वो जो कहलाता था दीवाना तिरा
वो जिसे हिफ़्ज़ (याद) था अफ़्साना तिरा
जिस की दीवारों पे आवेज़ां (सजायी) थीं
तस्वीरें तिरी,
वो जो दोहराता था
तक़रीरें (प्रस्तुति) तिरी,
वो जो ख़ुश था तिरी ख़ुशियों से
तिरे ग़म से उदास,
दूर रह के जो समझता था
वो है तेरे पास,
वो जिसे सज्दा (सर झुकाना) तुझे करने से
इंकार न था,
उस को दर-अस्ल कभी तुझ से
कोई प्यार न था,
उस की मुश्किल थी
कि दुश्वार थे उस के रस्ते,
जिन पे बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर (बिना भय)
घूमते रहज़न थे
सदा उस की अना (अहम) के दर पे,
उस ने घबरा के
सब अपनी अना की दौलत
तेरी तहवील (निष्ठा) में रखवा दी थी,
अपनी ज़िल्लत (अपमान) को वो दुनिया की नज़र
और अपनी भी निगाहों से छुपाने के लिए,
कामयाबी को तिरी,
तिरी फ़ुतूहात (विजय),
तिरी इज़्ज़त को,
वो तिरे नाम तिरी शोहरत को,
अपने होने का सबब जानता था,
है वजूद उस का जुदा तुझ से
ये कब मानता था।
वो मगर
पुर-ख़तर (जोख़िम भरे) रास्तों से आज निकल आया है,
वक़्त ने तेरे बराबर न सही
कुछ न कुछ अपना करम उस पे भी फ़रमाया है,
अब उसे तेरी ज़रूरत ही नहीं,
जिस का दावा था कभी
अब वो अक़ीदत (विश्वास) ही नहीं,
तेरी तहवील (निष्ठा) में जो रक्खी थी कल
उस ने अना
आज वो माँग रहा है वापस
बात इतनी सी है
ऐ साहिब-ए-नाम-ओ-शोहरत (नाम और प्रसिद्धि प्राप्त इंसान)
जिस को कल
तेरे ख़ुदा होने से इंकार न था,
वो कभी तेरा परस्तार (श्रद्धालु) न था।
~ जावेद अख़्तर
Apr 28, 2018 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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