तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत से अगर नफ़रत है
तू ने होंटों को लरज़ने से तो रोका होता
बे-नियाज़ी से मगर काँपती आवाज़ के साथ
तू ने घबरा के मिरा नाम न पूछा होता
*इज़हार-ए-मोहब्बत=प्रेम की अभिव्यक्ति; लरज़ना=कंपकपी; बे-नियाज़ी=उपेक्षा
तेरे बस में थी अगर मशअ'ल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख़्सार में गुलज़ार न भड़का होता
यूँ तो मुझ से हुईं सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें
अपने टूटे हुए फ़िक़्रों को तो परखा होता
*मशअ'ल=मसाल; आब-ओ-हवा=मौसम; फ़िक़्रों=तानों
यूँही बे-वज्ह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी
दम-ए-रुख़्सत मैं अगर याद न आया होता
तेरा ग़म्माज़ बना ख़ुद तिरा अंदाज़-ए-ख़िराम
दिल न सँभला था तो क़दमों को सँभाला होता
*दम-ए-रुख़्सत=विदाई के क्षण; ग़म्माज़=चुगली करने वाला; अंदाज़-ए-ख़िराम=धीरे धीरे चलने का अंदाज़
अपने बदले मिरी तस्वीर नज़र आ जाती
तू ने उस वक़्त अगर आइना देखा होता
हौसला तुझ को न था मुझ से जुदा होने का
वर्ना काजल तिरी आँखों में न फैला होता
~ अहमद नदीम क़ासमी
तू ने होंटों को लरज़ने से तो रोका होता
बे-नियाज़ी से मगर काँपती आवाज़ के साथ
तू ने घबरा के मिरा नाम न पूछा होता
*इज़हार-ए-मोहब्बत=प्रेम की अभिव्यक्ति; लरज़ना=कंपकपी; बे-नियाज़ी=उपेक्षा
तेरे बस में थी अगर मशअ'ल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख़्सार में गुलज़ार न भड़का होता
यूँ तो मुझ से हुईं सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें
अपने टूटे हुए फ़िक़्रों को तो परखा होता
*मशअ'ल=मसाल; आब-ओ-हवा=मौसम; फ़िक़्रों=तानों
यूँही बे-वज्ह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी
दम-ए-रुख़्सत मैं अगर याद न आया होता
तेरा ग़म्माज़ बना ख़ुद तिरा अंदाज़-ए-ख़िराम
दिल न सँभला था तो क़दमों को सँभाला होता
*दम-ए-रुख़्सत=विदाई के क्षण; ग़म्माज़=चुगली करने वाला; अंदाज़-ए-ख़िराम=धीरे धीरे चलने का अंदाज़
अपने बदले मिरी तस्वीर नज़र आ जाती
तू ने उस वक़्त अगर आइना देखा होता
हौसला तुझ को न था मुझ से जुदा होने का
वर्ना काजल तिरी आँखों में न फैला होता
~ अहमद नदीम क़ासमी
Dec 14, 2019 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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