें जो कूटे।
आपे में रह अपनापन को न गँवावें,
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।

सैकड़ों जातियों को हमने अपनाया,
लाखों लोगों को करके मेल मिलाया।
कितने रंगों पर अपना रंग चढ़ाया,
कितने संगों को मोम बना पिघलाया।
निज न्यारे गुण को गिनें गुनें अपनावें,
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।

सारे मत के रगड़ों झगड़ों को छोड़ें,
नाता अपना सब मतवालों से जोड़ें।
काहिली कलह कोलाहल से मुँह मोड़ें,
मिल जुल मिलाप-तरु के न्यारे फल तोड़ें।
जग जायँ सजग हो जीवन ज्योति जगावें,
सब भूलें पर अपने को भूल न जावें।

~ अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'


  May 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

Image may contain: 1 person, smiling

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं,

तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये

~ दुष्यंत कुमार


  May 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

देखना है मुझ को तो नज़दीक

Image may contain: 1 person, smiling, closeup

देखना है मुझ को तो नज़दीक आकर देखिये
प्यार भी हो जायेगा नज़रें मिलाकर देखिये।

नीड़ चिड़ियों का नहीं मधुमक्खियों का घर है ये
आप इसका एक भी तिनका हटाकर देखिये।

आपके गीतों से यह माहौल बदलेगा ज़रूर
जान अपना ख़ून शब्दों को पिलाकर देखिये।

आपको लेना है गर सावन के मौसम का मज़ा
जाइये बादल के नीचे घर बनाकर देखिये।

आपकी महफ़िल में अपना भी तो कुछ हक है ज़रुर
एक पल मेरी तरफ़ भी मुस्कुराकर देखिये।

ये अंधेरा इसलिए है ख़ुद अँधेरे में हैं आप
आप अपने दिल को इक दीपक बनाकर देखिये।

किस तरह सुर और सरगम से महक उठते हैं घर
गीत नीरज के किसी दिन गुनगुनाकर देखिये।

~ गोपालदास नीरज


  May 16, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

क्यों वह प्रिय आता पार नहीं।

Image may contain: 1 person, plant and closeup

क्यों वह प्रिय आता पार नहीं।

शशि के दर्पण देख देख,
मैंने सुलझाये तिमिर-केश,
गूँथे चुन तारक-पारिजात
अवगुण्ठन कर किरणें अशेष।

क्यों आज रिझा पाया उसको,
मेरा अभिनव श्रृंगार नहीं?

स्मित से कर फीके अधर अरुण
गति के जावक से चरण लाल,
स्वप्नों से गीली पलक आँज
सीमन्त तजा ली अश्रु-माल।

स्पन्दन मिस प्रतिपल भेज रही,
क्या युग युग से मनुहार नहीं?

मैं आज चुपा आई चातक
मैं आज सुला आई कोकिल,
कण्टकित मौलश्री हरसिंगार,
रोके हैं अपने शिथिल।

सोया समीर नीरव जग पर,
स्मृतियों का भी मृदु भार नहीं!

रूँधे हैं, सिहरा सा दिगन्त
नत पाटलदल से मृदु बादल,
उस पार रुका आलोक-यान
इस पार प्राण का कोलाहल।

बेसुध निद्रा है आज बुने-
जाते श्वासों के तार नहीं।

दिन-रात पथिक थक गए लौट
फिर गए मना निमिष हार,
पाथेय मुझे सुधि मधुर एक
है विरह पंथ सूना अपार।

फिर कौन कह रहा है सूना,
अब तक मेरा अभिसार नहीं?

~ महादेवी वर्मा


  May 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

माँ! तुम्हारे सज़ल आँचल ने

Image may contain: 2 people, indoor and closeup

माँ!
तुम्हारे सज़ल आँचल ने
धूप से हमको बचाया है।
चाँदनी का घर बनाया है।

तुम अमृत की धार प्यासों को
ज्योति-रेखा सूरदासों को
संधि को आशीष की कविता
अस्मिता, मन के समासों को

माँ!
तुम्हारे तरल दृगजल ने
तीर्थ-जल का मान पाया है
सो गए मन को जगाया है।

तुम थके मन को अथक लोरी
प्यार से मनुहार की चोरी
नित्य ढुलकाती रहीं हम पर
दूध की दो गागरें कोरी

माँ!
तुम्हारे प्रीति के पल ने
आँसुओं को भी हँसाया है
बोलना मन को सिखाया है।

~ कुँअर बेचैन


  May 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Monday, June 12, 2017

वअ'दा सच्चा है कि झूटा

Image may contain: 1 person, closeup

वअ'दा सच्चा है कि झूटा मुझे मालूम न था
कल बदल जाएगी दुनिया मुझे मालूम न था

हुस्न है मश्ग़ला-ए-ज़ुल्म को गहरा पर्दा
पस-ए-पर्दा है अंधेरा मुझे मालूम न था 
*मश्गला=मन बहलाव; पस-ए-पर्दा=परदे के पीछे

इश्क़ वो शय है कि चरके भी मज़ा देते हैं
वर्ना क़ातिल हैं हसीं क्या मुझे मालूम न था
*चरके=घाव, चीरा

दिल की ज़िद इस लिए रख ली थी कि आ जाए क़रार
कल ये कुछ और कहेगा मुझे मालूम न था

झूटी उम्मीदों ने क्या क्या न हरे बाग़ लगाए
वक़्त झोंका है हवा का मुझे मालूम न था

जितने क़िस्मत के सहारे थे वो झूटे निकले
है बंधी मुट्ठियों में क्या मुझे मालूम न था

बरसों भटका किया और फिर भी न उन तक पहुँचा
घर तो मालूम था रस्ता मुझे मालूम न था

राज़-ए-ग़म फ़ाश न हो इस लिए रोकी थी ज़बाँ
चुप भी रह कर यही होगा मुझे मालूम न था

दिल मज़े लेता है जिस ग़म के वो है काहिश-ए-जाँ
ज़हर भी होता है मीठा मुझे मालूम न था
*काहिश=व्यग्रता

इश्क़-आबाद के नाके ही से रुख़्सत हुए होश
है ये दीवानों की दुनिया मुझे मालूम न था

होगा इमरोज़ की सूरत में ज़ुहूर-ए-फ़र्दा
वअ'दा यूँ रोज़ टलेगा मुझे मालूम न था
*इमरोज़=आज; ज़ुहूर=जो दिखाइ पड़े; फ़र्दा=कल( आने वाला)

आरज़ू हाँ भी हसीनों की नहीं होती है
इन की हर बात है धोका मुझे मालूम न था

~ आरज़ू लखनवी

  May 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जान सकता हूँ अगर साहस करूं

Image may contain: 1 person, sitting

जान सकता हूँ अगर साहस करूं
श्रृंखला वह जो पवन में, वह्नि में, तूफान में है
और चल उत्ताल सागर में ।

जान सकता हूँ अगर साहस करूं
चेतना का रुप वह जिसमें
वृक्ष से झर का मही पर पत्र गिरते हैं ।

वायु में सुराख है,
सर्वत्र ही कब्रें खुली हैं
हम मनुष्यों को गरसने के लिए ।

सातवें के बाद
और पहले रंग के पहले
अंधेरा ही अंधेरा है ।

शब्द के उपरान्त केवल स्तब्धता है ।
गूँज उसकी जतुक सुनते हैं
कि सुनते मीन सागर के हदय के ।

इन्द्रियों को स्पर्श-रेखा के परे
घूमते हैं चक्र अणुओं, तारकों, परमाणुओं के,
जिन्दगी जिनसे बुनी जाती।

जिन अगम गहराइयों से भागते हैं,
छोड़ कर उनको कहीं आश्रय नहीं मिलता ।

गूँजती शंका जभी जीवन-गुफा में,
गूँज उठता है अमरता के परे का व्योम भी ।

और निद्रा में
अमित अव्यक्त भावों के
सहस्रों स्वप्न चलते हैं ।
ये सहस्रों स्वप्न जो अपने नहीं हैं ।

~ रामधारी सिंह 'दिनकर'

  May 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तुम नहीं होते अगर

Image may contain: flower, plant, outdoor and nature

तुम नहीं होते अगर जीवन विजन सा द्वीप होता।

मैं किरण भटकी हुई सी थी तिमिर में,
काँपती सी एक पत्ती ज्यों शिशिर में,
भोर का सूरज बने तुम पथ दिखाया,
ऊष्मा से भर नया जीवन सिखाया,

तुम बिना जीवन निठुर मोती रहित इक सीप होता।

चंद्रिका जैसे बनी है चंद्र रमणी,
प्रणय मदिरा पी गगन में फिरे तरुणी,
मन हुआ गर्वित मगर फिर क्यों लजाया,
हृद-सिंहासन पर मुझे तुम ने सजाया,

तुम नहीं तो यही जीवन लौ बिना इक दीप होता।

शुक्र का जैसे गगन में चाँद संबल
मील का पत्थर बढ़ाता पथिक का बल
दी दिशा चंचल नदी को कूल बन कर
तुम मिले किस प्रार्थना के फूल बन कर

जो नहीं तुम यह हृदय-प्रासाद बिना महीप होता।

‍~ मानोशी


  May 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

अरे कहीं देखा हैं तुमने

Image may contain: 1 person, closeup

अरे कहीं देखा हैं तुमने
मुझे प्यार करने वाले को?
मेरी आँखों में आकर फिर
आँसू बन ढरने वाले को ?

सूने नभ में आग जलाकर
यह सुवर्ण-सा हृदय गलाकर
जीवन सन्ध्या को नहला कर
रिक्त जलधि भरने वाले को ?

रजनी के लघु-तम कन में
जगती की ऊष्मा के वन में
उस पर पड़ते तुहिन सघन में
छिप, मुझसे डरने वाले को ?

निष्ठुर खेलों पर जो अपने
रहा देखता सुख के सपने
आज लगा है क्या वह कँपने
देख मौन मरने वाले को ?

~ जयशंकर प्रसाद


  May 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

आप जिन के क़रीब होते हैं

Image may contain: 1 person, smiling

आप जिन के क़रीब होते हैं 
वो बड़े ख़ुश-नसीब होते हैं 

जब तबीअ'त किसी पर आती है 
मौत के दिन क़रीब होते हैं 

मुझ से मिलना फिर आप का मिलना
आप किस को नसीब होते हैं

ज़ुल्म सह कर जो उफ़ नहीं करते
उन के दिल भी अजीब होते हैं

इश्क़ में और कुछ नहीं मिलता
सैकड़ों ग़म नसीब होते हैं

'नूह' की क़द्र कोई क्या जाने
कहीं ऐसे अदीब होते हैं

~ नूह नारवी


  May 9, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हर पुराना पत्र

Image may contain: flower

हर पुराना पत्र
सौ–सौ यादगारों का पिटारा खोलता है।
मीत कोई दूर का, बिछड़ा हुआ सा,
पास आता है, लिपटता, बोलता है।
कान में कुछ फुसफुसाता है,
हृदय का भेद कोई खोलता है।

हर पुरान पत्र है इतिहास
आँसू या हँसी का
चाँदनी की झिलमिलाहट
या अन्धेरे की घड़ी का
आस का, विश्वास का,
या आदमी की बेबसी का।

ये पुराने पत्र
जीवन के सफर के मील के पत्थर समझ लो
मर चुका जो भाग जीवन का
उसी के चिन्ह ये अक्षर समझ लो
आप, तुम या तू,
इन्हीं संबोधनों ने स्नेह का आँचल बुना है।
स्नेह – यह समझे नहीं तो
क्या लिखा है? क्या पढ़ा है? क्या गुना है?

ये पुराने पत्र
जैसे स्नेह के पौधे बहुत दिन से बिना सींचे पड़े हों।
काल जिनके फूल–फल सब चुन गया है,
इन अभागों को भला अब कौन सींचे!
रीत यह संसार की सदियों पुरानी,
इन पुरानी पातियों का क्या करूँ फिर?

क्या जला दूँ पातियाँ ये?
जिंदगी के गीत की सौ–सौ धुनें जिनमें छिपी हैं।
फूँक दूँ यह स्वर्ण? लेकिन सोच लूँ फिर,
भस्म इसकी और भी मँहगी पड़ेगी।
तब? जलाऊँगा नहीं मैं पातियाँ ये।
जिंदगी भर की सँजोई थातियाँ ये।
साथ ही मेरी चिता के
ये जलेंगी।

~ रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’


  May 8, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Wednesday, June 7, 2017

इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह

Image may contain: 1 person, closeup

इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह
ख़ुद बनाता है जहाँ में आदमी अपनी जगह

कह तो सकता हूँ मगर मजबूर कर सकता नहीं
इख़्तियार अपनी जगह है बेबसी अपनी जगह 
*इख़्तियार=अधिकार

कुछ न कुछ सच्चाई होती है निहाँ हर बात में
कहने वाले ठीक कहते हैं सभी अपनी जगह
*निहाँ=छुपा हुआ/हुई

सिर्फ़ उस के होंट काग़ज़ पर बना देता हूँ मैं
ख़ुद बना लेती है होंटों पर हँसी अपनी जगह

दोस्त कहता हूँ तुम्हें शाएर नहीं कहता 'शऊर'
दोस्ती अपनी जगह है शाएरी अपनी जगह

~ अनवर शऊर

  May 7, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh