Disable Copy Text

Wednesday, March 17, 2021

दिल-ए-मजबूर तू मुझ को


दिल-ए-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल
जहाँ महबूब महबूबा से आज़ादाना मिलता हो
किसी का नर्म-ओ-नाज़ुक हाथ अपने हाथ में ले कर
निकल सकता हो बे-खटके कोई सैर-ए-गुलिस्ताँ को

निगाहों के जहाँ पहरे न हों दिल के धड़कने पर
जहाँ छीनी न जाती हो ख़ुशी अहल-ए-मोहब्बत की
जहाँ अरमाँ भरे दिल ख़ून के आँसू न रोते हों
जहाँ रौंदी न जाती हो ख़ुशी अहल-ए-मोहब्बत की
*अहल-ए-मोहब्बत=मोहब्बत के लोग

जहाँ जज़्बात अहल-ए-दिल के ठुकराए न जाते हों
जहाँ बाग़ी न कहता हो कोई ख़ुद्दार इंसाँ को
जहाँ बरसाए जाते हों न कूड़े ज़ेहन-ए-इंसाँ पर
ख़यालों को जहाँ ज़ंजीर पहनाई न जाती हो
*अहल-ए-दिल=अच्छे दिल वाले लोग

कहाँ तक ऐ दिल-ए-नादाँ क़याम ऐसे गुलिस्ताँ में
जहाँ बहता हो ख़ून-ए-गर्म-ए-इंसाँ शाह-राहों पर
दरिंदों की जहाँ चाँदी हो ज़ालिम दनदनाते हों
झपट पड़ते हों शाहीं जिस जगह कमज़ोर चिड़ियों पर
*क़याम=ठहरना; शाह-राह=हाइ-वे

दिल-ए-मजबूर तू मुझ को किसी ऐसी जगह ले चल
जहाँ महबूब महबूबा से आज़ादाना मिलता हो

~ राजेन्द्र नाथ रहबर

Mar 17, 2021 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment