रंग हवा से छूट रहा है मौसम-ए-कैफ़-ओ-मस्ती है
फिर भी यहाँ से हद्द-ए-नज़र तक प्यासों की इक बस्ती है
*मौसम-ए-कैफ़-ओ-मस्ती=उत्साह और नशीला
दिल जैसा अन-मोल रतन तो जब भी गया बे-राम गया
जान की क़ीमत क्या माँगें ये चीज़ तो ख़ैर अब सस्ती है
दिल की खेती सूख रही है कैसी ये बरसात हुई
ख़्वाबों के बादल आते हैं लेकिन आग बरसती है
अफ़्सानों की क़िंदीलें हैं अन-देखीं मेहराबों में
लोग जिसे सहरा कहते हैं दीवानों की बस्ती है
~ राही मासूम रज़ा
Jan 26, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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