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Sunday, June 3, 2018

कभी कभी बेहद डर लगता है

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कभी कभी बेहद डर लगता है
कि दोस्ती के सब रुपहले रिश्ते
प्यार के सारे सुनहरे बंधन
सूखी टहनियों की तरह
चटख़ कर टूट न जाएँ

आँखें खुलें, बंद हों देखें
लेकिन बातें करना छोड़ दें
हाथ काम करें
उँगलियाँ दुनिया भर के क़ज़िए (मत-भेद) लिक्खें
मगर फूल जैसे बच्चों के
डगमगाते छोटे छोटे पैरों को
सहारा देना भूल जाएँ
और सुहानी शबनमी रातों में
जब रौशनियाँ गुल हो जाएँ

तारे मोतिया चमेली की तरह महकें
प्रीत की रीत
निभाई न जाए
दिलों में कठोरता घर कर ले
मन के चंचल सोते सूख जाएँ
यही मौत है!
उस दूसरी से
बहुत ज़ियादा बुरी
जिस पर सब आँसू बहाते हैं

अर्थी उठती है
चिता सुलगती है
क़ब्रों पर फूल चढ़ाए जाते हैं
चराग़ जुलते हैं
लेकिन ये, ये तो
तन्हाई के भयानक मक़बरे हैं
दाइमी (हमेशा के लिए) क़ैद है
जिस के गोल गुम्बद से
अपनी चीख़ों की भी
बाज़-गश्त नहीं आती
कभी कभी बेहद डर लगता है

~ सज्जाद ज़हीर


  Jun 3, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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