सच कह दूँ ऐ बरहमन गर तू बुरा न माने
तेरे सनम-कदों के बुत हो गए पुराने
अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने
तंग आ के मैं ने आख़िर दैर ओ हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा छोड़े तिरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है
*सनम-कदों=जा घरों; जंग-ओ-जदल=लड़ाई; वाइज़=उपदेशक;
दैर ओ हरम=मंदिर-मस्जिद; वाज़=सलाह; ख़ाक-ए-वतन=देश की मिट्टी
आ ग़ैरियत के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आसमाँ से इस का कलस मिला दें
हर सुब्ह उठ के गाएँ मंतर वो मीठे मीठे
सारे पुजारियों को मय पीत की पिला दें
शक्ति भी शांति भी भगतों के गीत में है
धरती के बासीयों की मुक्ती भी प्रीत में है
*ग़ैरियत=अपना-पराया; नक़्शे-दुई=दोगलापन
~ अल्लामा इक़बाल
May 03, 2019 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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