Disable Copy Text

Thursday, June 2, 2016

उसी स्मृति-सौरभ में मृगमन मस्त रहे

उसी स्मृति-सौरभ में मृगमन मस्त रहे,
यही है हमारी अभिलाषा सुन लीजिये।
शीतल हृदय सदा होता रहे आँसुओं से,
छिपिये उसी में मत बाहर हो भीजिये।

हो जो अवकाश तुम्हें ध्यान कभी आवे मेरा,
अहो प्राण-प्यारे तो, कठोरता न कीजिये।
क्रोध से, विषाद से, दया से, पूर्व प्रीति ही से
किसी भी बहाने से तो, याद किया कीजिये।

~ जयशंकर प्रसाद

Jun 02, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये




चाहिये, अच्छों को जितना चाहिये
ये अगर चाहें, तो फिर क्या चाहिये

सोहबत-ए-रिन्दां से वाजिब है हज़र
जा-ए-मय अपने को खेंचा चाहिये
*पीने वालों की संगत; वाजिब=सही; हज़र=दूर रहना; जा-ए-मय=शराबखाना ; खेंचा=दूर रखना

चाहने को तेरे क्या समझा था दिल
बारे अब इस से भी समझा चाहिये
*बारे=आखिर

चाक मत कर जैब बे-अय्याम-ए-गुल
कुछ उधर का भी इशारा चाहिये
*जैब=कमीज की गरदनी; बे-अय्याम-ए-गुल=बिना गुलाबों के मौसम के

दोस्ती का पर्दा है बेगानगी
मुंह छुपाना हम से छोड़ा चाहिये

दुश्मनी में मेरी खोया ग़ैर को
किस क़दर दुश्मन है, देखा चाहिये

अपनी, रुस्वाई में क्या चलती है सअई
यार ही हंगामाआरा चाहिये
*सअई=मर्ज़ी; हंगामा आरा=हल्ला-गुल्ला करने वाला

मुन्हसिर मरने पे हो जिस की उमीद
नाउमीदी उस की देखा चाहिये
*मुन्हसिर=निर्भर होना

ग़ाफ़िल इन महतलअ़तों के वास्ते
चाहने वाला भी अच्छा चाहिये
*ग़ाफ़िल=अंजान; महतलअ़तों=चाँद से चेहरे वालों

चाहते हैं ख़ूब-रुओं को, 'असद'
आप की सूरत तो देखा चाहिये
*ख़ूब-रुओं=सुंदर चेहरे वाले

~ मिर्ज़ा ग़ालिब

Jun 01, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

दुनिया भी अजब सराये-फ़ानी देखी

दुनिया भी अजब सराये-फ़ानी देखी
हर चीज यहां की आनी जानी देखी
जो आ के न जाये वह बुढ़ापा देखा
जो जा के न आये, वह जवानी देखी।

*सराय=रहने की जगह; फ़ानी=नश्वर, जो नष्ट हो जायेगा

~ मीर अनीस लखनवी


May 31, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

मख़्मूर अपने दिल में

मख़्मूर अपने दिल में, तकब्बुर न लाइए,
दुनिया में हर उरूज का एक दिन ज़वाल है।

*मख़्मूर=नशे में चूर उन्मत्त; तकब्बुर=अभिमान; उरूज=बुलंदी; ज़वाल=पतन

मचलता होगा इन्हीं गालों पर शबाब कभी,
उबलती होगी इन्हीं आंखो से शराब कभी।

मगर अब इनमें वह पहली-सी कोई बात नहीं
जहाँ में आह किसी चीज की सबात नहीं।
*सबात=स्थायित्व

~ अख़्तर शीरानी

May 30, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

बड़े प्यार से मिलना सबसे




बड़े प्यार से मिलना सबसे
दुनिया में इनसान रे
क्या जाने किस भेस में बाबा मिल जाए भगवान रे

कौन बड़ा है कौन है छोटा
ऊँचा कौन और नीचा
प्रेम के जल से सभी को सीचा
यह है प्रभू का बग़ीचा
मत खींचों तुम दीवारें
इनसानों के दरमियान रे
क्या जाने किस भेस में बाबा मिल जाए भगवान रे

तुम महंत जी खोज रहे
उन्हें मोती की लड़ियों में
कभी उन्हें ढूँढा क्या
ग़रीबों की अँतड़ियों में
दीन जनों के अँसुवन में
क्या कभी किया है स्नान रे
क्या जाने किस भेस में बाबा मिल जाए भगवान रे

क्या जाने कब श्याम मुरारी
आ जावे बन कर के भिखारी
लौट न जाए कभी द्वार से
बिना लिए कुछ दान रे
क्या जाने किस भेस में बाबा मिल जाए भगवान रे

~ भरत व्यास


May 30, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

भला राख की ढेरी बनकर क्या होगा?



