वही जो कुछ सुन रहा हूँ कोकिलों में,
वही जो कुछ हो रहा तय कोपलों में,
वही जो कुछ ढूँढ़ते हम सब दिलों में,
वही जो कुछ बीत जाता है पलों में,
बोल दो यदि...
कीच से तन-मन सरोवर के ढँके हैं,
प्यार पर कुछ बेतुके पहरे लगे हैं,
गाँठ जो प्रत्यक्ष दिखलाई न देती-
किन्तु हम को चाह भर खुलने न देती,
खोल दो यदि...
बहुत सम्भव, चुप इन्हीं
अमराइयों में गान आ जाये,
अवांछित, डरी-सी
परछाइयों में जान आ जाये,
बहुत सम्भव है इसी
उन्माद में बह दीख जाये
जिसे हम-तुम चाह कर भी
कह न पाये
वायु के रंगीन आँचल में भरी
अँगड़ाइयाँ बेचैन फूलों की सतातीं
तुम्हीं बढ़ कर एक प्याला
धूप छलका दो अँधेरे हृदय में
कि नाचे बेझिझक हर दृश्य
इन मदहोश आँखों में
तुम्हारा स्पर्श मन में सिमट आये
इस तरह ज्यों एक मीठी धूप में
कोई बहुत ही शोख़ चेहरा
खिलखिला कर सैकड़ों सूरजमुखी-सा
दृष्टि की हर वासना से
लिपट जाये
~ कुँवर नारायण
Feb 1, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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