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Wednesday, August 10, 2016

वह, अब मेरी प्रेमिका नहीं है।



वह...,
अब मेरी प्रेमिका नहीं है।

हमें जोड़ने वाला पुल
बाहरी दबावों से टूट गया।
अब हम बिना देखे
एक दूसरे के सामने से निकल जाते हैं।

बहुत बुरे दिन हैं...कि मैं जिनकी कल्पना किए था
वे दुर्घटनाएँ
घटकर सच हो रही हैं !
वे जो बचाव के बहाने थे,
तनाव का कारण बन गए हैं।
आज सबसे अधिक ख़तरा वहाँ है
जो निरापद स्थान था।

यह नहीं कि मेरे विरुद्ध हो गए हैं सब लोग !
बल्कि मेरी कलम ही
मेरे हाथ में
मेरे विरुद्ध एक शस्त्र है।
मेरा साहित्य,
एक तंग और फटे हुए कोट की तरह
अब मेरी रक्षा नहीं करता।

चारों ओर से घिरकर
मैं एक समझौते के लिए
सहमत हो गया हूँ ।

वह...,
अब मेरी कविता नहीं है।

~ दुष्यंत कुमार



Aug 10, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

हर घड़ी तेरा तसव्वुर


हर घड़ी तेरा तसव्वुर, हर नफ़स तेरा ख़याल,
इस तरह तो और भी तेरी कमी बढ़ जायेगी
*तसव्वुर=कल्पना; नफ़स=सांस

उसने सूरज के मुक़ाबिल रख दिए अपने चिराग़,
वो ये समझा इस तरह कुछ रौशनी बढ़ जायेगी

तू हमेशा मांगता रहता है क्यूँ ग़म से निजात
ग़म नहीं होंगे तो क्या तेरी ख़ुशी बढ़ जायेगी ?

क्या पता था रात भर यूँ जागना पड़ जायेगा
इक दिया बुझते ही इतनी तीरगी बढ़ जायेगी
*तीरगी=अँधेरा

~ भारत भूषण पंत


Aug 09, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

अपनी आवाज़ की लर्ज़िश पे

अपनी आवाज़ की लर्ज़िश पे तो क़ाबू पा लूँ
प्यार के बोल तो होठों से निकल जाते है
अपने तेवर तो सँभालो कोई ये न कहे
दिल बदलते हैं तो चेहरे भी बदल जाते हैं।

~ अनवर मिर्ज़ापुरी

Aug 08, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

मन !




मन !
अपनी कुहनी नहीं टिका
उन संबंधों के शूलों पर
जिनकी गलबहियों से तेरे
मानवपन का दम घुटता हो।

जो आए और छील जाए
कोमल मूरत मृदु भावों की
तेरी गठरी को दे बैठे
बस एक दिशा बिखरावों की

मन !
बाँध न अपनी हर नौका
ऐसी तरंग के कूलों पर
बस सिर्फ़ ढहाने की ख़ातिर
जिसका पग तट तक उठता हो।

जो तेरी सही नज़र पर भी
टूटा चश्मा पहना जाए
तेरे गीतों की धारा को
मरुथल का रेत बना जाए

मन !
रीझ न यों निर्गंध-बुझे
उस सन्नाटे के फूलों पर
जिनकी छुअनों से दृष्टि जले,
भावुक मीठापन लुटता हो।

~ कुँअर बेचैन


Aug 07, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

भूली बिसरी चंद उम्मीदें, चंद फ़साने

भूली बिसरी चंद उम्मीदें, चंद फ़साने याद आये
तुम याद आये और तुम्हारे साथ ज़माने याद आये

दिल का चमन शादाब था फिर भी, ख़ाक सी उड़ती रहती थी
कैसे ज़माने ग़म-ए-जानां तेरे बहाने याद आये

ठंढी सर्द हवा के झोंके आग लगा कर छोड़ गए
फूल खिले शाखों पे नए और, दर्द पुराने याद आये

हंसने वालों से डरते थे, छुप छुप कर रो लेते थे
गहरी - गहरी सोच में डूबे दो दीवाने याद आये

~
रज़ी तिर्मिज़ी


Aug 05, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

Thursday, August 4, 2016

हर दर्द झूठा लग रहा



हर दर्द झूठा लग रहा सह कर मजा आता नहीं
आँसू वही आँखें वही
कुछ है ग़लत कुछ है सही
जिसमें नया कुछ दिख सके वह एक दर्पण चाहिए

राहें पुरानी पड़ गईं आख़िर मुसाफ़िर क्या करे!
सम्भोग से संन्यास तक
आवास से आकाश तक
भटके हुए इनसान को कुछ और जीवन चाहिए!

