आख़िरी बार मिलो ऐसे कि जलते हुए दिल
राख हो जाएँ कोई और तक़ाज़ा न करें
चाक-ए-वादा न सिले ज़ख़्म-ए-तमन्ना न खिले
साँस हमवार रहे शम्अ की लौ तक न हिले
बातें बस इतनी कि लम्हे उन्हें आ कर गिन जाएँ
आँख उठाए कोई उम्मीद तो आँखें छिन जाएँ
*तकाज़ा=माँग; चाक-ए-वादा=टूटे हुए वादे
इस मुलाक़ात का इस बार कोई वहम नहीं
जिस से इक और मुलाक़ात की सूरत निकले
अब न हैजान ओ जुनूँ का न हिकायात का वक़्त
अब न तजदीद-ए-वफ़ा का न शिकायात का वक़्त
लुट गई शहर-ए-हवादिस में मता-ए-अल्फ़ाज़
अब जो कहना है तो कैसे कोई नौहा कहिए
आज तक तुम से रग-ए-जाँ के कई रिश्ते थे
कल से जो होगा उसे कौन सा रिश्ता कहिए
*हैजान=उत्तेजना; हिकायात=कहानी; तजदीद=फिर से (शुरू करना); हवादिस=हादसों का; मता-ए-अल्फ़ाज़=शब्दों नाम की वस्तु; नौहा=शोक
फिर न दहकेंगे कभी आरिज़-ओ-रुख़्सार मिलो
मातमी हैं दम-ए-रुख़्सत दर-ओ-दीवार मिलो
फिर न हम होंगे न इक़रार न इंकार मिलो
आख़िरी बार मिलो
*आरिज़-ओ-रुख़्सार=गाल और चेहरा; दम-ए-रुख़सत=विदाई के क्षण
~ मुस्तफ़ा ज़ैदी
Jul 22, 2018 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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