अभी सर्दी पोरों की पहचान के मौसम में है
इस से पहले कि बर्फ़ मेरे दरवाज़े के आगे दीवार बन जाए
तुम क़हवे की प्याली से उठती महकती भाप की तरह
मेरी पहचान कर लो
मैं अभी तक सब्ज़ हूँ
मुँह-बंद इलायची की तरह
मैं ने आज तुम्हारी याद के कबूतर को
अपने ज़ेहन के काबुक से आज़ाद किया
तो मुझे अंदर की पतावर दिखाई दी
चाँद पूरा होने से पहले तुम ने मुझे छुआ
और बात पूरी होने से पहले
तुम ने बात ख़त्म कर दी
*काबुक=कबूतर का दड़बा; पतावर=पुआल, सूखी घास
जानकारी के भी कितने दुख होते हैं
बिन कहे ही तल्ख़ बात समझ में आ जाती है
अच्छी बात को दोहराने की सई
और बुरी बात को भुलाने की जिद्द-ओ-जोहद में
ज़िंदगी बीत जाती है
बर्फ़ की दीवार में
अब के मैं भी चुनवा दी जाऊँगी
कि मुझे आग से खेलता देख कर
दानिश-मंदों ने यही फ़ैसला किया है
*सई=प्रयत्न, हिम्मत; जिद्द-ओ-जहद=संघर्ष; दानिश-मंदों=शिक्षित समाज
मैं तुम्हारे पास लेटी हुई भी
फुलझड़ी की तरह सुलगती रहती हूँ
मैं तुम से दूर हूँ
तब भी तुम मेरी लपटों से सुलगते और झुलसते रहते हो
समुंदर सिर्फ़ चाँद का कहा मानता है
सर-ए-शाम जब सूरज और मेरी आँखें सुर्ख़ हों
तो मैं चाँद के बुलावे पे समुंदर का ख़रोश देखने चली जाती हूँ
और मेरे पैरों के नीचे से रेत निकल कर
मुझे बे-ज़मीन कर देती है
पैर बे-ज़मीन
और सर बे-आसमान
*ख़रोश-शोर, हाहाकार; सब्ज़=हरा
फाँसी पर लटके शख़्स की तरह हो के भी
यही समझती हो
कि मुँह-बंद इलायची की तरह अभी तक सब्ज़ हो
~ किश्वर नाहीद
Oct 13, 2019 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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