Disable Copy Text

Wednesday, February 17, 2021

न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है



न बेताबी न आशुफ़्ता-सरी है
हमारी ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है
*आशुफ़्ता-सरी=पागल पन

फ़रेब-ए-आरज़ू खाएँ तो क्यूँ कर
तग़ाफ़ुल है न बेगाना-वशी है
* तग़ाफ़ुल=उपेक्षा; बेगाना-वशी=विरक्ति

मोहब्बत के सिवा जादा न मंज़िल
मोहब्बत के सिवा सब गुमरही है
*जादा=पगडंडी

मोहब्बत में शिकायत क्या गिला क्या
मोहब्बत बंदगी है बंदगी है

ख़ुदा बर-हक़ मगर इस को करें क्या
बुतों में सद-फ़ुसून-ए-दिलबरी है
*बर-हक़=सच; सद=सौ, फ़ुसून=जादू

मुझे नफ़रत नहीं जन्नत से लेकिन
गुनाहों में अजब इक दिलकशी है

न दो हूर-ओ-मय-ओ-कौसर के ता'ने
कि ज़ाहिद भी तो आख़िर आदमी है
*कौसर=स्वर्ग की एक नहर; ज़ाहिद=संयमी

~ हबीब अहमद सिद्दीक़ी

Feb 17, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment