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Sunday, February 16, 2020

घास भी मुझ जैसी है

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घास भी मुझ जैसी है
पाँव-तले बिछ कर ही ज़िंदगी की मुराद पाती है
मगर ये भीग कर किस बात गवाही बनती है
शर्मसारी की आँच की
कि जज़्बे की हिद्दत की
घास भी मुझ जैसी है

*मुराद=इच्छा; शर्मसारी=लज्जित; हिद्दत= तीव्रता

ज़रा सर उठाने के क़ाबिल हो
तो काटने वाली मशीन
उसे मख़मल बनाने का सौदा लिए
हमवार करती रहती है
औरत को भी हमवार करने के लिए
तुम कैसे कैसे जतन करते हो

*हमवार=समतल, सपाट

न ज़मीं की नुमू की ख़्वाहिश मरती है
न औरत की
मेरी मानो तो वही पगडंडी बनाने का ख़याल दुरुस्त था
जो हौसलों की शिकस्तों की आँच न सह सकें
वो पैवंद-ए-ज़मीं हो कर
यूँ ही ज़ोर-आवरों के लिए रास्ता बनाते हैं
मगर वो पर-ए-काह हैं
घास नहीं
घास तो मुझ जैसी है!

*नुमू=पैदावार; शिकस्त=पराजय; ज़ोर-आवरों=ज़बर्दस्त, ताक़तवर; पर-ए-काह=सूखी घास का बंडल

~ किश्वर नाहीद


Feb 16, 2020 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

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