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Sunday, December 31, 2017

मैं पीछे मुड़ कर देखूँगा

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मैं पीछे मुड़ कर देखूँगा
और तुम्हारे प्राण
चुक जाएँगे।
मेरा गायन (और मेरा जीवन)
इस में है कि तुम हो,
पर तुम्हारे प्राण इस में हैं
कि मैं गाता रहूँ और बढ़ता जाऊँ,
और मुड़ कर न देखूँ।
कि यह विश्वास मेरा बना रहे
कि तुम पीछे पीछे आ रही हो
कि मेरा गीत तुम्हें
मृत्यु के पाश से मुक्त करता हुआ
प्रकाश में ला रहा है।
प्रकाश!
तुम में नहीं है प्रकाश
प्रकाश! मुझ में भी नहीं है
प्रकाश गीत में है।
पर नहीं
प्रकाश गीत में भी नहीं है;
वह इस विश्वास में है
कि गीत से प्राण मिलते हैं।
कि गीत प्राण फूँकता है।
कि गीत है तो प्राणवत्ता है
और वह है जो प्राणवान है।
क्यों कि सब कुछ तो उसका है
जो प्राणवान् है
वह नहीं है तो क्या है?

गा गया वह गीत खिल गया
वसन्त नीलिम, शुभ्र, वासन्ती।
वह कौन?
पाना मुझे है!
मेरी तड़प है आग
जिसमें वह ढली!
मेरी साँस के बल
चली वह आ रही है।
नहीं, मुड़ कर नहीं देखूँगा।
क्योंकर खिले होते फूल
नीलिम, शुभ्र, वासन्ती
यदि मैं ही न गाता
और सुर की डोर से ही बँधी
पीछे वह न आती

‍~ अज्ञेय


  Dec 31, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

मैं भी अंधियारे से समझौता

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मैं भी अंधियारे से समझौता कर लेता,‎
चांदनी न यदि कर जाती मन पर हस्ताक्षर

धर विविध रूप जग में करता है अंधियारा
मैं कई बार अपनी जीती बाज़ी हारा
पर चरण रहे गतिशील ठोकरें खा कर भी
मन तम के हाथों बिका नहीं झुंझला कर भी,‎
चिंतक की लौ देती प्रति क्षण आलोक रही ‎
भटका भरमाया किंतु पा गया पंथ सही ‎
मैं भी पोखर से अपनी प्यास बुझा लेता
उल्लास न यदि अंतर में भर जाता निर्झर।

है महानगर में शोर, शोर में महानगर
बरबस हथेलियाँ बंद कर रहीं कर्ण कुहर
नागरिक नहीं रहते, रहती है भीड़ यहाँ
सारे सराय लगते हैं अपने नीड़ यहाँ
सकुची शरमार्ई यहाँ सहजता रहती है
उल्लसित कुटिलता के हाथों दुख सहती है
मैं भी कौओं के स्वर पर वाह-वाह करता
यदि सुन न लिया होता मैंने कोयल का स्वर।

कोकिला, सारिका पपीहा रहते मौन यहाँ,‎
इनके स्वर अर हर्षाने वाला कौन यहाँ,‎
चिल्लाते हैं सब यहाँ न कोई बतियाता
धीमा स्वर इस बस्ती को रास नहीं आता ‎
कृत्रिमता है यथार्थ की चूनर से सज्जित
भोला यथार्थ आवरणहीन ख़ुद में लज्जित
मैं भी चंदन के बदले शीशम घिस लेता
परिचित अगर न होती चंदन की गंध मुखर।

~ देवराज दिनेश


  Dec 30, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

तुम्हारे घर में दरवाज़ा है

तुम्हारे घर में दरवाज़ा है
लेकिन तुम्हें ख़तरे का अंदाज़ा नहीं है
हमें ख़तरे का अंदाज़ा है
लेकिन हमारे घर में दरवाज़ा नहीं है

~ 'नामालूम'


  Dec 28, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि

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मिर्ज़ा ग़ालिज़ की 220वीं जन्म-तिथि पर:

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
मक़्दूर हो तो साथ रखूँ नौहागर को मैं
*मक़्दूर=ताकत; नौहागर=शोक करने वाला

छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं
*रश्क=ईर्ष्या

जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ऐ काश जानता न तिरे रह-गुज़र को मैं

है क्या जो कस के बाँधिए मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं

लो वो भी कहते हैं कि ये बे-नंग-ओ-नाम है
ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं
*बे-नंग-ओ-नाम=बिना नाम या पहचान

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं

ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश दिया क़रार
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदाद-गर को मैं
*अहमक़=मूर्ख; परस्तिश=पूजा; बुत-ए-बेदाद-गर=निरंकुश बुत

फिर बे-ख़ुदी में भूल गया राह-ए-कू-ए-यार
जाता वगरना एक दिन अपनी ख़बर को मैं
*राह-ए-कू-ए-या=मित्र की गली

अपने पे कर रहा हूँ क़यास अहल-ए-दहर का
समझा हूँ दिल-पज़ीर मता-ए-हुनर को मैं
*यास=अंदाज़ा; दहर= दुनिया; दिल-पजीर=जो दिल को भाये; मता=सामान

'ग़ालिब' ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-नाज़
देखूँ अली बहादुर-ए-आली-गुहर को मैं
*समन्द-ए-नाज़=कुलीन अश्व

~ मिर्ज़ा ग़ालिब


  Dec 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

हटता जाता है नभ से तम

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हटता जाता है नभ से तम
संख्या तारों की होती कम
उषा झांकती उठा क्षितिज से बादल की चादर का कोना
शुरू हुआ उजियाला होना

ओस कणों से निर्मल–निर्मल
उज्ज्वल–उज्ज्वल, शीतल–शीतल
शुरू किया प्रातः समीर ने तरु–पल्लव–तृण का मुँह धोना
शुरू हुआ उजियाला होना

किसी बसे द्रुम की डाली पर
सद्यः जागृत चिड़ियों का स्वर
किसी सुखी घर से सुन पड़ता है नन्हें बच्चों का रोना
शुरू हुआ उजियाला होना

~ हरिवंश राय बच्चन

  Dec 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 24, 2017

हर एक बात पे कहते हो



हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
*अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू=बात करने का तरीका

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोख़-ए-तुंद-ख़ू क्या है
*शोख़-ए-तुंद-ख़ू=शरारत, अकड़

ये रश्क है कि वो होता है हम-सुख़न तुम से
वगर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ी-ए-अदू क्या है
*रश्क़=ईर्ष्या; हम-सुख़न=बातचीत; ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ी-ए-अदू=दुश्मन के डराने का डर

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारे जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है
*पैराहन=लिबास; हाजत-ए-रफ़ू=रफू की ज़रूरत

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है
*जुस्तुजू=तलाश, इच्छा

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू क्या है
*बहिश्त=स्वर्ग; -ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू =गुलाबी रंग की कस्तूरी जैसी महकती हुई शराब

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा ओ क़दह ओ कूज़ा ओ सुबू क्या है
*खूम=शराब के बैरल; शीशा ओ क़दह ओ कूज़ा ओ सुबू= बोतल, प्याला, सुराही

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
*ताक़त-ए-गुफ्तार=बोलने की ताक़त

हुआ है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है
*शाह=शंहशाह; मुसाहिब=दरबारी

~ मिर्ज़ा ग़ालिब


  Dec 24, 2017| e-kavya.blogspot.com
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हज़रत ए दिल आप हैं

हज़रत ए दिल आप हैं जिस ध्यान में
मर गये लाखों उसी अरमान में।

~ दाग़ देहलवी

  Dec 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 23, 2017

इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह


इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह
ख़ुद बनाता है जहाँ में आदमी अपनी जगह

