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Saturday, May 6, 2017

हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार

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हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह
*मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार=गली और बाज़ार की चीज़

इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है कि एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह
*कू-ए-तिश्नगी=प्यास की सड़क; दौलत-ए-बेदार=अचानक आयी दौलत

वो तो कहीं है और मगर दिल के आस-पास
फिरती है कोई शय निगह-ए-यार की तरह

सीधी है राह-ए-शौक़ पे यूँ ही कहीं कहीं
ख़म हो गई है गेसू-ए-दिलदार की तरह
*ख़म=घुमावदार; गेसू-ए-दिलदार=प्रेयसी की ज़ुल्फें

बे-तेशा-ए-नज़र न चलो राह-ए-रफ़्तगाँ
हर नक़्श-ए-पा बुलंद है दीवार की तरह
*तेशा = कुल्हाड़ी; रफ्तगां = गुज़रे हुए लोग

अब जा के कुछ खुला हुनर-ए-नाख़ून-ए-जुनूँ
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह

'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह

~ मजरूह सुल्तानपुरी


  Apr 25, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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