मेरे जीवन के पतझड़ में
ऋतुपति अब आए भी तो क्या?
ऋतुराज स्वयं है पीत-वर्ण
मेरी आहों को छू-छू कर,
मेरे अंतर में चाहों की
है चिता धधकती धू-धू कर,
मेरे अतीत पर वर्तमान
अब यदि पछताए भी तो क्या?
मधुमास न देखा जिस तस्र ने
फिर उसको ग्रीष्म जलाती क्यों ?
मधु-मिलन न जाना हो जिसने
विरहाग्नि उसे झुलसाती क्यों ?
निर्झर ने चाहा बलि होना
सरिता की विगलित ममता पर,
हँस दी तब सरिता की लहरें
निर्झर की उस भावुकता पर,
यदि सरिता को उस निर्झर की
अब याद सताए भी तो क्या?
जिसकी निश्च्छलता पर मेरे
अरमान निछावर होते थे,
जिसकी अलसाई पलकों पर
मेरे सुख सपने सोते थे,
मेरे जीवन के पृष्ठ किसी
निष्ठुर की आँखों से ओझल,
शैशव की कारा में बंदी
मेरे नव-यौवन की हलचल।
अब कोई यदि मेरे पथ पर
दृग-सुमन बिछाए भी तो क्या?
दु:ख झंझानिल में भी मैंने
था अपना पथ निर्माण किया,
पथ के शूलों को भी मैंने
था फूलों सा सम्मान किया,
प्यासों की प्यास बुझाना ही
निर्झर ने जाना जीवन भर,
सागर के खारे पानी में
घुल गया उधर सरिता का उर।
जिसके अपनाने में मैंने
अपनेपन की परवाह न की,
उसने मेरे अपनेपन का
क्रंदन सुनकर भी आह न की।
अब दुनिया मेरे गीतों में
अपनापन पाए भी तो क्या?
~ बलबीर सिंह 'रंग'
Dec 29, 2019 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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