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Sunday, February 26, 2017

कैसी है तुम्हारी हँसी?

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कैसी है तुम्हारी हँसी?
ऊंचाई से गिरती जलधारा सी
कल कल छल छल करती

मैं चकित सी देखती रह गई
सारी नीरवता सारा विषाद
तुम्हारी हंसी की धारा में बह गए
तुम्हारी हंसी है सावन की फुहार
भीगे मन प्राण
नीरस मरुथल से मन पर
जैसे बहार की हरियाली

तुम्हारी हंसी है मावस के बाद की
दूधिया चांदनी
या फिर सूखे में
अचानक फूट पड़ने वाला
मीठे पानी का झरना
उदास मन में जैसे
प्रेम का मीठा अहसास

भटकते मन को मिले जैसे
एक प्यारी पगडंडी
जलती दुपहरिया में
अचानक चले जैसे
ठंडी ठंडी मधुर बयार
शून्य विजन में जैसे
कूक पड़ी हो कोयल
सावन का पहला मेघखंड हो जैसे
एैसी ही तो है तुम्हारी हंसी

कैसे बचा पाए तुम?
इस निर्मम संसार में
अपनी यह हंसी?

∼ कुसुम सिन्हा


  Feb 26, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

वो काम भला क्या काम हुआ


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वो काम भला क्या काम हुआ
जिस काम का बोझा सर पे हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिस इश्क़ का चर्चा घर पे हो…

वो काम भला क्या काम हुआ
जो मटर सरीखा हल्का हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना दूर तहलका हो…

वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना जान रगड़ती हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना बात बिगड़ती हो…

वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें साला दिल रो जाए
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो आसानी से हो जाए…

वो काम भला क्या काम हुआ
जो मज़ा नहीं दे व्हिस्की का
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना मौक़ा सिसकी का…

वो काम भला क्या काम हुआ
जिसकी ना शक्ल इबादत हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसकी दरकार इजाज़त हो…

वो काम भला क्या काम हुआ
जो नहीं अकेले दम पे हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो ख़त्म एक चुम्बन पे हो

वो काम भला क्या काम हुआ
कि मज़दूरी का धोखा हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो मजबूरी का मौक़ा हो…

वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना ठसक सिकंदर की
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें ना ठरक हो अंदर की…

वो काम भला क्या काम हुआ
जो कड़वी घूंट सरीखा हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जिसमें सब कुछ ही मीठा हो…

वो काम भला क्या काम हुआ
जो लब की मुस्कां खोता हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो सबकी सुन के होता हो…

वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना ढेर पसीना हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो ना भीगा ना झीना हो…

वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमें ना लहू महकता हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ
जो इक चुम्बन में थकता हो…

वो काम भला क्या काम हुआ
जिसमे चीखों की आशा हो
वो इश्क़ भला क्या इश्क़ हुआ जो
मज़हब , रंग और भाषा हो

~ पीयूष मिश्र


  Feb 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

चन्द्रमा ललाट जा के जटा

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चन्द्रमा ललाट जा के जटा जूट सीस सोहें
भूसन भुजंग भूरि भावना हू भारी है
भस्म अंग धारी ह्वै अनंग संग जारी जिन
त्रिपुरासुर मार जो बन्यौ त्रिपुरारी है
'प्रीतम' पियारी जा की हिमगिरि कुमारी, औ
मृग चर्म धारी, बरु नंदी की सवारी है
भूत सैन्य सारी, जिन सँभारी, भंग प्यालौ पी
ऐसे बिसधारी जू कौं वन्दना हमारी है

महिमा कौं जा की वेद-वेदान्त बखान करें
ऋषि मुनि ध्यान धर तत्व कों रटत हैं
जटा गंग सीस सोहें, भाल पै त्रिपुंड मोहे
सर्पन की माल धार, कष्ट कों हरत हैं
भस्म कों रमाएँ सुभ डमरू धराय हस्त
'प्रीतम' के काम संग नंदी लै फिरत हैं
उतपति स्थिति संहार के करन हार
बाबा बिश्वनाथ जी की वन्दना करत हैं

