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Saturday, May 4, 2019

संदलीं जिस्म की ख़ुशबू से महकती...


संदलीं जिस्म की ख़ुशबू से महकती हुई रात
मुझ से कहती है यहीं आज बसेरा कर ले
गर तिरी नींद उजालों की परस्तार नहीं
अपने एहसास पे ज़ुल्फ़ों का अँधेरा कर ले

*परस्तार=पूजने वाला

मैं कि दिन भर की चका-चौंद से उकताया हुआ
किसी ग़ुंचे की तरह धूप में कुम्हलाया हुआ
इक नई छाँव में सुस्ताने को आ बैठा हूँ
गर्दिश-ए-दहर के आलाम से घबराया हुआ
सोचता हूँ कि यहीं आज बसेरा कर लूँ

*गर्दिश-ए-दहर=धरती की डोलना

सुब्ह के साथ कड़ी धूप खड़ी है सर पर
क्यूँ न इस अब्र को कुछ और घनेरा कर लूँ
जाने ये रात अकेले में कटे या न कटे
क्यूँ न कुछ देर शबिस्ताँ में अँधेरा कर लूँ

*अब्र=बादल; शबिस्ताँ=रात में रुकने का स्थान

लेकिन इस रात की ये बात न बढ़ जाए कहीं
तुझ से मिल कर ये मिरे दिल को लगा है धड़का
राख हो जाऊँगा मैं सुब्ह से पहले पहले
खुल के सीने में जो एहसास का शोला भड़का

~ क़तील शिफ़ाई 

 May 04, 2019 | e-kavya.blogspot.com
 Submitted by: Ashok Singh

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