घातक है, जो देवता–सदृश दिखता है
लेकिन कमरे में ग़लत हुक्म लिखता है
जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है
समझो उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है
जो किसी लोभ के विवश मूक रहता है
उस कुटिल राजतंत्री कदर्य को धिक् है
वह मूक सत्यहंता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हेतु, ठगों के बल हैं
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं
जो छल–प्रपंच सब को प्राश्रय देते हैं
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं।
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है
भारत अपने घर में ही हार गया है।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से
सीलें जबान, चुपचाप काम पर जायें
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें
जा कहो पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में
तामस यदि बढ़ता गया ढकेल प्रभा को
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
~ रामधारी सिंह दिनकर
Dec 27, 2016| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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