~ यमुनाप्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'


  Feb 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

स्वर्ग से पतित सुर-सरिता को

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स्वर्ग से पतित सुर-सरिता को शीश धर
भाल पे बिठा लिया मयंक ये प्रमाण है ।

लोकहित में समस्त जगती का विष पिया
खल-बल को तृ्तीय नेत्र विद्यमान है ।

प्रेम वशीभूत भूतनाथ के भुजंग संग
नदिया तो गिरिजा गनेश के समान हैं ।

भोलानाथ महादेव औघड़ प्रसन्न हों तो
भूल जाते कौन भक्त, कौन भगवान हैं ।

~ उदयप्रताप सिंह


  Feb 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

द्वार खुला है, अंदर आओ..!

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आ गए तुम?
द्वार खुला है, अंदर आओ..!

पर तनिक ठहरो..
ड्योढी पर पड़े पायदान पर,
अपना अहं झाड़ आना..!
मधुमालती लिपटी है मुंडेर से,
अपनी नाराज़गी वहीं उड़ेल आना..!
तुलसी के क्यारे में,
मन की चटकन चढ़ा आना..!

अपनी व्यस्ततायें, बाहर खूंटी पर ही टांग आना..!
जूतों संग, हर नकारात्मकता उतार आना..!
बाहर किलोलते बच्चों से,
थोड़ी शरारत माँग लाना..!

वो गुलाब के गमले में, मुस्कान लगी है..
तोड़ कर पहन आना..!
लाओ, अपनी उलझनें मुझे थमा दो..
तुम्हारी थकान पर, मनुहारों का पंखा झुला दूँ..!

देखो, शाम बिछाई है मैंने,
सूरज क्षितिज पर बाँधा है,
लाली छिड़की है नभ पर..!

प्रेम और विश्वास की मद्धम आंच पर, चाय चढ़ाई है,
घूँट घूँट पीना..!
सुनो, इतना मुश्किल भी नहीं हैं जीना..!!

~ निधि सक्सेना


  Feb 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हर एक फूल के दामन में ख़ार कैसा है

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हर एक फूल के दामन में ख़ार कैसा है
बताए कौन कि रंग-ए-बहार कैसा है

वो सामने थे तो दिल को सुकूँ न था हासिल
चले गए हैं तो अब बे-क़रार कैसा है

यक़ीन था कि न आएगा मुझ से मिलने कोई
तो फिर ये दिल को मिरे इंतिज़ार कैसा है

अगर किसी ने तुम्हारा भी दिल नहीं तोड़ा
तो आँसुओं का रवाँ आबशार कैसा है
*आबशार=झरना

मुझे ख़बर है कि है बे-वफ़ा भी ज़ालिम भी
मगर वफ़ा का तिरी ए'तिबार कैसा है

तिरे मकान की दीवार पर जो है चस्पाँ
तलाश किस की है ये इश्तिहार कैसा है
*चस्पाँ=चिपका हुआ

ये किस के ख़ून से है दामन-ए-चमन रंगीं
ये सुर्ख़ फूल सर-ए-शाख़-दार कैसा है

अब उन की बर्क़-ए-नज़र को दिखाओ आईना
वो पूछते हैं दिल-ए-बे-क़रार कैसा है
*बर्क़-ए-नज़र=बिजली जैसी नज़र

मिरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर 'अख़्तर'
ज़माना अपने लिए होशियार कैसा है

~ साहिर होशियारपुरी


  Feb 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मन सूखे पौधे लगते हैं


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मन सूखे पौधे लगते हैं
रातों के बातूनी खंडहर दिन कितने बौने लगते हैं।

मन में उपजे मन में पनपे
मन में उम्रदराज़ हो गए
मन ही मन लड्डू से फूटे
मन ही मन नाराज़ हो गए
ढेरों-ढेरों बहुत बुरे भी कभी-कभी अच्छे लगते हैं।

