Disable Copy Text

Friday, August 3, 2018

रात ओढ़े हुए आई है फ़क़ीरों का लिबास

Image may contain: 1 person, closeup

रात ओढ़े हुए आई है फ़क़ीरों का लिबास
चाँद कश्कोल-ए-गदाई की तरह नादिम है
एक इक साँस किसी नाम के साथ आती है
एक इक लम्हा-ए-आज़ाद नफ़स मुजरिम है
*कश्कोल-ए-गदाई=(भिखारी का) कटोरा; नादिम=लज्जित; नफ़स=साँस

कौन ये वक़्त के घूँघट से बुलाता है मुझे
किस के मख़मूर इशारे हैं घटाओं के क़रीब
कौन आया है चढ़ाने को तमन्नाओं के फूल
इन सुलगते हुए लम्हों की चिताओं के क़रीब
*मख़मूर=नशीले

वो तो तूफ़ान थी, सैलाब ने पाला था उसे
उस की मदहोश उमंगों का फ़ुसूँ क्या कहिए
थरथराते हुए सीमाब की तफ़्सीर भी क्या
रक़्स करते हुए शोले का जुनूँ क्या कहिए
*फ़ुसूँ=जादू; सीमाब=पारा; तफ़्सीर=फैलाव; रक़्स=नृत्य

रक़्स अब ख़त्म हुआ मौत की वादी में मगर
किसी पायल की सदा रूह में ताबिंदा है
छुप गया अपने निहाँ-ख़ाने में सूरज लेकिन
दिल में सूरज की इक आवारा किरन ज़िंदा है
*ताबिंदा=रौशन; निहाँ=ख़ाने=छुपने की जगह

कौन जाने कि ये आवारा किरन भी छुप जाए
कौन जाने कि इधर धुँद का बादल न छटे
किस को मालूम कि पायल की सदा भी खो जाए
किस को मालूम कि ये रात भी काटे न कटे

ज़िंदगी नींद में डूबे हुए मंदिर की तरह
अहद-ए-रफ़्ता के हर इक बुत को लिए सूती है
घंटियाँ अब भी मगर बजती हैं सीने के क़रीब
अब भी पिछले को, कई बार सहर होती है
*अहद-ए-रफ़्ता=गुज़रे हुए दिन; सूती=कपास का

~ मुस्तफ़ा ज़ैदी

  Aug 03, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment