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Saturday, May 6, 2017

वह कैसी थी, अब न बता पाऊंगा

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वह कैसी थी,
अब न बता पाऊंगा
वह जैसी थी।
प्रथम प्रणय की आँखों से था उसको देखा,
यौवन उदय, प्रणय की थी वह प्रथम सुनहली रेखा।

ऊषा का अवगुंठन पहने,
क्या जाने खग पिक के कहने,
मौन मुकुल सी, मृदु अंगो में,
मधुऋतु बंदी कर लाई थी!
स्वप्नों का सौंदर्य, कल्पना का माधुर्य
हृदय में भर, आई थी।
वह कैसी थी,
वह न कथा गाऊंगा
वह जैसी थी।

क्या है प्रणय? एक दिन बोली, उसका वास कहाँ है
इस समाज में? देह मोह का,
देह डोह का त्रास कहाँ है?
देह नहीं है परिधि प्रणय की,
प्रणय दिव्य है, मुक्ति हृदय की
यह अनहोनी रीति,
देह वेदी हो प्राणो के परिणय की।

बंध कर दृद्य मुक्त होते है,
बंध कर देह यातना सहती,
नारी के प्राणों में ममता
बहती रहती, बहती रहती।
नारी का तन माँ का तन है,
जाती वृद्धि के लिए विनिर्मित,
पुरुष प्रणय अधिकार प्रणय है,
सुख विलास के हित उत्कंठित।

तुम हो स्वप्न लोक के वासी,
तुम को केवल प्रेम चाहिए,
प्रेम तुम्हें देती मैं अबला,
मुझको घर की क्षेम चाहिए।
हृदय तुम्हें देती हूँ प्रियतम
देह नहीं दे सकती,
जिसे देह दूंगी अब निश्चित
स्नेह नहीं दे सकती।

अतः विदा दो मन के साथी,
तुम नभ के मैं भू की वासी,
नारी तन है, तन है, तन है,
हे मन प्राणो के अभिलाषी।
नारी देह शिखा है जो
नभ देहो के नव दीप संजोती,
जीवन कैसे देही होता
जो नारीमय देह न होती।

तुम हो सपनो के दृष्टा तुम
प्रेम ज्ञान औ सत्य प्रकाशी,
नारी है सौंदर्य प्राण,
नारी है रूप सृजन की प्यासी।

तुम जग की सोचो मैं घर की,
तुम अपने प्रभु, मैं निज दासी,
लज्जा पर न तुम्हें आती,
वन सकते नहीं प्रेम सन्यासी।
विदा! विदा!
शायद मिल जाएँ यदा कदा।

मैं बोला तुम जाओ,
प्रसन्न मन जाओ मेरा आशी,
उसके नयनों में आंसू थे,
अधरों पर निश्छल हंसी।
वह क्या समझ सकी थी, उस पर
क्यों रीझ था यह आत्मतुर
स्वप्न लोक का वासी?

मैं मौन रहा,
फिर स्वतः कहा,
बहती जाओ, बहती जाओ,
बहती जीवन धारा में,
शायद कभी लौट आओ तुम,
प्राण, बन सका अगर सर्वहारा मैं।

∼ सुमित्रानंदन पंत


  Apr 27, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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