कोई न हो जब साथ तो एकान्त को आवाज़ दें!
इस पार क्या उस पार क्या
पतवार क्या मँझधार क्या
हर प्यास को जो दे डुबा वह एक सावन चाहिए!

कैसे जिएँ कैसे मरें यह तो पुरानी बात है
जो कर सकें आओ करें
बदनामियों से क्यों डरें
जिसमें नियम-संयम न हो वह प्यार का क्षण चाहिए

कुछ कर गुज़रने के लिए मौसम नहीं मन चाहिए
जिसमें नया कुछ दिख सके वह एक दर्पण चाहिए

~ रमानाथ अवस्थी


Aug 04, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

दूती! बैठी हूँ सज कर मैं।

दूती! बैठी हूँ सज कर मैं।
ले चल शीघ्र मिलूं प्रियतम से,
धाम धार धन सब तज कर मैं।।
धन्य हुई हूँ इस धरती पर,
निज जीवनधन को भज कर मैं।
बस अब उनके अंक लगूँगी,
उनकी वीणा-सी बज कर मैं।।


~ मैथिलीशरण गुप्त


Aug 03, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

उल्फ़त की नई मंज़िल को चला




उल्फ़त की नई मंज़िल को चला, तू बाँहें डाल के बाँहों में
दिल तोड़ने वाले देख के चल, हम भी तो पड़े हैं राहों में

क्या क्या न जफ़ायेँ दिल पे सहीं, पर तुम से कोई शिकवा न किया
इस जुर्म को भी शामिल कर लो, मेरे मासूम गुनाहों में

जहाँ चाँदनी रातों में तुम ने ख़ुद हमसे किया इक़रार-ए-वफ़ा
फिर आज हैं हम क्यों बेगाने, तेरी बेरहम निगाहों में

हम भी हैं वहीं, तुम भी हो वही, ये अपनी-अपनी क़िस्मत है
तुम खेल रहे हो ख़ुशियों से, हम डूब गये हैं आहों में

~ क़तील शिफ़ाई


Aug 03, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं



खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्‍नाते हैं
चुल्‍लु में उल्‍लू हो जाते हैं

मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं
सो जाते हैं, बैठ जाते हैं, बुत्ता दे जाते हैं

झांय झांय करते है, रिरियाते हैं,
टांय टांय करते हैं, हिनहिनाते हैं
गरजते हैं, घिघियाते हैं
ठीक वक़्त पर चीं बोल जाते हैं

सभी लुजलुजे हैं, थुलथुल है, लिब लिब हैं,
पिलपिल हैं,
सबमें पोल है, सब में झोल है, सभी लुजलुजे हैं।

~ रघुवीर सहाय


 
Aug 02, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

अक्सर एक गन्ध मेरे पास से


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अक्सर एक गन्ध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीं पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है ।

अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटर का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है ।

अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

Jul 31, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

ये जो ज़िन्दगी की किताब है




ये जो ज़िन्दगी की किताब है
ये किताब भी क्या किताब है
कहीं इक हसीन सा ख़्वाब है
कहीं जान-लेवा अज़ाब है
*अज़ाब=यातना, तकलीफ़

कहीं छाँव है कहीं धूप है
कहीं और ही कोई रूप है,
कई चेहरे इस में छुपे हुए
इक अजीब सी ये नक़ाब है

कहीं खो दिया कहीं पा लिया
कहीं रो लिया कहीं गा लिया,
कहीं छीन लेती है हर ख़ुशी
कहीं मेहरबान बेहिसाब है

कहीं आँसुओं की है दास्ताँ
कहीं मुस्कुराहटों का बयाँ,
कहीं बर्क़तों की है बारिशें
कहीं तिश्नगी बेहिसाब है
*बर्क़त=आशीष; तिश्नगी=प्यास

~ राजेश रेड्डी


Jul 30, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

दिल में ऐसे उतर गया कोई



दिल में ऐसे उतर गया कोई
जैसे अपने ही घर गया कोई

एक रिमझिम में बस, घड़ी भर की
दूर तक तर-ब-तर गया कोई

आम रस्ता नहीं था मैं, फिर भी
मुझसे हो कर गुज़र गया कोई

दिन किसी तरह कट गया लेकिन
शाम आई तो मर गया कोई

इतने खाए थे रात से धोखे
चाँद निकला कि डर गया कोई

किसको जीना था छूट कर तुझसे
फ़लसफ़ा काम कर गया कोई

मूरतें कुछ निकाल ही लाया
पत्थरों तक अगर गया कोई

मैं अमावस की रात था, मुझमें
दीप ही दीप धर गया कोई

इश़्क भी क्या अजीब दरिया है
मैं जो डूबा, उभर गया कोई

~ सूर्यभानु गुप्त


Jul 28, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

निर्निमेषित नयन देखते हैं जिन्हें



निर्निमेषित नयन देखते हैं जिन्हें
रात की रागिनी वह चली आ रही
है धवल चाँदनी में नलिन-सी खिली
रूप की माधुरी है चली आ रही

मोतियों की बनी कान की वल्लरी
झिलमिलाती हुई रोम हरषा रही
नील घन सेज से वह अमर बेल-सी
है रजत धार बनकर चली आ रही

कांत रक्तिम अधर हैं छलकते लहू
स्पर्श कर श्यामली केश सहला रहे
रूप-लावण्य तन में समेटे हुए
वह यौवन की सरिता चली आ रही

श्वास के ताल पर नृत्यरत दो कमल
मेघ की दामिनी से दमकते रहे
नेत्र में लाल डोरे लिए मल्लिका
मद भरी आँख से सोम छलका रही

संकुचित हो झुकाए नयन मालिनी
धीरे-धीरे सहम कर कदम रख रही
दुग्ध सी पिंडली गात कचनार सी
लाजवंती सिमट कर बनी जा रही

अनछुए पुष्प जैसी है कमनीयता
कामिनी-यामिनी मध्य लहरा रही
छेड़कर ताल की सुमधुर रागिनी
शांत निर्झर बनी वह बही आ रही

निर्निमेषित नयन देखते हैं जिन्हें
रात की रागिनी है चली आ रही

~ राजेश कुमार दुबे


Jul 25, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

घर आवो जी सजन मिठ बोला

घर आवो जी सजन मिठ बोला।
तेरे खातर सब कुछ छोड्या, काजर, तेल तमोला॥
जो नहिं आवै रैन बिहावै, छिन माशा छिन तोला।
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, कर धर रही कपोला॥

~ मीरा बाई

Jul 21, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

हम हैं एहसास के सैलाब-ज़दा


हम हैं एहसास के सैलाब-ज़दा साहिल पर
देखिये हम को कहाँ, ले के किनारा जाये ।

~ दाराब बानो वफ़ा


Jul 21, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

कभी तूफां, कभी कश्ती, कभी मझधार



कभी तूफां, कभी कश्ती, कभी मझधार से यारी
किसी दिन लेके डूबेगी तुझे तेरी समझदारी

कभी शाखों, कभी ख़ारों, कभी गुल की तरफ़दारी
बता माली ये बीमारी है या फिर कोई लाचारी

अवामी गीत हैं मेरे, मेरी बाग़ी गुलूकारी
मुझे क्या दाद देगा वो सुने जो राग दरबारी

किसी का मोल करना और उसपे ख़ुद ही बिक जाना
कोइ कुछ भी कहे लेकिन यही फ़ितरत है बाज़ारी

खिज़ां में पेड़ से टूटे हुए पत्ते बताते हैं
बिछड़ कर अपनों से मिलती है बस दर-दर की दुतकारी

यहाँ इन्सां की आमद-वापसी होती तो है साहिब
वो मन पर भारी है या फिर चराग़ो-रात पे भारी

जो सीखा है किसी 'मासूम' को दे दो तो अच्छा है
सिरहाने कब्र के रोया करेगी वरना फ़नकारी

~ मासूम ग़ाज़ियाबादी


Jul 21, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

बूंद टपकी एक नभ से



बूंद टपकी एक नभ से
किसी ने झुक कर झरोखे से
कि जैसे हँस दिया हो
हँस रही-सी आँख ने जैसे
किसी को कस दिया हो
ठगा-सा कोई किसी की
आँख देखे रह गया हो
उस बहुत से रूप को
रोमांच रो के सह गया हो

बूंद टपकी एक नभ से
और जैसे पथिक छू
मुस्कान चौंके और घूमे
आँख उसकी जिस तरह
हँसती हुई-सी आँख चूमे
उस तरह मैंने उठाई आँख
बादल फट गया था
चंद्र पर आता हुआ-सा
अभ्र थोड़ा हट गया था

बूँद टपकी एक नभ से
ये कि जैसे आँख मिलते ही
झरोखा बंद हो ले
और नूपुर ध्वनि झमक कर
जिस तरह द्रुत छंद हो ले
उस तरह
बादल सिमट कर
और पानी के हज़ारों बूंद
तब आएँ अचानक

~ भवानीप्रसाद मिश्र


Jul 20, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

आगाह अपनी मौत से कोई




आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं
सामान सौ बरस के हैं कल की ख़बर नहीं
**बशर=इंसान

आ जाएँ रोब-ए-ग़ैर में हम वो बशर नहीं
कुछ आप की तरह हमें लोगों का डर नहीं
*रोब-ए-ग़ैर=दूसरों का डर

इक तो शब-ए-फ़िराक़ के सदमे हैं जाँ-गुदाज़
अंधेर इस पे ये है कि होती सहर नहीं
*शब-ए-फ़िराक़=जुदाई की रात; जाँ-गुदाज़=सताई हुई ज़िंदगी

क्या कहिए इस तरह के तलव्वुन-मिज़ाज को
वादे का है ये हाल इधर हाँ उधर नहीं
*तलव्वुन-मिज़ाज=(गिरगिट की तरह) रंग बदलने वाली फितरत

रखते क़दम जो वादी-ए-उल्फ़त में बे-धड़क
‘हैरत’ सिवा तुम्हारे किसी का जिगर नहीं
*वादी-ए-उल्फ़त=प्रेम की वादी या घाटी

~ हैरत इलाहाबादी


Jul 16, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

हर नजर साधु नहीं है

हर नजर साधु नहीं है, हर बशर गांधी नहीं है
वस्त्र हर रेशम नहीं है, सूत हर खादी नहीं है
नीति को लेकर कसौटी मत कसो इंसान की
आदमी है आदमी, सोना नहीं, चांदी नहीं है।

*बशर=मनुष्य, आदमी

~ गोपाल दास नीरज


Jul 15, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

लो वही हुआ जिसका था डर



लो वही हुआ जिसका था डर,
ना रही नदी, ना रही लहर।

सूरज की किरन दहाड़ गई,
गरमी हर देह उघाड़ गई,
उठ गया बवंडर, धूल हवा में -
अपना झंडा गाड़ गई,
गौरइया हाँफ रही डर कर,
ना रही नदी, ना रही लहर।

हर ओर उमस के चर्चे हैं,
बिजली पंखों के खर्चे हैं,
बूढ़े महुए के हाथों से,
उड़ रहे हवा में पर्चे हैं,
"चलना साथी लू से बच कर".
ना रही नदी, ना रही लहर।

संकल्प हिमालय सा गलता,
सारा दिन भट्ठी सा जलता,
मन भरे हुए, सब डरे हुए,
किस की हिम्मत, बाहर हिलता,
है खड़ा सूर्य सर के ऊपर,
ना रही नदी ना रही लहर।

बोझिल रातों के मध्य पहर,
छपरी से चन्द्रकिरण छनकर,
लिख रही नया नारा कोई,
इन तपी हुई दीवारों पर,
क्या बाँचूँ सब थोथे आखर,
ना रही नदी ना रही लहर।

~ दिनेश सिंह


Jul 15, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

एक नाम अधरों पर आया



एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.

बोल है कि वेद की ऋचायें
सांसों में सूरज उग आयें
आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.

गंध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में देह बोलने लगी
पूजा का एक जतन हो गया.

पानी पर खीचकर लकीरें
काट नहीं सकते जंजीरें
आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं
अग्निबिंदु और सघन हो गया.

एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.

~ कन्हैयालाल नंदन


Jul 14, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

मुकाम ऐसा इक आता है

मुकाम ऐसा इक आता है राहे -जिन्दगानी में,
जहाँ मंजिल भी राहे-कारवां मालूम होती है।

~ हबीब अहमद सिद्दकी


Jul 13, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh