नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे खेली होली।
जागी रात सेज प्रिय पति सँग, रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप, कंज छवि मंजु मंजु हँस खोली
मली मुख-चुम्बन-रोली।
*कंज=केश; मंजु=मोहक
प्रिय, कर कठिन उरोज, परस, कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मन्द हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली।
*वसन=वस्त्र, कमरबंद; दशन=दाँत
मधु ऋतु रात, मधुर अधरों की, पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली
बनी रति की छवि भोली।
*अलक=सिर से लटकते बाल
बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल, मुख-लट,पट, दीप बुझा, हँस बोली
रही यह एक ठिठोली।
~ सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
Mar 2, 2018 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
No comments:
Post a Comment