बात नहीं बस ढंग कहने का
शाम नहीं चुप्पी खलती है
आग नहीं तासीर से डरना
ठंडी दिखती है जलती है
पल-पल बदल रहे हैं फिर भी हर पर इकलौते लगते हैं।

भरता जाता रिसता जाता
अजब गजब है अपना खाता
आगे दौड़े पीछे देखे
मन का भी कुछ समझ न आता
जीवन के पिछले पन्ने हम घाटे के सौदे लगते हैं।

~ देवेन्द्र आर्य


  Feb 21, 2017| e-kavya.blogspot.com
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दुख दर्द में हमेशा निकाले तुम्हारे ख़त

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दुख दर्द में हमेशा निकाले तुम्हारे ख़त
और मिल गई ख़ुशी तो उछाले तुम्हारे ख़त

सब चूड़ियाँ तुम्हारी समुंदर को सौंप दीं
और कर दिए हवा के हवाले तुम्हारे ख़त

मेरे लहू में गूँज रहा है हर एक लफ़्ज़
मैं ने रगों के दश्त में पाले तुम्हारे ख़त
*दश्त=जंगल

यूँ तो हैं बे-शुमार वफ़ा की निशानियाँ
लेकिन हर ऐक शय से निराले तुम्हारे ख़त

जैसे हो उम्र भर का असासा ग़रीब का
कुछ इस तरह से मैं ने सँभाले तुम्हारे ख़त
*असासा=धनदौलत

अहल-ए-हुनर को मुझ पे 'वसी' ए'तिराज़ है
मैं ने जो अपने शेर में ढाले तुम्हारे ख़त
*अहल-ए-हुनर=कलाकार

परवा मुझे नहीं है किसी चाँद की 'वसी'
ज़ुल्मत के दश्त में हैं उजाले तुम्हारे ख़त
*ज़ुल्मत=अंधेरापन

~ वसी शाह


  Feb 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, February 19, 2017

जिस पल तेरी याद सताए

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जिस पल तेरी याद सताए, आधी रात नींद जग जाये
ओ पाहन! इतना बतला दे उस पल किसकी बाहँ गहूँ मै

अपने अपने चाँद भुजाओं
में भर भर कर दुनिया सोये
सारी सारी रात अकेला
मैं रोऊँ या शबनम रोये
करवट में दहकें अंगारे, नभ से चंदा ताना मारे
प्यासे अरमानों को मन में दाबे कैसे मौन रहूँ मैं

गाऊँ कैसा गीत की जिससे
तेरा पत्थर मन पिघलाऊँ
जाऊँ किसके द्वार जहाँ ये
अपना दुखिया मन बहलाऊँ
गली गली डोलूँ बौराया, बैरिन हुई स्वयं की छाया
मिला नहीं कोई भी ऐसा जिससे अपनी पीर कहूं मैं

टूट गया जिससे मन दर्पण
किस रूपा की नजर लगी है
घर घर में खिल रही चाँदनी
मेरे आँगन धूप जगी है
सुधियाँ नागन सी लिपटी हैं, आँसू आँसू में सिमटी हैं
छोटे से जीवन में कितना दर्द-दाह अब और सहूँ मैं

फटा पड़ रहा है मन मेरा
पिघली आग बही काया में
अब न जिया जाता निर्मोही
गम की जलन भरी छाया में
बिजली ने ज्यों फूल छुआ है, ऐसा मेरा हृदय हुआ है
पता नहीं क्या क्या कहता हूँ, अपने बस में आज न हूँ मैं

~ भारत भूषण


  Feb 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

संयम के टूटेंगे फिर से अनुबंध

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संयम के टूटेंगे फिर से अनुबंध,
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

मधुबन की बस्ती में,
सरसिज का डेरा है।
सुमनों के अधरों तक,
भँवरों का फेरा है।
फुनगी पर गुंजित है, नेहों के छंद।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

किसलय के अंतर में,
तरुणाई सजती है।
कलियों के तनमन में,
शहनाई बजती है।
बहती, दिशाओं में जीवन की गंध।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

बौरों की मादकता,
बिखरी अमरैया में,
कुहु की लय छेड़ी,
उन्मत कोयलिया ने।
अभिसारी गीतों से, गुंजित दिगंत।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

सरसों के माथे पर,
पीली चुनरिया है।
झूमे है रह रहकर,
बाली उमरिया है।
केसरिया रंगों के, झरते मकरंद।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

बूढ़े से बरगद पर,
यौवन चढ़ आया है।
मन है बासंती पर,
जर्जर-सी काया है।
मधुरस है थोड़ा, पर तृष्णा अनंत।
महुए की डाली पर उतरा बसंत।

~ अजय पाठक
  Feb 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

पगली इन क्षीण बाहुओं में

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पगली इन क्षीण बाहुओं में
कैसे यों कस कर रख लोगी

एक, एक एक क्षण को केवल थे मिले प्रणय के चपल श्वास
भोली हो, समझ लिया तुमने सब दिन को अब गुंथ गये पाश
स्वच्छंद सदा मै मारुत-सा
वश में तुम कैसे कर लोगी

लतिकाओं के नित तोड़ पाश उठते इस उपवन के रसाल
ठुकरा चरणाश्रित लहरों को उड़ जाते मानस के मराल
फिर कहो, तुम्हारी मिलन रात
ही कैसे सब दिन की होगी

मै तो चिर-पथिक प्रवासी हू, था इतना ही निवास मेरा
रोकर मत रोको राह, विवश यह पारद-पद जीवन मेरा
राका तो एक चरण रानी
पूनों थी, मावश भी होगी

जीवन भर कभी न भूलूँगा उपहार तुम्हारे वे मधुमय
वह प्रथम मिलन का प्रिय चुम्बन यह अश्रु-हार अब विदा समय
तुम भी बोलो, क्या दूँ रानी
सुधि लोगी, या सपने लोगी

‍~ नरेन्द्र शर्मा

  Feb 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

गुजर गया एक और दिन

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गुजर गया एक और दिन,
रोज की तरह ।

चुगली औ’ कोरी तारीफ़,
बस यही किया ।
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़
कुछ नहीं किया ।
तौबा कर आज फिर हुई,
झूठ से सुलह ।

याद रहा महज नून-तेल,
और कुछ नहीं
अफसर के सामने दलेल,
नित्य क्रम यही
शब्द बचे, अर्थ खो गये,
ज्यों मिलन-विरह ।

रह गया न कोई अहसास
क्या बुरा-भला
छाँछ पर न कोई विश्वास
दूध का जला
कोल्हू की परिधि फाइलें
मेज की सतह ।

‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात,
यहाँ यह मजा ।
मुँहदेखी, यदि न करो बात
तो मिले सजा ।
सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों –
के लिए जगह ।

डरा नहीं, आये तूफान,
उमस क्या करुँ ?
बंधक हैं अहं स्वाभिमान,
घुटूँ औ’ मरूँ
चर्चाएँ नित अभाव की –
शाम औ’ सुबह।

केवल पुंसत्वहीन, क्रोध,
और बेबसी ।
अपनी सीमाओं का बोध
खोखली हँसी
झिड़क दिया बेवा माँ को
उफ, बिलावजह ।

~ उमाकांत मालवीय


  Feb 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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रंजिश ही सही दिल ही

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रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ
*पिंदार=गर्व

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ
*मरासिम=रिश्ते; रस्म-ओ-रह=तौर तरीक़े

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिर्या से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ
*लज़्ज़त-ए-गिर्या=रो लेने का सुख

अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ

~ अहमद फ़राज़


  Feb 14, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Monday, February 13, 2017

जिस तट पर प्यास बुझाने से

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जिस तट पर प्यास बुझाने से अपमान प्यार का होता हो‚
उस तट पर प्यास बुझाने से प्यासा मर जाना बेहतर है।

जब आंधी‚ नाव डुबो देने की
अपनी ज़िद पर अड़ जाए‚
हर एक लहर जब नागिन बनकर
डसने को फन फैलाए‚
ऐसे में भीख किनारों की मांगना धार से ठीक नहीं‚
पागल तूफानों को बढ़कर आवाज लगाना बेहतर है।

कांटे तो अपनी आदत के
अनुसार नुकीले होते हैं‚
कुछ फूल मगर कांटों से भी
ज्यादा जहरीले होते हैं‚
जिनको माली आंखें मीचे‚ मधु के बदले विष से सींचे‚
ऐसी डाली पर खिलने से पहले मुरझाना बेहतर है।

जो दिया उजाला दे न सके‚
तम के चरणों का दास रहे‚
अंधियारी रातों में सोये‚
दिन में सूरज के पास रहे‚
जो केवल धुंआं उगलता हो‚ सूरज पर कालिख मलता हो‚
ऐसे दीपक का जलने से पहले बुझ जाना बेहतर है।

~ बुद्धिसेन शर्मा


  Feb 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

नशीली रात आयी है।



सजीले चाँद को ले कर लजीली रात आयी है।
नशीली रात आयी है।

बरसती चाँदनी चम चम,
थिरकती रागिनी छम छम,
लहरती रूप की बिजली, रजत बरसात आई है।
नशीली रात आयी है।

जले मधु रूप की बाती
दुल्हनिया रूप मदमाती
मिलन के मधुर सपनों की सजी बारात आयी है।
नशीली रात आयी है।

सजी हैं दूधिया राहें,
जगीं उन्मादिनी चाहें,
रही जो अब तलक मन में, अधर पर बात आई है।
नशीली रात आयी है।

~ चिरंजीत


  Feb 12, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, February 11, 2017

या द्वार आकर लौट गए।



नींद बड़ी गहरी थी, झटके से टूट गई
तुमने पुकारा, या द्वार आकर लौट गए।

बार बार आई मैं, द्वार तक न पाया कुछ
बार बार सोई पर, स्वप्न भी न आया कुछ
अनसोया अनजागा, हर क्षण तुमको सौंपा
तुमने स्वीकारा, या द्वार आकर लौट गए।

चुप भी मैं रह न सकी, कुछ भी मैं कह न सकी
झील रही, जीवन की सरिता वन बह न सकी
रूठा मन राजहंस, तुम तक पहुंचा होगा
तुमने मनुहारा, या द्वार आकर लौट गए।

संझवाती बेला में, कोयल जब कूकी थी
मेरे मन में कोई, पीड़ा सी हूकी थी
अनचाही पाहुनिया, पलकों में ठहर गई
तुमने निहारा, या द्वार आकर लौट गए।

रात चली पुरवाई, ऋतु ने ली अंगड़ाई
मेरे मन पर किसने, केशर सी बिखराई
सूधि की भोली अलकें, माथे घिर आई थीं
तुमने संवारा, या द्वार आकर लौट गए।

मन के इस सागर में, सीप बंद मोती सी
मेरी अभिलाषा, सपनों में भी सोती सी
पलकों के तट आकर, बार बार डूबी भी
तुमने उबारा, या द्वार आकर लौट गए।

कितने ही दीपक मैं, आंचल की ओट किये
नदिया तक लाई थी, लहरों पर छोड़ दिए
लहरों की तरनी से, दीपों के राही को
तट पर उतारा, या द्वार आकर लौट गए।

∼ वीरबाला भावसार


  Feb 11, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, February 10, 2017

मोहब्बत का बस एक ही रास्ता



जवाहर-लाल यूनवर्सिटी (JNU) के तलबा (विद्यार्थियों) के लिए:

हमें एक दिन ख़त्म करना पड़ेगा
हमारे दिलों में जो कुछ फ़ासला है
हमें धूप में ख़ूब चलना पड़ेगा
मोहब्बत का बस एक ही रास्ता है

हम इंसान हैं और इंसाँ रहेंगे
जो हैवान हैं एक दिन तंग आ कर
चले जाएँगे अपने जंगल में वापस
जहाँ वो रहेंगे वहीं लड़ मरेंगे
जो बाक़ी बचेंगे वो शहरों में आ कर
घरों को जलाने की कोशिश करेंगे
जवानों को खाने की कोशिश करेंगे
वो कॉलेज से जाती हुई लड़कियों को
अंधेरे में लाने की कोशिश करेंगे
हम इंसान हैं और इंसाँ की इज़्ज़त
हमेशा बचाने की कोशिश करेंगे

हमें कोई अश्लोक आता नहीं है
स्वामी का त्रिशूल भाता नहीं है
हमारी कवीता, हमारी कथा है
हमारी किताबें हमारा जथा है
अगर कोई दीमक हमारा असासा
मिटाने की आशा लिए आ रही है
वो ये जान ले कि हमारे दिलों में
मोहब्बत की लौ जगमगाने लगी है

हमें अपने सीनों की सीढ़ी बना के
किसी रात अम्बर पे जाना पड़ेगा
दिए की जगह फूल रखने पड़ेंगे
परिंदों के हमराह गाना पड़ेगा

~ ज़ीशान साहिल


  Feb 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

Thursday, February 9, 2017

ख़ामोशी और फूलों को मत तोड़ो

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ख़ामोशी और फूलों को मत तोड़ो
वर्ना बहुत सी बातों से भरी हुई ये रात
ज़िंदगी से ख़ाली हो जाएगी
हमारी सुब्हें इस अँधेरे में छुपी हैं,
उन्हें मत ढूँढ़ो-
वो रात में बोलने वाले झींगुरों की तरह होती हैं
जो ख़ामोश हो जाने पर नहीं मिलते।

मैं ने अपने हीरे
ज़मीन के जिस हिस्से में छुपाए थे
वहाँ कोई बादल भी नहीं था,
और मुझे याद आता है
उन दिनों मेरी हर चीज़ बर्फ़ से बनी होती थी।

~ ज़ीशान साहिल


  Feb 9, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

जीवन कभी सूना न हो

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जीवन कभी सूना न हो
कुछ मैं कहूँ, कुछ तुम कहो।

तुमने मुझे अपना लिया
यह तो बड़ा अच्छा किया
जिस सत्य से मैं दूर था
वह पास तुमने ला दिया

अब ज़िन्द्गी की धार में
कुछ मैं बहूँ, कुछ तुम बहो।

जिसका हृदय सुन्दर नहीं
मेरे लिए पत्थर वही।
मुझको नई गति चाहिए
जैसे मिले वैसे सही।

मेरी प्रगति की साँस में
कुछ मैं रहूँ कुछ तुम रहो।

मुझको बड़ा सा काम दो
चाहे न कुछ आराम दो
लेकिन जहाँ थककर गिरूँ
मुझको वहीं तुम थाम लो।

गिरते हुए इन्सान को
कुछ मैं गहूँ कुछ तुम गहो।

संसार मेरा मीत है
सौंदर्य मेरा गीत है
मैंने अभी तक समझा नहीं
क्या हार है क्या जीत है

दुख-सुख मुझे जो भी मिले
कुछ मैं सहूं कुछ तुम सहो।

~ रमानाथ अवस्थी


  Feb 9, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

बिटिया अब ससुराल चली

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शिखर शिखारियों मे मत रोको,
उसको दौड़ लखो मत टोको,
लौटे ? यह न सधेगा रुकना
दौड़, प्रगट होना, फ़िर छुपना,

अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

तुम ऊंचे उठते हो रह रह
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतियाते यह,

भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
इसकी धारा, सब कुछ बहता,
तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह,
इसका बाद रवानी कहता,

तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

डेढ सहस मील मे इसने
प्रिय की मृदु मनुहारें सुन लीँ,
तरल तारिणी तरला ने
सागर की प्रणय पुकारें सुन लीँ,
श्रृद्धा से दो बातें करती,
साहस पे न्यौछावर होती,
धारा धन्य की ललच उठी है,
मैं पंथिनी अपने घर होती,

हरे-हरे अपने आँचल कर, पट पर वैभव डाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह खेतीहर की महारानी,
यह भक्तों की अभय देवता,
यह तो जन जीवन का पानी !
इसकी लहरों से गर्वित 'भू'
ओढे नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,

इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

शिर से पद तक ऋषि गण प्यारे,
लिए हुए छविमान हिमालय,
मन्त्र-मन्त्र गुंजित करते हो,
भारत को वरदान हिमालय,
उच्च, सुनो सागर की गुरुता,
कर दो कन्यादान हिमालय |
पाल मार्ग से सब प्रदेश, यह तो अपने बंगाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |

~ माखनलाल चतुर्वेदी


  Feb 8, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आँसुओं तुम भी पराई आँख में

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आँसुओं तुम भी पराई
आँख में रहने लगे हो
अब तुम्हें मेरे नयन
इतने बुरे लगने लगे हैं।

बेवफाई और मेरे सामने ही
यह कहाँ की दोस्ती है?
ज़िंदगी ताने सुनाती है कभी
मुझको जवानी कोसती है।

कंटको तुम भी विरोधी
पाँव में रहने लगे हो
अब तुम्हें मेरे चरण
इतने बुरे लगने लगे हैं।

साथ बचपन से रहे थे हम सदा
साथ ही दोनों पढ़े थे
घाटियों में साथ घूमे और हम
साथ पर्वत पर चढ़े थे।

दर्द तुम भी दूसरों के
काव्य में रहने लगे हो
अब तुम्हें मेरे भजन
इतने बुरे लगने लगे हैं।

~ रामावतार त्यागी


  Feb 7, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Monday, February 6, 2017

है अजीब शहर कि ज़िंदगी

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है अजीब शहर कि ज़िंदगी, न सफ़र रहा न क़याम है
कहीं कारोबार सी दोपहर, कहीं बदमिज़ाज सी शाम है
*क़याम=ठहराव

कहाँ अब दुआओं कि बरकतें, वो नसीहतें, वो हिदायतें
ये ज़रूरतों का ख़ुलूस है, या मतलबों का सलाम है
*ख़ुलूस=स्नेह

यूँ ही रोज़ मिलने कि आरज़ू बड़ी रख-रखाव कि गुफ्तगू
ये शराफ़ातें नहीं बे ग़रज़ उसे आपसे कोई काम है

वो दिलों में आग लगायेगा मैं दिलों कि आग बुझाऊंगा
उसे अपने काम से काम है मुझे अपने काम से काम है

न उदास हो न मलाल कर, किसी बात का न ख्याल कर
कई साल बाद मिले है हम, तिरे नाम आज की शाम है

कोई नग्मा धूप के गाँव सा, कोई नग़मा शाम की छाँव सा
ज़रा इन परिंदों से पूछना ये कलाम किस का कलाम है
*कलाम=बात या कविता

‍‍‍~ बशीर बद्र


  Feb 6, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, February 4, 2017

आकाश छोटा हो गया है।



भूमि के विस्तार में बेशक कमी आई नहीं है
आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है।

हो गए सम्बन्ध सीमित डाक से आए ख़तों तक
और सीमाएं सिकुड़ कर आ गईं घर की छतों तक
प्यार करने का तरीका तो वही युग–युग पुराना
आज लेकिन व्यक्ति का विश्वास छोटा हो गया है।

आदमी की शोर से आवाज़ नापी जा रही है
घंटियों से वक़्त की परवाज़ नापी जा रही है
देश के भूगोल में कोई बदल आया नहीं है
हाँ हृदय का आजकल इतिहास छोटा हो गया है।

यह मुझे समझा दिया है उस महाजन की बही ने
साल में होते नहीं हैं आजकल बारह महीने
और ऋतुओं के समय में बाल भर अंतर न आया
पर न जाने किस तरह मधुमास छोटा हो गया है।

भूमि के विस्तार में बेशक कमी आई नहीं है
आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है।

~ राम अवतार त्यागी


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Friday, February 3, 2017

हवा मैं, बसंती हवा हूँ।

 

हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।

सुनो बात मेरी -
अनोखी हवा हूँ।
बड़ी बावली हूँ,
बड़ी मस्त्मौला।
नहीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ,
मुसाफिर अजब हूँ।

न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

जहाँ से चली मैं
जहाँ को गई मैं -
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन,
हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं।
झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मै
बसंती हवा हूँ।

चढ़ी पेड़ महुआ,
थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर,
चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा,
किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं,
हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में
लहर खूब मारी।

पहर दो पहर क्या,
अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी
लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी -
हिलाया-झुलाया
गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों,
झुलाई न सरसों,
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

मुझे देखते ही
अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया,
न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा -
पथिक आ रहा था,
उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!

~ केदारनाथ अग्रवाल



  Feb 3, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Thursday, February 2, 2017

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ


 
  
 
 
 
 
 
 
 
 
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे

वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे
*ख़ार=काँटा; मानिंद=भाँति

ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे
*तज़्किरे=चर्चायें

मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे
*ज़ूद-फ़रामोश=भुलक्कड़ ; ज़ूद-रंज=शीघ्रबुरा मान जाने वाला

वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे
*नासेहो=उपदेशको

जो हम-सफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है 'फ़राज़'
अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे
*सर-ए-मंज़िल=गंतव्य के पास

~ अहमद फ़राज़


  Feb 2, 2017| e-kavya.blogspot.com
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फिर वसंत की आत्मा आई

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फिर वसंत की आत्मा आई,
मिटे प्रतीक्षा के दुर्वह क्षण,
अभिवादन करता भू का मन !

दीप्त दिशाओं के वातायन,
प्रीति सांस-सा मलय समीरण,
चंचल नील, नवल भू यौवन,
फिर वसंत की आत्मा आई,
आम्र मौर में गूंथ स्वर्ण कण,
किंशुक को कर ज्वाल वसन तन !

देख चुका मन कितने पतझर,
ग्रीष्म शरद, हिम पावस सुंदर,
ऋतुओं की ऋतु यह कुसुमाकर,
फिर वसंत की आत्मा आई,
विरह मिलन के खुले प्रीति व्रण,
स्वप्नों से शोभा प्ररोह मन !

सब युग सब ऋतु थीं आयोजन,
तुम आओगी वे थीं साधन,
तुम्हें भूल कटते ही कब क्षण?
फिर वसंत की आत्मा आई,
देव, हुआ फिर नवल युगागम,
स्वर्ग धरा का सफल समागम !

~ सुमित्रानंदन पंत


  Feb 1, 2017| e-kavya.blogspot.com
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सुख के, दुख के पथ पर जीवन


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सुख के, दुख के पथ पर जीवन,
छोड़ता हुआ पदचाप गया
तुम साथ रहीं, हँसते–हँसते,
इतना लंबा पथ नाप गया।

तुम उतरीं चुपके से मेरे
यौवन वन में बन के बहार
गुनगुना उठे भौंरे, गुंजित हो
कोयल का आलाप गया।

स्वपनिल–स्वपनिल सा लगा गगन,
रंगों में भीगी सी धरती
जब बही तुम्हारी हँसी हवा–सी,
पत्ता पत्ता काँप गया।

जाने कितने दिन हम यों ही,
बहके मौसम के साथ रहे
जाने कितने ही ख्वाब हमारी
आँखों में वह छाप गया।

धीरे–धीरे घर के कामों ने
हाथ तुम्हारे थाम लिये
मेरा भी मन अब नये समय
का नया इशारा भाँप गया।

अरतन–बरतन, चूल्हा–चक्की,
रोटी–पानी के राग उठे
झड़ गये बहकते रंग, हृदय में
भावों का भर ताप गया।

मैंने न किया, तुमने न किया,
अब प्यार भरा संवाद कभी
बोलता हुआ वह प्यार, न जाने
कब बन क्रिया–कलाप गया।

झगड़े भी हुए, अनबोले भी,
पर सदा दर्द की चादर से
चुपके से कोई एक दूसरे
का नंगापन ढाँक गया।

इस विषय सफर की आँधी में,
हम चले हाथ में हाथ दिये
चलते–चलते हम थके नहीं,
आखिर रस्ता ही हार गया।

∼ रामदरश मिश्र


  Jan 31, 2017| e-kavya.blogspot.com
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