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Sunday, August 12, 2018

मज़दूर

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मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या?
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।

अम्बर पर जितने तारे, उतने वर्षों से
मेरे पुरखों ने धरती का रूप सँवारा,
धरती को सुंदरतम करने की ममता में
बिता चुका है कई पीढियाँ वंश हमारा।
और अभी आगे आने वाली सदियों में
मेरे वंशज धरती का उद्धार करेंगे,
इस प्यासी धरती के हित मैं ही लाया था
हिमगिरि चीर, सुखद गंगा की निर्मल धारा।
मैंने रेगिस्तानों की रेती धो-धो कर
वंध्या धरती पर भी स्वर्णिम पुष्प खिलाए।
मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या?

अपने नहीं अभाव मिटा पाया जीवन भर
पर औरों के सभी अभाव मिटा सकता हूँ,
तूफ़ानों भूचालों की भय-प्रद छाया में,
मैं ही एक अकेला, जो गा सकता हूँ।
मेरे 'मैं' की संज्ञा भी इतनी व्यापक है
इसमें मुझ-से अगणित प्राणी आ जाते हैं
मुझको अपने पर अदम्य विश्वास रहा है
मैं खंडहर को फिर महल बना सकता हूँ
जब जब भी मैंने खंडहर आबाद किए हैं
प्रलय-मेघ भूचाल देख मुझको शरमाए।
मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या?

ऐसे ही मेरे कितने साथी भूखे रह,
लगे हुए हैं औरों के हित अन्न उगाने,
इतना समय नहीं मुझको जीवन में मिलता
अपनी ख़ातिर सुख के कुछ सामान जुटा लूँ।
पर मेरे हित उनका भी कर्तव्य नहीं क्या?
मेरी बाँहें जिनके भरती रहीं खज़ाने,
अपने घर के अंधकार की मुझे न चिंता
मैंने तो औरों के बुझते दीप जलाए।

मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या?
अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए।

~ देवराज दिनेश


  Aug 12, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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