तू मिरे पास रहे मैं तिरी उल्फ़त में फ़ना (बरबाद)
जैसे अँगारों पे छींटों से धुआँ
बिंत-ए-महताब (चाँद की बेटी) को हाले (हैलो) में लिए
तू फ़रोज़ाँ (प्रकाशमान) हो मगर सारी तपिश मेरी हो
फैले अफ़्लाक (आसमानों) में बे-सम्त (दिशाहीन) सफ़र
साथ में वक़्त का रहवार (घोड़ा) लिए
जिस तरफ़ मौज-ए-तमन्ना कह दे
जुस्तुजू (इच्छा) शौक़ का पतवार लिए
गुफ़्तुगू रब्त (सम्बंध) के एहसास से दूर
ख़ामुशी रंज-ए-मुकाफ़ात (प्रतिशोध) से दूर
चाँदनी की कभी सरगोशी (काना-फूँसी) सी
फूल के नर्म लबों को चूमे
गर्द अंदेशा को शबनम धो दे
क़हक़हे फूटीं तअम्मुल (सोच) के बग़ैर
नूर उबले कभी फ़व्वारों में
और नुक़्ते (बिंदु) में सिमट आए कभी
तह-ब-तह खोले रिदा (चादर) ज़ुल्मत की
अपनी बेबाक निगाहों से मुनव्वर (रौशन) कर दे
नुक़्ता-ए-वस्ल (मिलन बिंदु) ये मिटता हुआ धब्बा ही सही
होश बहता है तो बह जाने दे
तू मिरे पास रहे मैं तिरी उल्फ़त में फ़ना
~ अबरारूल हसन
Jun 2, 2019 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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