Disable Copy Text

Monday, April 27, 2020

पराया लग रहा था जो


पराया लग रहा था जो वही अपना निकल आया
मिरा इक अजनबी से दूर का रिश्ता निकल आया

अभी तक तो तिरी यादें मिरी मीरास थीं लेकिन
तसव्वुर में कहाँ से इक नया चेहरा निकल आया

वो दरिया है ये कहने में मुझे अब शर्म आती है
मुझे सैराब क्या करता वो ख़ुद प्यासा निकल आया
*सैराब=जिसकी प्यास बुझ गई हो
 
इसी उम्मीद पर सब अश्क में ने सर्फ़ कर डाले
अगर इन मोतियों में एक भी सच्चा निकल आया

वो मेरी ज़िंदगी भर की कमाई ही सही लेकिन
मैं क्या करता वही सिक्का अगर खोटा निकल आया

मुझे उस बज़्म में याद आ गईं तन्हाइयाँ अपनी
मैं सब को छोड़ के उस बज़्म से तन्हा निकल आया

मुझे चारों तरफ़ से मंज़िलों ने घेर रक्खा था
यहाँ से भी निकलने का मगर रस्ता निकल आया

अंधेरा था तो ये सारे शजर कितने अकेले थे
खुली जो धूप तो हर पेड़ से साया निकल आया

~ भारत भूषण पन्त

Apr 27, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment