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Sunday, June 17, 2018

ओ पिता

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ओ पिता,
तुम गीत हो घर के
और अनगिन काम दफ़्तर के।

छाँव में हम रह सकें यूँ ही
धूप में तुम रोज़ जलते हो
तुम हमें विश्वास देने को
दूर, कितनी दूर चलते हो

ओ पिता,
तुम दीप हो घर के
और सूरज-चाँद अंबर के।

तुम हमारे सब अभावों की
पूर्तियाँ करते रहे हँसकर
मुक्ति देते ही रहे हमको
स्वयं दुख के जाल में फँसकर

ओ पिता,
तुम स्वर, नए स्वर के
नित नये संकल्प निर्झर के।

~ कुँवर बेचैन


  Jun 17, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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