भला राख की ढेरी बनकर क्या होगा ?
इससे तो अच्छा है
कि जाने के पहले
अपना सब कुछ दान कर जाऊँ ।

अपनी आँखें
मैं अपनी स्पेशल के ड्राइवर को दे जाऊँगा ।
ताकि वह गाड़ी चलाते समय भी
फ़ुटपाथ पर चलती फुलवारियाँ देख सके

अपने कान
अपने अफ़सर को
कि वे चुग़लियों के शोर में कविता से वंचित न हों

अपना मुँह
नेताजी को
बेचारे भाषण के मारे अभी भूखे रह जाते हैं

अपने हाथ
श्री चतुर्भुज शास्त्री को
ताकि वे अपना नाम सार्थक कर सकें

अपने पैर
उस अभागे चोर को
जिसके, सुना है, पैर नहीं होते हैं

और अपना दिल
मेरी जान ! तुमको
ताकि तुम प्रेम करके भी पतिव्रता बनी रहो !

~ भारत भूषण अग्रवाल


May 28, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

इतने भले नहीं बन जाना साथी



इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना

इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना

ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो

काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी

~ वीरेन डंगवाल


May 26, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

सौ रंग है किस रंग से तस्वीर बनाऊँ



सौ रंग है किस रंग से तस्वीर बनाऊँ
मेरे तो कई रूप हैं किस रूप में आऊँ

क्यूँ आ के हर इक शख़्स मेरे ज़ख़्म कुरेदे
क्यूँ मैं भी हर इक शख़्स को हाल अपना सुनाऊँ

क्यूँ लोग मुसिर हैं कि सुनें मेरी कहानी
ये हक़ मुझे हासिल है सुनाऊँ कि छुपाऊँ
*मुसिर=बार बार एक ही काम करने के लिये कहने वाला

इस बज़्म में अपना तो शनासा नहीं कोई
क्या कर्ब है तन्हाई का मैं किस को बताऊँ
*बज़्म=महफिल; शनासा=जान-पहचान; कर्ब=बेचैनी

कुछ और तो हासिल न हुआ ख़्वाबों से मुझ को
बस ये है कि यादों के दर-ओ-बाम सजाऊँ
*दर-ओ-बाम=दरवाज़े और छत

बे-क़ीमत व बे-माया इसी ख़ाक में यारों
वो ख़ाक भी होगी जिसे आँखों से लगाऊँ
*बे-माया =बेसहारा, ग़रीब

किरनों की रिफ़ाक़त कभी आए जो मयस्सर
हम-राह मैं उन के तेरी दहलीज़ पे आऊँ
*रिफ़ाक़त=साथ, दोस्ती; मयस्सर=उपलब्ध

ख़्वाबों के उफ़ुक़ पर तिरा चेहरा हो हमेशा
और मैं उसी चेहरे से नए ख़्वाब सजाऊँ
*उफ़ुक़=आकाश का घेरा

रह जाएँ किसी तौर मेरे ख़्वाब सलामत
उस एक दुआ के लिए अब हाथ उठाऊँ

~
अतहर नफ़ीस

May 23, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

आँसू जब सम्मानित होंगे



आँसू जब सम्मानित होंगे मुझको याद किया जाएगा
जहाँ प्रेम का चर्चा होगा मेरा नाम लिया जाएगा।

मान-पत्र मैं नहीं लिख सका
राजभवन के सम्मानों का
मैं तो आशिक रहा जनम से
सुंदरता के दीवानों का
लेकिन था मालूम नहीं ये
केवल इस गलती के कारण
सारी उम्र भटकने वाला, मुझको शाप दिया जाएगा।

खिलने को तैयार नहीं थीं
तुलसी भी जिनके आँगन में
मैंने भर-भर दिए सितारे
उनके मटमैले दामन में
पीड़ा के संग रास रचाया
आँख भरी तो झूमके गाया
जैसे मैं जी लिया किसी से क्या इस तरह जिया जाएगा

काजल और कटाक्षों पर तो
रीझ रही थी दुनिया सारी
मैंने किंतु बरसने वाली
आँखों की आरती उतारी
रंग उड़ गए सब सतरंगी
तार-तार हर साँस हो गई
फटा हुआ यह कुर्ता अब तो ज़्यादा नहीं सिया जाएगा

जब भी कोई सपना टूटा
मेरी आँख वहाँ बरसी है
तड़पा हूँ मैं जब भी कोई
मछली पानी को तरसी है,
गीत दर्द का पहला बेटा
दुख है उसका खेल खिलौना
कविता तब मीरा होगी जब हँसकर ज़हर पिया जाएगा।
जहाँ प्रेम का चर्चा होगा मेरा नाम लिया जाएगा।

~ गोपाल दास नीरज


May 21, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

चलो ये तो सलीका है बुरे को मत बुरा





चलो ये तो सलीका है बुरे को मत बुरा कहिए
मगर उनकी तो ये ज़िद है हमें तो अब ख़ुदा कहिए

सलीकेमन्द लोगों पे यूँ ओछे वार करना भी
सरासर बदतमीज़ी है इसे मत हौसला कहिए

तुम्हारे दम पै जीते हम तो यारों कब के मर जाते
अगर ज़िंदा हैं क़िस्मत से बुजुर्गों की दुआ कहिए

हमारा नाम शामिल है वतन के जाँ-निसारों में
मगर यूँ तंग-नज़री से हमें मत बेवफ़ा कहिए
*जाँ-निसार=जान न्योछावर करना; तंग-नज़री=संकीर्ण-दृष्टि, ओछा पन

तुम्हीं पे नाज़ था हमको वतन के मो'तबर लोगों
चमन वीरान-सा क्यूँ है गुलों को क्या हुआ कहिए
*मो'तबर=प्रतिष्ठित

किसी की जान ले लेना तो इनका शौक है ‘आज़ाद’
जिसे तुम क़त्ल कहते हो उसे इनकी अदा कहिए

~ अज़ीज़ आज़ाद
 

May 20, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

फूल रजनीगंधा के ऑंचल में



फूल रजनीगंधा के ऑंचल में भर कर लाई है
ये हवा सीधी तुम्हारे घर से ही तो आई है

मन को छुआ-सा किसी ने, सामने कोई न था
घर बैठे ही मिल गई है प्राण को जीवन-सुधा
द्वार पर आहट न कोई, ना कहीं परछाई है
ये हवा सीधी तुम्हारे घर से ही तो आई है

स्मृति के स्वस्तिक नैनों में अंकित हो गए
कोर में बैठे हुए ऑंसू समर्पित हो गए
धन्य कैसी भेंट दुर्लभ तुमने ये भिजवाई है
ये हवा सीधी तुम्हारे घर से ही तो लाई है

पा लिया है मीत मैंने गंध के वातावरण पर
सामने बैठे मिले तुम गीतिका के आवरण पर
पृष्ठभूमि पर सुमन की सूखी पंखुरी पाई है
ये हवा सीधी तुम्हारे घर से ही तो आई है

~ रमेश रमन


May 19, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

दफ़्तरों में दर्द के शिक़वे-गिले होते नहीं

दफ़्तरों में दर्द के शिक़वे-गिले होते नहीं
मेज़ पर तय आँसुओं के मामले होते नहीं
फ़ाइलों में धड़कनों को बंद मत करिए कभी
काग़ज़ों पर ज़िंदगी के फ़ैसले होते नहीं

~ आशुतोष द्विवेदी

May 18, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

कहीं से लौट के हम लड़खडाए हैं






कहीं से लौट के हम लड़खडाए हैं क्या क्या
सितारे ज़ेर-ए-क़दम रात आए हैं क्या क्या ।
*ज़ेर-ए-क़दम=क़दमों के तले

नसीब-ए-हस्ती से अफ़सोस हम उभर न सके,
फ़राज़-ए-दार से पैग़ाम आए हैं क्या क्या।
*नसीब-ए-हस्ती=जीवन की तक़दीर; फ़राज़-ए-दार=ऊँचा, ऊपर से

जब उस ने हार के खंजर ज़मीं पे फ़ेंक दिया,
तमाम ज़ख्म-ए-जिगर मुस्कुराए हैं क्या क्या।

छटा जहाँ से उस आवाज़ का घना बादल,
वहीं से धूप ने तलवे जलाये हैं क्या क्या।

उठा के सर मुझे इतना तो देख लेने दे,
के क़त्ल गाह में दीवाने आए हैं क्या क्या।

कहीं अंधेरे से मानूस हो न जाए अदब ,
चराग तेज़ हवा ने बुझाये हैं क्या क्या।
*मानूस=घनिष्ठ

~
क़ैफी आज़मी
May 17, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

ज़रा सी रौशनी महदूद कर दो

ज़रा सी रौशनी महदूद कर दो
अंधेरों को दिया खलता बहुत है
*महदूद=हद के भीतर

गिले मुझसे हैं उसको बात दीगर
मुझे उसने कहीं चाहा बहुत है
*दीगर=और


वो मेरा दोस्त है ये सच है लेकिन
वो तारीफें मेरी करता बहुत है

ये चोटें ऊपरी दिखती हैं यूँ तो
वो अंदर तक कहीं टूटा बहुत है

~ मौनी गोपाल 'तपिश'

May 16, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh