छुटपुटे के ग़ुर्फ़े में
लम्हे अब भी मिलते हैं
सुब्ह के धुँदलके में
फूल अब भी खिलते हैं
अब भी कोहसारों पर
सर-कशीदा हरियाली
पत्थरों की दीवारें
तोड़ कर निकलती है
अब भी आब-ज़ारों पर
कश्तियों की सूरत में
ज़ीस्त की तवानाई
ज़ाविए बदलती है
लम्हे अब भी मिलते हैं
सुब्ह के धुँदलके में
फूल अब भी खिलते हैं
अब भी कोहसारों पर
सर-कशीदा हरियाली
पत्थरों की दीवारें
तोड़ कर निकलती है
अब भी आब-ज़ारों पर
कश्तियों की सूरत में
ज़ीस्त की तवानाई
ज़ाविए बदलती है
*छुटपुटे=जल्दबाज़ी); ग़ुर्फ़े=ख़िड़की; कोहसारों=पर्वतों; सर-कशीदा=ऊँची; आब-ज़ारों=झरने; ज़ीस्त=जीवन; तवानाई=ताक़त; ज़ाविए=दृष्टि-कोण
अब भी घास के मैदाँ
शबनमी सितारों से
मेरे ख़ाक-दाँ पर भी
आसमाँ सजाते हैं
अब भी खेत गंदुम के
तेज़ धूप में तप कर
इस ग़रीब धरती को
ज़र-फ़िशाँ बनाते हैं
*ख़ाक-दाँ=घर; गंदुम=गेहूँ; ज़र-फ़िशाँ=सुनहरा
साए अब भी चलते हैं
सूरज अब भी ढलता है
सुब्हें अब भी रौशन हैं
रातें अब भी काली हैं
ज़ेहन अब भी चटयल (उजाड़) हैं
रूहें अब भी बंजर हैं
जिस्म अब भी नंगे हैं
हाथ अब भी ख़ाली हैं
अब भी सब्ज़ फ़सलों में
ज़िंदगी के रखवाले
ज़र्द ज़र्द चेहरों पर
ख़ाक ओढ़े रहते हैं
अब भी उन की तक़दीरें
मुंक़लिब नहीं होतीं
मुंक़लिब नहीं होंगी
कहने वाले कहते हैं
गर्दिशों की रानाई
आम ही नहीं होती
अपने रोज़-ए-अव्वल की
शाम ही नहीं होती
*चटयल=उजाड़; ज़र्द=पीले; मुंक़लिब=बदली; रानाई=सुंदरता; रोज़-ए-अव्वल=पहले दिन
~ अहमद नसीम क़ासमी
May 11, 2019 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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