संग तुम्हारे गाऊँगा मैं कब उठकर, आनंद विहंगिनी!
कुछ अँधियारे, कुछ उजियारे, सुनता हूँ जब तान तुम्हारी,
आ जाता है ध्यान कि मुझको करनी है दिन की तैयारी,
औ' जग-धंधों में पड़्ना है, साथ सोचता भी जाता हूँ
संग तुम्हारे गाऊँगा मैं कब उठ कर, आनंद विहंगिनी!
ख़ून पसीने से दुनिया का कर्ज़ चुका कर जब आता हूँ,
तब रजनी के सूनेपन में कुछ अपने पन को पाता हूँ,
और गूँजती है कानों में तब फिर प्रातः की प्रतिध्वनियाँ,
औ' ध्वनियों से उत्तर दे कर गाता हूँ निर्द्वंद विहंगिनी!
दिन को नौकर हूँ मैं लेकिन रातों का राजा बन जाता,
सपना, सत्य, कल्पना, अनुभव का अद्भुत दरबार लगाता,
कहाँ-कहाँ से किन किन शाहों के मुझको संदेशे आते,
जाते हैं फ़रमान जगत में बनकर मेरे छंद, विहंगिनी!
नीड़ों की नीरव नींदों में तुम क्या मेरी धुन पहचानो,
जिस दुख, सुख को मैं भजता हूँ, तुम क्या उसको जानो मानो,
डाह बहुत है तुमहे मुझको मुक्त परों की मुक्त स्वरों की,
गो न गये दे मुझको कुछ कम जीवन के प्रतिबंध, विहंगिनी!
संग तुम्हारे गाऊँगा मैं कब उठकर, आनंद विहंगिनी!
~ हरिवंशराय बच्चन
Dec 25, 2016| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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