Disable Copy Text

Friday, July 27, 2018

कोई आशिक़ किसी महबूबा से!

Image may contain: 2 people, night

याद की राहगुज़र जिस पे इसी सूरत से 
मुद्दतें बीत गई हैं तुम्हें चलते चलते 
ख़त्म हो जाए जो दो चार क़दम और चलो 
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्त-ए-फ़रामोशी का 
जिस से आगे न कोई मैं हूँ न कोई तुम हो 
साँस थामे हैं निगाहें कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ गुज़र जाओ या मुड़ कर देखो
गरचे वाक़िफ़ हैं निगाहें कि ये सब धोका है
गर कहीं तुम से हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहाँ होगा मुक़ाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और जुम्बिश-ए-बाज़ू का सफ़र

*दश्त-ए-फ़रामोशी=सब कुछ भूलजाने वाला वीराना; हम-आग़ोश=आलिंगन; मुक़ाबिल=आमने-सामने ; पैहम=लगातार; जुम्बिश=हिलाना-डुलना

दूसरी बात भी झूटी है कि दिल जानता है
याँ कोई मोड़ कोई दश्त कोई घात नहीं
जिस के पर्दे में मिरा माह-ए-रवाँ डूब सके
तुम से चलती रहे ये राह, यूँही अच्छा है
तुम ने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं

*दश्त=जंगल; घात=छुप कर प्रहार करने को बैठा हुआ; माह-ए-रवाँ=चल रहा महीना

~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


  Jul 27, 2018 | e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment