एक दो पल तो ज़रा और रुको
ऐसी जल्दी भी भला क्या है चले जाना तुम
शाम महकी है अभी और न पलकों पे सितारे जागे
हम सर-ए-राह अचानक ही सही
मुद्दतों बा'द मिले हैं तो न मिलने की शिकायत कैसी
फ़ुर्सतें किस को मयस्सर हैं यहाँ
आओ दो-चार क़दम और ज़रा साथ चलें
शहर-ए-अफ़्सुर्दा के माथे पे बुझी शाम की राख
ज़र्द पत्तों में सिमटती देखें
फिर उसी ख़ाक-ब-दामाँ पल से
अपने गुज़रे हुए कल की ख़ुश-बू
लम्हा-ए-हाल में शामिल कर के
अपनी बे-ख़्वाब मसाफ़त का इज़ाला कर लें
अपने होने का यक़ीं
और न होने का तमाशा कर लें
आज की शाम सितारा कर लें
**सर-ए-राह=रास्ते पर; शहर-ए-अफ़्सुर्दा=उदास शहर; दामाँ=कोना; ज़र्द=पीली; लम्हा-ए-हाल=वर्तमान; मसाफ़त=यात्रा; इज़ाला=क्षतिपूर्ति
~ ख़ालिद मोईन
Oct 28, 2018 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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