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Sunday, February 10, 2019

बौरे आमों पर बौराए



बौरे आमों पर बौराए
भौंर न आए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा
फैला-फैला नीला-नीला,
बर्फ़ जली-सी, पीली-पीली दूब हरी फिर,
जिस पर खिलता फूल फबीला
तरु की निवारण डालों पर मूँगा, पन्‍ना
औ' दखिनहटे का झकझोरा,
बौरे आमों पर बौराए
भौंर न आए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

माना, गाना गानेवाली चि‍ड़ियाँ आईं,
सुन पड़ती कोकिल की बोली,
चली गई थी गर्म प्रदेशों में कुछ दिन को
जो, लौटी हंसों की टोली,
सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
किंतु न दुल्‍हे के सिर जब तक
मंजरियों का मौर-मुकुट
कोई पहनाए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

डार-पात सब पीत पुष्‍पमय कर लेता
अमलतास को कौन छिपाए,
सेमल और पलाशों ने सिंदूर-पताके
नहीं गगन में क्‍यों फहराए?
छोड़ नगर की सँकड़ी गलियाँ, घर-दर, बाहर
आया, पर फूली सरसों से
मीलों लंबे खेत नहीं
दिखते पयराए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

प्रात: से संध्‍या तक पशुवत् मेहनत करके
चूर-चूर हो जाने पर भी,
एक बार भी तीन सैकड़े पैंसठ दिन में
पूरा पेट न खाने पर भी
मौसम की मदमस्‍त हवा पी जो हो उठते
हैं मतवाले, पागल, उनके
फाग-राग ने रातों रक्‍खा
नहीं जगाए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

बौरे आमों पर बौराए
भौंर न आए,
कैसे समझूँ मधुऋतु आई।

~ हरिवंशराय बच्चन


 Feb 10, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

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