कह तो सकता हूँ मगर मजबूर कर सकता नहीं
इख़्तियार अपनी जगह है बेबसी अपनी जगह
*इख़्तियार=काबू; नियंत्रण

कुछ न कुछ सच्चाई होती है निहाँ हर बात में
कहने वाले ठीक कहते हैं सभी अपनी जगह
*निहाँ=छुपा हुआ/हुई

सिर्फ़ उस के होंट काग़ज़ पर बना देता हूँ मैं
ख़ुद बना लेती है होंटों पर हँसी अपनी जगह

दोस्त कहता हूँ तुम्हें शाएर नहीं कहता 'शुऊर'
दोस्ती अपनी जगह है शाएरी अपनी जगह

~ अनवर शऊर

  Dec 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 22, 2017

मैं भी काफ़िर, तू भी क़ाफ़िर


मैं भी काफ़िर, तू भी क़ाफ़िर
फूलों की खुशबू भी काफ़िर
शब्दों का जादू भी काफ़िर
यह भी काफिर, वह भी काफिर
फ़ैज़ भी और मंटो भी काफ़िर

नूरजहां का गाना काफिर
मैकडोनैल्ड का खाना काफिर
बर्गर काफिर, कोक भी काफ़िर
हंसी गुनाह, जोक भी काफ़िर
तबला काफ़िर, ढोल भी काफ़िर
प्यार भरे दो बोल भी काफ़िर
सुर भी काफिर, ताल भी काफ़िर
भांगरा, नाच, धमाल भी काफ़िर
दादरा, ठुमरी, भैरवी काफ़िर
काफी और खयाल भी काफ़िर

वारिस शाह की हीर भी काफ़िर
चाहत की ज़ंजीर भी काफ़िर
जिंदा-मुर्दा पीर भी काफ़िर
भेंट नियाज़ की खीर भी काफ़िर
बेटे का बस्ता भी काफ़िर
बेटी की गुड़िया भी काफ़िर
हंसना-रोना कुफ़्र का सौदा
गम काफ़िर, खुशियां भी काफ़िर
जींस भी और गिटार भी काफ़िर

टखनों से नीचे बांधो तो
अपनी यह सलवार भी काफ़िर
कला और कलाकार भी काफ़िर
जो मेरी धमकी न छापे
वह सारे अखबार भी काफ़िर
यूनिवर्सिटी के अंदर काफ़िर
डार्विन भाई का बंदर काफ़िर
फ्रायड पढ़ने वाले काफ़िर
मार्क्स के सब मतवाले काफ़िर

मेले-ठेले कुफ़्र का धंधा
गाने-बाजे सारे फंदा
मंदिर में तो बुत होता है
मस्जिद का भी हाल बुरा है
कुछ मस्जिद के बाहर काफ़िर
कुछ मस्जिद में अंदर काफ़िर
मुस्लिम देश के अक्सर काफ़िर
काफ़िर काफ़िर मैं भी काफ़िर
काफ़िर काफ़िर तू भी काफ़िर

~ सलमान हैदर


  Dec 22, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आए तो यूँ कि जैसे

आए तो यूँ कि जैसे
हमेशा थे मेहरबान
भूले तो यूँ कि गोया
कभी आश्ना न थे

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

  Dec 20, 2017| e-kavya.blogspot.com
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क्या बात निराली है मुझ में

 
क्या बात निराली है मुझ में किस फ़न में आख़िर यकता हूँ
क्यूँ मेरे लिए तुम कुढ़ते हो मैं ऐसा कौन अनोखा हूँ
*यकता=अद्वितीय

वो लम्हा याद करो जब तुम इस क़ल्ब-सरा में आए थे
उस रोज़ से अपना हाल है ये कभी हँसता हूँ कभी रोता हूँ
*क़ल्ब=हृदय;सरा=सराय

कुछ भूली-बिसरी यादों का अलबेला शहर बसाया है
कोई वक़्त मिले तो आ निकलो यहीं मिलता हूँ यहीं रहता हूँ

कुछ और बढ़े इस रस्ते में अन्फ़ास-ए-रिफ़ाक़त की ख़ुश्बू
तुम साथ सही हमराह सही मैं फिर भी तन्हा तन्हा हूँ
*अन्फ़ास-ए-रिफ़ाक़त=साँसों का साथ

मैं ख़ाक-बसर मैं अर्श-नशीं मैं सब कुछ हूँ मैं कुछ भी नहीं
मैं तेरे गुमाँ से पत्थर हूँ मैं तेरे यक़ीं से हीरा हूँ
*ख़ाक-बसर =धूल मे पड़ा हुआ; अर्श-नशीं=आसमान पर बैठने वाला

~ अतहर नफ़ीस


  Dec 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ख़्वाहिश परी की है

ख़्वाहिश परी की है न तमन्ना है हूर की
आँखों के आगे बस रहे सूरत हुज़ूर की

~ हमदम अकबराबादी

  Dec 18, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 17, 2017

दर्द

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दर्द का कोई
वर्ग नहीं होता
प्रजाति नहीं होती
जाति नहीं होती
दर्द, बस दर्द होता है

एक-सा स्वाद सबको देता है
सब पर एक-सा असर करता है
चाहे नज़ाकत से करे
या पूरी शिद्दत से
कोई फर्क नहीं करता
हाथ या गहरे कहीं पीठ में
कसमसाते दांत मरोड़ खाते पेट या धकधकाते दिल में
आंख ही रोती है हर दर्द के लिए
सीना ही हिलकता है हर दर्द के लिए

दर्द उठता हो कहीं भी
साझा होता है पूरे आकार में
चाहना एक ही जगाता है सब में
कि बस ढीले हो जाएं बेतरह खिंचे तंतु
बंधनहीन हों मज्जा के गुच्छे
ढूंढता है शरीर
आराम की कोई मुद्रा
इत्मीनान की एक मुद्रा

जीवन दर्द की एक यात्रा है
सैकड़ों दर्द के पड़ावों से गुजरते हैं हम
जैसे पहाड़ों पर मील के पत्थर गिनते
पार करते ऊपर उठते हैं हम
दर्द की यह यात्रा
हर एक की अपनी है
अकेली है
कुव्वत है, काबिलियत है, चाहत है

कहते हैं, दर्द को दर्द से ही राहत है
याद आता है तो रहता है
भटका दो उसे, भुला दो उसे
उलझा दो उसे दुनिया के किसी शगल में
वह भोला रम जाता है उसी में
भुला देता है वह मुझे, मैं उसे
मगर फिर शाम होते-होते जहाज का पंछी
लौट आता है अपने ठौर
ज्यादा अधिकार के साथ
गहराता है, अंधेरे के साथ अथाह सागर सा
तभी कौंधता है एक मोती गुम होने से ठीक पहले
दर्द-रहित मिलती है एक झपकी
सबसे असावधान मुद्रा में
असतर्क, समर्पण की स्थिति में
वह छोटी झपकी
आंखें खुलती हैं और
दर्द से फिर एकाकार
सतर्कता की एक और मुद्रा
राहत पाने की एक और कोशिश
दर्द की एक और मुद्रा

‍ ~ आर. अनुराधा

  Dec 17, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ग़ुनूदगी सी रही तारी

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ग़ुनूदगी सी रही तारी उम्र भर हम पर
ये आरज़ू ही रही थोड़ी देर सो लेते
ख़लिश मिली है मुझे और कुछ नहीं अब तक
तिरे ख़याल से ऐ काश दर्द धो लेते
*ग़ुनूदगी=सुस्ती, नींद; तारी=छायी; ख़लिश=दर्द

मिरे अज़ीज़ो मिरे दोस्तो गवाह रहो
बिरह की रात कटी आमद-ए-सहर न हुई
शिकस्ता-पा ही सही हम-सफ़र रहा फिर भी
उम्मीद टूटी कई बार मुंतशिर न हुई
*आमद-ए-सहर=सुबह का आगमन; शिकस्ता=टूटा हुआ; मुंतशिर=बिखरी

हयूला कैसे बदलता है वक़्त हैराँ हूँ
फ़रेब और न खाए निगाह डरता हूँ
ये ज़िंदगी भी कोई ज़िंदगी है पल पल में
हज़ार बार सँभलता हूँ और मरता हूँ
*हयूला=धातु, तत्व

वो लोग जिन को मुसाफ़िर-नवाज़ कहते थे
कहाँ गए कि यहाँ अजनबी हैं साथी भी
वो साया-दार शजर जो सुना था राह में हैं
सब आँधियों ने गिरा डाले अब कहाँ जाएँ
ये बोझ और नहीं उठता कुछ सबील करो
चलो हँसेंगे कहीं बैठ कर ज़माने पर
*सबील= उपाय; युक्ति

~ अख़्तर-उल-ईमान

  Dec 16, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 15, 2017

माई री! मैं कासे कहूँ

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"माई री! मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की, माई री"
जब भी सुनती हूँ मैं गीत, आपका मीरा बाई,
सोच में पड़ जाती हूँ, वो क्या था
जो माँ से भी आपको कहते नहीं बनता था,

हालांकि संबोधन गीतों का
अकसर वह होती थीं!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल में पिछवाड़े का ढाबा!
दस बरस का छोटू प्यालियाँ धोता-चमकाता
क्या सोचकर अपने उस खटारा टेप पर
बार-बार ये ही वाला गीत आपका बजाता है!

लक्षण तो हैं उसमें
क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा,
किसी नन्ही-सी मीरा का मनचीता.
अड़ियल नहीं, ज़रा मीठा!

वर्किंग विमेन्स हॉस्टल की हम सब औरतें
ढूँढती ही रह गईं कोई ऐसा
जिन्हें देख मन में जगे प्रेम का हौसला!

लोग मिले - पर कैसे-कैसे -
ज्ञानी नहीं, पंडिताऊ,
वफ़ादार नहीं, दुमहिलाऊ,
साहसी नहीं, केवल झगड़ालू,
दृढ़ प्रतिज्ञ कहाँ, सिर्फ जिद्दी,
प्रभावी नहीं, सिर्फ हावी,
दोस्त नहीं, मालिक,
सामजिक नहीं, सिर्फ एकांत भीरु
धार्मिक नहीं, केवल कट्टर

कटकटाकर हरदम पड़ते रहे वे
अपने प्रतिपक्षियों पर -
प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे,
उनसे ही थे.
उनके नुचे हुए पंख
और चोंच घायल!

ऐसों से क्या खाकर हम करते हैं प्यार!
सो अपनी वरमाला
अपनी ही चोटी में गूंथी
और कहा खुद से -
"एकोहऽम बहुस्याम"

वो देखो वो -
प्याले धोता नन्हा घनश्याम!
आत्मा की कोख भी एक होती है, है न!
तो धारण करते हैं
इस नयी सृष्टि की हम कल्पना

जहाँ ज्ञान संज्ञान भी हुआ करे,
साहस सद्भावना!

~ अनामिका


  Dec 15, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मिलाते हो उसी को ख़ाक में

मिलाते हो उसी को ख़ाक में
जो दिल से मिलता है,
मिरी जाँ चाहने वाला
बड़ी मुश्किल से मिलता है

~ दाग़ देहलवी



  Dec 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 10, 2017

तुम भी रहने लगे ख़फ़ा

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तुम भी रहने लगे ख़फ़ा साहब
कहीं साया मिरा पड़ा साहब

है ये बंदा ही बेवफ़ा साहब
ग़ैर और तुम भले भला साहब

क्यूँ उलझते हो जुम्बिश-ए-लब से
ख़ैर है मैं ने क्या किया साहब
*जुम्बिश-ए-लब=होठों की कम्पन

क्यूँ लगे देने ख़त्त-ए-आज़ादी
कुछ गुनह भी ग़ुलाम का साहब
*ख़त्त-ए-आज़ादी=आज़ादी नामा

हाए री छेड़ रात सुन सुन के
हाल मेरा कहा कि क्या साहब

दम-ए-आख़िर भी तुम नहीं आते
बंदगी अब कि मैं चला साहब

सितम आज़ार ज़ुल्म ओ जौर ओ जफ़ा
जो किया सो भला किया साहब
*आज़ार=बीमारी

किस से बिगड़े थे किस पे ग़ुस्सा था
रात तुम किस पे थे ख़फ़ा साहब

किस को देते थे गालियाँ लाखों
किस का शब ज़िक्र-ए-ख़ैर था साहब

नाम-ए-इश्क़-ए-बुताँ न लो 'मोमिन'
कीजिए बस ख़ुदा ख़ुदा साहब

~ मोमिन

  Dec 10, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आती बहुत क़रीब से

आती बहुत क़रीब से ख़ुश्बू है यार की
जारी इधर उधर ही कहीं दौर-ए-जाम है

~ अब्दुल हमीद अदम

  Dec 09, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 9, 2017

सूरज डूब चुका है

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सूरज डूब चुका है,
मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है ।

सुबह उषा-किरनों ने मुझको यों दुलराया,
जैसे मेरा तन उनके मन को हो भाया,
शाम हुई तो फेरी सब ने अपनी बाँहें,
खत्म हुईं दिन-भर की मेरी सारी चाहें
धरती पर फैला अँधियाला,
रंग-बिरंगी आभा वाला,
सूरज डूब चुका है।

फूलों ने अपनी मुस्कान बिखेरी भू पर
दिया मुझे खुश रहने का सन्देश निरन्तर,
ज़िन्दा रहने की साधें मुझ तक भी आयीं,
शाम हुई, सरसिज की पाँखें क्या मुरझायीं-
मन का सारा मिटा उजाला,
धरती का श्रृंगार निराला,
सूरज डूब चुका है।

सुरभि,फूल,बादल,विहगों के गीत सजीले,
बीते दिन में देखे कितने स्वप्न सजीले,
दिन भर की खुशियों के साथी चले गये यों,
बने और बिगड़े आँखों में ताश-महल ज्यों,
घिरा रात का जादू काला,
राख बनी किरनों की ज्वाला,
सूरज डूब चुका है।

~ अजित कुमार


  Dec 09, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 8, 2017

किसे जाना कहाँ है...

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किसे जाना कहाँ है मुनहसिर होता है इस पर भी
भटकता है कोई बाहर तो कोई घर के भीतर भी
*मुनहसिर=निर्भर

किसी को आस बादल से कोई दरियाओं का तालिब
अगर है तिश्ना-लब सहरा तो प्यासा है समुंदर भी

शिकस्ता ख़्वाब की किर्चें पड़ी हैं आँख में शायद
नज़र में चुभता है जब तब अधूरा सा वो मंज़र भी
*शिकस्ता=टूटी हुई;किर्चें=छोटे छोटे टुकड़े

सुराग़ इस से ही लग जाए मिरे होने न होने का
गुज़र कर देख ही लेता हूँ अपने में से हो कर भी

जिसे परछाईं समझे थे हक़ीक़त में न पैकर हो
परखना चाहिए था आप को उस शय को छू कर भी
* पैकर=आकार

पलट कर मुद्दतों बअ'द अपनी तहरीरों से गुज़रूँ तो
लगे अक्सर कि हो सकता था इस से और बेहतर भी
*तहरीर=लिखावट

~ अखिलेश तिवारी


  Dec 08, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Sunday, December 3, 2017

पहले- पहले प्यार में

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आँखों में फागुन की मस्ती
होठों पर वासंती हलचल
मतवाला मन भीग रहा है
बूंदों के त्यौहार में,
शायद ऐसा ही होता है
पहले- पहले प्यार में।

पैरों की पायल छनकी, कंगन खनका
हर आहट पर चौंक-चौंक जाना मन का
साँसों का देहरी छू - छूकर आ जाना
दर्पण का खुद दर्पण से ही शरमाना
और धड़कना हर धड़कन का
सपनों के संसार में।

भंग चढ़ाकर बौराया बादल डोले
नदिया में दो पाँव हिले हौले-हौले
पहली-पहली बार कोई नन्ही चिड़िया
अम्बर में उड़ने को अपने पर खोले
हिचकोले खाती है नैया
मस्ती से मझधार में।

जिन पैरों में उछला करता था बचपन
कैसी बात हुई कि बदल गया दरपन
होता है उन्मुक्त अनोखा ये बन्धन
रोम रोम पूजा साँसे चन्दन-चन्दन
बिन माँगे सब कुछ मिल जाता
आँखों के व्यापार में।

~ कीर्ति काले

  Dec 03, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Saturday, December 2, 2017

तमन्नाओं को ज़िंदा

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तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ूओं को जवाँ कर लूँ
ये शर्मीली नज़र कह दे तो कुछ गुस्ताख़ियाँ कर लूँ

बहार आई है बुलबुल दर्द-ए-दिल कहती है फूलों से
कहो तो मैं भी अपना दर्द-ए-दिल तुम से बयाँ कर लूँ

हज़ारों शोख़ अरमाँ ले रहे हैं चुटकियाँ दिल में
हया उन की इजाज़त दे तो कुछ बेबाकियाँ कर लूँ

कोई सूरत तो हो दुनिया-ए-फ़ानी में बहलने की
ठहर जा ऐ जवानी मातम-ए-उम्र-ए-रवाँ कर लूँ
*दुनिया-ए-फ़ानी=न:श्वर दुनिया; मातम-ए-उम्र-ए-रवाँ=गुज़रती जा रही उम्र का अफ़सोस

चमन में हैं बहम परवाना ओ शम्अ ओ गुल ओ बुलबुल
इजाज़त हो तो मैं भी हाल-ए-दिल अपना बयाँ कर लूँ
*बहम=मिले हुये

किसे मालूम कब किस वक़्त किस पर गिर पड़े बिजली
अभी से मैं चमन में चल कर आबाद आशियाँ कर लूँ

बर आएँ हसरतें क्या क्या अगर मौत इतनी फ़ुर्सत दे
कि इक बार और ज़िंदा शेवा-ए-इश्क़-ए-जवाँ कर लूँ
*शेवा=आदत

मुझे दोनों जहाँ में एक वो मिल जाएँ गर 'अख़्तर'
तो अपनी हसरतों को बे-नियाज़-ए-दो-जहाँ कर लूँ
*बे-नियाज़-ए-दो-जहाँ =दोनो लोकों की इच्छाओं से मुक्त

‍~ अख़्तर शीरानी


  Dec 02, 2017| e-kavya.blogspot.com
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इधर फ़लक को है ज़िद


इधर फ़लक को है ज़िद बिजलियाँ गिराने की
उधर हमें भी है धुन आशियाँ बनाने की

~ नामालूम

  Dec 01, 2017| e-kavya.blogspot.com
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Friday, December 1, 2017

तारों से सोना बरसा था

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तारों से सोना बरसा था, चश्मों से चांदी बहती थी
फूलों पर मोती बिखरे थे, जर्रों की किस्मत चमकी थी
कलियों के लब पर नग्मे थे, शाखों पै वज्द सा तारी था
खुशबू के खजाने लुटते थे, और दुनिया बहकी बहकी थी
ऐ दोस्त तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं

सूरज की नरम सुआओं से कलियों के रूप निखरते हों
सरसों की नाजुक शाखों पर सोने के फूल लचकते हों
जब ऊदे-ऊदे बादल से अमृत की धारें बहती थीं
और हल्की-हल्की खुनकी में दिल धीरे-धीरे तपते थे
ऐ दोस्त तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं

फूलों के सागर अपने थे, शबनम की सहबा अपनी थी
जर्रों के हीरे अपने थे, तारों की माला अपनी थी
दरिया की लहरें अपनी थीं, लहरों का तरन्नुम अपना था
जर्रों से लेकर तारों तक यह सारी दुनिया अपनी थी
ऐ दोस्त तुझे शायद वह दिन अब याद नहीं, अब याद नहीं

~ 'अज्ञात'


  Dec 01, 2017| e-kavya.blogspot.com
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ये मुमकिन है कि मिल जाएँ

 
ये मुमकिन है कि मिल जाएँ तिरी खोई हुई चीज़ें 
क़रीने से सजा कर रखा ज़रा बिखरी हुई चीज़ें

कभी यूँ भी हुआ है हँसते हँसते तोड़ दी हम ने
हमें मालूम था जुड़ती नहीं टूटी हुई चीज़ें

ज़माने के लिए जो हैं बड़ी नायाब और महँगी
हमारे दिल से सब की सब हैं वो उतरी हुई चीज़ें

दिखाती हैं हमें मजबूरियाँ ऐसे भी दिल अक्सर
उठानी पड़ती हैं फिर से हमें फेंकी हुई चीज़ें

किसी महफ़िल में जब इंसानियत का नाम आया है
हमें याद आ गई बाज़ार में बिकती हुई चीज़ें

~ हस्तीमल हस्ती

  Nov 30, 2017| e-kavya.blogspot.com
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आहट हुई देखो ज़रा

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आहट हुई देखो ज़रा
कोई नहीं, कोई नहीं!

आना जिन्हें था, आ चुके
गठरी सुखों की लादकर
कुछ द्वार से आए
कई दीवार ऊँची फाँदकर
लेकिन है कोई और ही
जिसकी प्रतीक्षा है मुझे
यों ही गईं रातें कई
मैं नींद भर सोई नहीं!

मेले यहाँ सजते रहे
हँसती रहीं रंगीनियाँ
सादी हँसी को गेह की
डँसती रहीं रंगीनियाँ
बनते गए सब अजनबी
पागल हवस की होड़ में
इक दर्द मेरे साथ था
मैं भीड़ में खोई नहीं!

मेरी चमन की वास
उसके घर गई, अच्छा लगा
उसके अजिर के अश्रु से
मैं भर गई, अच्छा लगा
लेकिन चुभे जब खार
अपने ही दुखों के देह में
आँसू उमड़ भीतर उठे
पर चुप रही, रोई नहीं!

आहट हुई देखो ज़रा
कोई नहीं, कोई नहीं!

~ रामदरश मिश्र


  Nov 23, 2017| e-kavya.blogspot.com
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मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे

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मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे
मुक़द्दर में चलना था चलते रहे

मिरे रास्तों में उजाला रहा
दिए उस की आँखों में जलते रहे

कोई फूल सा हाथ काँधे पे था
मिरे पाँव शो'लों पे जलते रहे

सुना है उन्हें भी हवा लग गई
हवाओं के जो रुख़ बदलते रहे

वो क्या था जिसे हम ने ठुकरा दिया
मगर उम्र भर हाथ मलते रहे

मोहब्बत अदावत वफ़ा बे-रुख़ी
किराए के घर थे बदलते रहे

लिपट कर चराग़ों से वो सो गए
जो फूलों पे करवट बदलते रहे

~ बशीर बद्र


  Nov 19, 2017| e-kavya.blogspot.com
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